आज जयंती- स्वाभाविक अभिनेता के तौर पर
मोतीलाल ने फिल्मी दुनिया मे पहचान बनाई
मनोहर महाजन
मोतीलाल राजवंश..याने ‘मोतीलाल’! अभिनय की दुनिया वो नाम जिसने हिंदी फ़िल्मों को ‘मेलो-ड्रामा’ की तंग गलियों से निकालकर अदाकारी और अदायगी के खुले आसमान की ताज़ी हवा में खड़ा किया.
हाल ही में प्रकाशित एक पुस्तक ‘द हंड्रेड ल्यूमिनरीज़ ऑफ़ हिंदी सिनेमा’ की प्रस्तावना में इस सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने मोतीलाल के बारे में लिखा है: “एक महान और बहुत ही स्वाभाविक अभिनेता मोतीलाल की प्रशंसा में फ़िल्म इतिहास के पन्नों में बहुत कुछ दर्ज नहीं है.
मोतीलाल अपने समय से बहुत आगे थे. वह अगर आज जीवित होते तो उनकी बहुमुखी प्रतिभा नये नये कीर्तिमान स्थापित कर रही होती.वास्तव में वह हम में से कई लोगों की तुलना में बहुत बेहतर कर रहे होते.”
यही नही सिनेमा के लगभग हर कलाकार ने मोतीलाल के सहज स्वाभाविक शिल्प की सराहना की है, उनके द्वारा अभिनय में लाई गई ‘बारीक़ीयीं’ को स्वीकार किया है.
निर्देशक सुधीर मिश्रा का तो यहां तक मानना है कि:”फिल्म देखने वालों की ‘नई पीढ़ी’ के लिए मोतीलाल फिर से पेश होने के योग्य हैं. मोतीलाल को ‘एक्टिंग स्कूलों में पढ़ाया चाहिए क्योंकि वह भारतीय सिनेमा के ‘सर्वकालिक’ महान एक्टरों में से एक हैं’.
मोतीलाल ने 60 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया, जिसमें तक़रीबन 30 मुख्य भूमिका वाली थीं. बतौर नायक उनका सबसे बेहतरीन परफॉरमेंस फ़िल्म ‘मिस्टर संपत’ (1952) की उनकी ‘शीर्षक भूमिका’ को माना जा सकता है जिसमे उन्होंने एक ‘करिश्माई बदमाश’ के रूप में किरदार निभाया है.
उस फ़िल्म को फ़िल्म-इतिहास कार उनके को अभिनय ‘मील का पत्थर’ के रूप में निरूपित करते हैं. वैसे उनकी शुरुआती दौर की पहली हिट फिल्मों में महबूब खान की फ़िल्म ‘जागीरदार'(1938) थी..
शिमला में 4 दिसंबर 1910 को जन्मे मोतीलाल राजवंश जब एक साल के थे,तभी पिता का साया सिर से उठ गया. चाचा ने परवरिश की,जो उत्तर प्रदेश में सिविल सर्जन थे.
चाचा ने मोती को बचपन से जीवन को ‘बिंदास जीने’ और ‘उदारवादी सोच’ का नज़रिया दिया.शिमला के अंग्रेज़ी स्कूल में शुरूआती पढ़ाई के बाद उत्तर प्रदेश और फिर दिल्ली में उच्च शिक्षा हासिल की.
अपने कॉलेज के दिनों में वे बेहद स्मार्ट और बहुमुखी प्रतिभा के विद्यार्थी थे.नौसेना में भर्ती होने के इरादे से मुंबई आए ..अचानक बीमार हो गए.. नेवी की ‘प्रवेश परीक्षा’ नहीं दे पाए. एक दिन हमेशा की तरह ‘वेल-ड्रेस्ड’ होकर वो ‘सागर स्टूडियो’ में शूटिंग देखने जा पहुंचे.
वहां निर्देशक कालीप्रसाद घोष एक सामाजिक फ़िल्म की शूटिंग कर रहे थे.अपने सामने स्मार्ट यंगमैन मोतीलाल को देखा तो उनकी आँखें खुली की खुली रह गई.उन्हें अपनी आगामी फ़िल्म के लिए ऐसे ही हीरो की तलाश थी,जो बिन बुलाए मेहमान की तरह उनके सामने खड़ा था.
