महालक्ष्मी पर्व की मान्यता में शामिल है विशिष्ट परंपरा
पर्व परंपरा-शरद कोकास
यह बात हम हमेशा से सुनते आ रहे हैं कि हमारी परंपराओं में जो भी पर्व है वे सभी कृषि पर ही आधारित है। यह बात अलग है कि हम कृषि से जुड़े कर्मकांडों को भूल गए हैं और उन्हें केवल धार्मिक पर्व बना दिया है। आज हमें किसी पर्व का मूल पता नहीं है। ऐसा ही एक पर्व है महालक्ष्मी या गौरी उत्सव जो गणेशोत्सव के दिनों में मनाया जाता है। गौरी को हम शिव की अर्धांगिनी के रूप में जानते हैं लेकिन यहाँ इस पर्व में यह गौरी ‘फसल’ है।
भौतिकवाद और दर्शन के विद्वान देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने अपने ग्रंथ ‘लोकायत’ में ‘गौरी’ और ‘गणपति’ पर दो अध्याय लिखें हैं। गौरी से सम्बंधित अध्याय में उन्होंने एक महत्वपूर्ण जानकारी दी है। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय कहते हैं कि यह बात उल्लेखनीय है कि कृषि कर्म की खोज स्त्रियों ने की थी जो कि शिकार एवं पशुपालन स्थिति के बाद की बात है। प्रारंभ में केवल स्त्रियां ही कृषि कार्य करती थी इसलिए समाज में उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुदृढ़ थी।
कृषि के आगमन के साथ पुरुष के महत्व में कमी आती है और उस समय जो पर्व परंपराओं में स्थापित किए जाते हैं उनमें स्त्री की प्रधानता ही होती है।
ऐसा ही एक पर्व है जो गणेश चतुर्थी के बाद आता है। भाद्रपद मास के चौथी तिथि पर गणेश की स्थापना होती है और उसके चार दिन बाद यह गौरी या महालक्ष्मी पर्व मनाया जाता है।
चट्टोपाध्याय कहते हैं कि इस अनुष्ठान की सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि यद्यपि यह एक पुरुष देवता के नाम पर है किंतु उस व्रत में उस देवता की भूमिका लगभग नगण्य है। देश के कुछ अपेक्षाकृत विकसित भागों में इस धार्मिक अनुष्ठान में गणेश को बुवाई के मौसम में नए चांद का प्रतीक माना जाता है। अन्य भागों में गणेश को इस व्रत की विभिन्न क्रियाओं के दौरान अचानक ही वहां से प्रस्थान होकर जाना पड़ता है और फिर इस व्रत का समस्त चरित्र स्त्रैण हो जाता है।
चट्टोपाध्याय कहते हैं व्रत के दूसरे दिन गणेश की प्रतिमा त्याग दी जाती है और इसके बाद केवल एक देवी का नाम सुनने को मिलता है वह देवी है ‘गौरी’ किंतु यह गौरी हमारे परिचित पौराणिक देवी-देवताओं वाली गौरी नहीं है इसके बजाय वह केवल कुछ पौधों की गठरी है जिसके साथ ही एक मानव प्रतीकात्मक प्रतिमा अर्थात कुमारी कन्या की प्रतिमा होती है।
चट्टोपाध्याय को पढ़ते हुए मैं अपने बचपन में पहुँच गया जब हमारे पड़ोस में हमारे मित्र शरद भोयर के यहाँ गणेश चतुर्थी के चौथे दिन महालक्ष्मी की स्थापना होती थी। शरद की माँ यानी भोयर काकू गौरी की बहुत सुन्दर प्रतिमा की स्थापना करती थीं,उनकी पूजा करती थीं। पांचवे दिन हम बच्चों को खाना खाने के लिए बुलाया जाता था जिसमे सोलह प्रकार की सब्जी बनती थी।
यह सोलह की संख्या इस पर्व में विशेष महत्त्व रखती है। दरअसल यह भी कृषि कर्म से सम्बन्धित है। यह इन दिनों की प्रमुख फसल धान के पकने का प्रतीक है हम जानते हैं कि धान की फसल लगभग सोलह सप्ताह अर्थात चार माह में ही पकती है।
चलिए इस पर्व की कुछ मजेदार बाते बताता हूँ। हम बच्चे एक दिन पहले से सोलह प्रकार के पौधों से फूल पत्ते आदि इकठ्ठा करते थे। इस पर्व को मनाने के लिए मोहल्ले की स्त्रियां सोलह प्रकार के पौधों से फूल पत्तियाँ इकठ्ठा करती है और उसे हल्दी से बनाई गई चौक (अल्पना) के ऊपर रख देती हैं। फिर इन पत्तियों का गट्ठर बनाया जाता है जो विवाहित स्त्रियों को सिंदूर के साथ दिया जाता है।