अगली फ़िल्म ‘शहर का जादू’ (1934) में सविता देवी के साथ मोतीलाल को नायक के लिये चुन लिया गया.तब तक ‘पार्श्वगायन चलन’ में नहीं आया था. लिहाज़ा मोतीलाल ने के. सी. डे के संगीत निर्देशन में अपने गीत ख़ुद गाए. इनमें ‘हमसे सुंदर कोई नहीं है, कोई नहीं हो सकता’ गीत लोकप्रिय भी हुआ.
‘सागर मूवीटोन’ उस ज़माने में कलाकारों की नर्सरी थी. सुरेंद्र, बिब्बो, याकूब, माया बनर्जी, कुमार और रोज़ जैसे कलाकार वहां कार्यरत थे. निर्देशकों में महबूब ख़ान, सर्वोत्तम बदामी, चिमनलाल लोहार अपनी सेवाएं दे रहे थे.मोतीलाल ने अपनी शालीन कॉमेडी, मैनरिज्म और स्वाभाविक संवाद अदायगी के ज़रिए तमाम नायकों को पीछे छोड़ते हुए नया इतिहास रचा.
मोतीलाल इसके बाद ‘रणजीत स्टूडियो’ से जुड़ भी जुड़े. इस बैनर की फ़िल्मों में उन्होंने अपने अभिनय के कई रंगों का मुज़ाहिरा किया.कॉमेडी रोल से वे दर्शकों को गुदगुदाते थे,तो कभी अपनी संजीदा अदाकारी से लोगों की आंखे आंसुओं से भी भर देते थे.
हर किस्म के रोल पूरी परिपूर्णता से कर उन्होंने अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन किया और प्रशंसा पाई.उस दौर की लोकप्रिय गायिका-नायिका ख़ुर्शीद के साथ उनकी फ़िल्म ‘शादी’ सुपर हिट रही. रणजीत स्टूडियो में काम करते हुए मोतीलाल की कई क़ामयाब फ़िल्में आई- ‘परदेसी’, ‘अरमान’, ‘ससुराल’ और ‘मूर्ति’.परदे पर वे अभिनय करते कभी नजर नहीं आए बल्कि हर किरदार को जीते नज़र आये.
यही वजह है कि मोतीलाल अपने ज़माने के सर्वाधिक वेतन पाने वाले पहले लोकप्रिय अभिनेता बने.उन्हें ढाई हजार रुपये मासिक वेतन के रूप में मिलते थे.1950 के बाद जब मोतीलाल ने ‘नायक’ का चोला उतार के चरित्र अभिनेता चोला धारण किया तो अपने अद्भुत अभिनय से कई नये चरित्रों को अमर कर दिया।
चाहे वो फ़िल्म ‘परख’ हो,’वक्त’, ‘लीडर’, ‘देवदास’ या ‘जागते रहो’.विमल राय की फ़िल्म ‘देवदास’ (1955) में देवदास के शराबी दोस्त ‘चुन्नीबाबू’ के रोल को उन्होंने ‘लार्जर देन लाइफ’ का दर्जा दिलाया. उनको फ़िल्म ‘देवदास’ और ‘परख’ के लिए फ़िल्मफ़ेयर के ‘सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता’ के पुरस्कार से नवाज़ा गया.फिल्म देवदास के अभिनय से प्रभावित हो दिलीप कुमार उन्हें अपना ‘गुरु’ मानने लगे थे.
अपने जीवन के उत्तरार्द्घ में मोतीलाल ने ‘राजवंश प्रोडक्शन’ क़ायम करके फ़िल्म ‘छोटी-छोटी बातें’ बनाई. इस फ़िल्म के लेखक,निर्देशक,नायक सब कुछ वही थे.फ़िल्म सराही गई. फ़िल्म को राष्ट्रपति का ‘सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट’ ज़रूर मिला पर मोतीलाल दिवालिया हो गए और इसी सदमे ने शैलेन्द्र की फ़िल्म ‘तीसरी क़सम’ की तरह उनकी भी जान ले ली. 17 जून 1965 को मोतीलाल ने आखिरी सांस ली।
2013 में, भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे होने का जश्न मनाते हुए, भारत सरकार ने उन्हें सम्मानित करने के लिए एक ‘डाक टिकट’ जारी किया.पर वह एक विस्तृत जीवनी, गहन मूल्यांकन के पात्र हैं। इस महान कलाकार को उनकी 112 वीं वर्षगांठ कर हम सलाम करते हैं.