व्रत की सारी क्रियाएं पौधों के इसी गठुर के आस-पास होती है जिनमें केवल स्त्रियां भाग लेती हैं। इन पौधों और कुवांरी कन्या को घर के प्रत्येक कमरे में ले जाया जाता है और प्रश्न किया जाता है-“गौरी गौरी तुम क्या देख रही हो ?” कुमारी उत्तर देती हैं ‘मुझे समृद्धि और धनधान्य की बहुलता दिखाई दे रही है।’ गौरी के इस नाटकीय आगमन को वास्तविकता का पुट देने के लिए फर्श पर उसके पैरों के निशान बनाए जाते हैं जिससे इसमें बात का आभास दिया जाता कि वह वास्तव में इन कमरों में आई थी।
अगले दिन समारोह शुरू होने पर चावल और नारियल की गिरी से बने हुए पिण्ड देवी के सामने रखे जाते हैं। प्रत्येक हाथ से काता हुआ सुहागिन अपने से सोलह गुना लंबा सूत लेकर गौरी के सामने रखती है। फिर शाम को ‘घर की सभी लड़कियां बहुत देर तक गाती और नाचती रहती हैं और फिर गौरी के समक्ष नाचने और गाने के लिए अपनी सखियों के घर जाती हैं।’
चट्टोपाध्याय ने यह विवरण गुप्ते की किताब से लिया है वे कहते हैं कि दुर्भाग्य की बात है कि गुप्ते ने हमें इन गीतों और नृत्यों का कोई व्योरा नहीं दिया।
अगले दिन प्रतिमा को अर्द्धचंद्राकार मालपुए की भेंट चढ़ाई जाती है। फिर प्रत्येक स्त्री वह सूत जो उसने पिछली रात को प्रतिमा के सामने रखा था उठा लेती है। फिर हर स्त्री इस सूत का छोटा गोला बना लेती हैं और उसपर सोलह गांठें लगा लेती हैं। फिर इन्हें हल्दी में रंगा जाता है और तब हर स्त्रीं इसे अपने गले में पहन लेती है। सूत का यह हार वह अगले फसल कटाई दिवस तक पहने रहती है और फिर उस दिन सूर्यास्त से पहले इसे उतार कर विधिपूर्वक नदी में विसर्जित कर देती हैं।
इस बीच, जिस दिन यह सूत का हार गले में पहना जाता है उस दिन गौरी की प्रतिमा को किसी नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है और उसके किनारे से लाई गई मिट्टी को घर लाकर सारी जगह तथा बगीचे में बिखेर दिया जाता है। यहां भी स्त्री ही देवी की प्रतिमा को नदी तक ले जाती है और उसे यह चेतावनी दी जाती है कि पीछे मुड़ कर न देखे, ठीक उसी प्रकार जैसे किसी शव को ले जाते समय पीखे देखना वर्जित है।
ऐसे व्रत या अनुष्ठान करने के बाद आमतौर पर कथा होती है। इस व्रत की कथा बड़ी सीधी सी है। एक बार की बात है कि एक अति निर्धन व्यक्ति रहता था । वह अपनी गरीबी से तंग आकर डूबने के लिए नदी पर गया। वहां उसे एक वृद्ध विवाहिता स्त्री मिली; उसने इस निर्धन व्यक्ति को घर लौटने के लिए राजी किया और स्वयं भी उसके साथ गई। इस वृद्ध महिला के साथ उस व्यक्ति के घर में समृद्धि भी आई। अब उस वृद्धा का लौटने का समय आया। वह व्यक्ति उसे वापस नदी पार ले गया जहां वृद्धा ने नदी के किनारे मुठ्ठी भर मिट्टी उठाकर उसे दी और कहा कि यदि समृद्धि चाहता है तो इस मिट्टी को अपनी सारी संपत्ति पर बिखेर दे, वृद्धा ने उससे यह भी कहा कि हर साल भाद्र मास में वह गौरी के सम्मान में इसी प्रकार का अनुष्ठान किया करे।
चट्टोपाध्याय लिखते हैं इस अनुष्ठान के संबंध में गुप्ते के विचार इस प्रकार हैं:
इस क्रिया का तार्किक संकेत यह है कि :
(1) नदी या तालाब के किनारे वाली कछारी भूमि वास्तव में खेती-बाड़ी के लिए सबसे उपयुक्त है; .
(2) वृद्ध स्त्री प्रतीक है जाते हुए पुराने मौसम का।
(3) युवा लड़की नए मौसम का प्रतीक है जो खिलने के लिए तैयार है जैसा कि ‘छुई-मुई का चिह्न विशेष रूप से इंगित करता है।
(4) लेटी हुई आकृति अथवा पुतला संभवतः पुराने मौसम के मृत शरीर का प्रतीक हैं और चावल तथा मोटे अनाज की जो भेंट चढ़ाई जाती है, वह यही संकेत देता है कि उस समय यह अनाज प्रस्फुटित हो रहा होता है।
(5) अनाज की यह भेंट धान की नई फसल भादवी की आशा में दी जाती है। लेटी हुई आकृति की आत्मा का मध्यरात्रि को शरीर त्यागना उस मौसम में खेतों में काम करने के अंतिम दिन का संकेत है। लेटी हुई आकृति को धरती में सुला देना चारों और रेत बिखेर देना, सोलह गांठों वाले गोले बनाना, यह सब पुराने मौसम की समाप्ति और नए मौसम के आने का प्रतीक है। चट्टोपाध्याय कहते हैं की इस पर्व में एक विशेष बात है की यह सारे अनुष्ठान स्त्रियों द्वारा ही किए जाते हैं। यह सारे अनुष्ठान कृषि से सम्बंधित है जिन्हें केवल स्त्रियाँ ही करती हैं इसमें किसी पुरुष देवता अथवा किसी पुरुष के लिए कोई स्थान नहीं है।
लेकिन फिर हर कृषि कर्म में और धार्मिक कार्यों में पुरुष कैसे आते हैं यह एक लम्बी कहानी है लेकिन पुरुषों समझ जाओ,पितृसत्ता में हम इस बात को भूल बैठे हैं कि यह इस दुनिया को जन्म भी स्त्री ने दिया है और उसके लिए भोजन का इंतजाम भी उसीने किया है अगर उसे अन्नपूर्णा कहा जाता है तो यूँही नहीं कहा जाता।
अब कुछ बातें इन तस्वीरों के बारे मे बताता हूँ। महालक्ष्मी और गौरी की यह तस्वीरें मुझे भंडारा से मेरी बहन माया ने भेजी हैं जिनमे नागपुर के सचदेव, काटे और साकोरे परिवार के यहाँ की तस्वीर है।
एक तस्वीर वह है जिसमे महालक्ष्मी का सिर छोटी छोटी मटकियों से बनाया गया है यह तस्वीर मेरे कॉलेज की सहपाठी साक्षी अयाचित के जेठ चारुदत्त दाढ़कर के यहाँ की है जो भोपाल मे रहते हैं । इन मूर्तियों को घर मे ही तैयार किया जाता है मटके वाली मूर्ति का धड़ चावल से भरे कलश का है जिसे ऊपर से साड़ी पहनाई गई है यह प्रतिमाएँ तीन चार फीट तक की बनाई जाती हैं।
(जानकारी का स्त्रोत –मेरा अवचेतन और देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की पुस्तक ‘ लोकायत’ राजकमल प्रकाशन)