भारतीय सिनेमा की धरोहर थे अनिल
विश्वास, आज पुण्यतिथि पर विशेष
मनोहर महाजन
भारतीय फिल्म संगीत के पुरोधा अनिल कृष्ण बिस्वास को पार्श्व-गायन के अग्रदूतों में से एक होने का दर्जा हासिल है. भारतीय फ़िल्म संगीत में “ट्वेल्व पीस ऑर्केस्ट्रा”का श्रेय भी इन्हें जाता है। यही नहीं भारतीय सिनेमा के फिल्म संगीत में ऑर्केस्ट्रा में पूरी तरह से कोरस प्रभाव भी इन्ही की देन है। अनिल विश्वास एक इंटरव्यू में महान संगीतकार रायचंद्र बोराल को फिल्मी पार्श्वगायन का पिता और खुद को चचा कहते थे।
“पश्चिमी- सिम्फोनिक-संगीत” में माहिर अनिल दा ने ‘शास्त्रीय’ एवं ‘लोक तत्वों:विशेष रूप से ‘बाउल’ और ‘भटियाली’ भी अपनी रचनाओं में स्थान दिया। गानों में ‘काउंटर मेलोडी’ का उपयोग भी उन्होंने ही सबसे पहले किया।
अनिल बिस्वास ने न सिर्फ फ़िल्म संगीत को शास्त्रीय, कलात्मक और मधुर बनाया बल्कि अनेक गायक गायिकाओं को तराशकर हीरे जवाहरात की तरह प्रस्तुत किया, जिनकी आब-ओ-ताब से संगीतप्रेमी आज तक चकाचौन्ध हैं। तलत महमूद, मुकेश,लता मंगेशकर, सुरैया जैसी प्रतिभाएँ इसका प्रतीक हैं।
अनिल बिस्वास शास्त्रीय संगीत के निष्णात होने के साथ लोक-संगीत के भी माहिर थे। उनकी संगीत में ढले गाने अब हमारी विरासत का हिस्सा बन चुके हैं। प्ले-बैक-सिंगिंग की शुरुआत के उस दौर में अनिल विश्वास ने पहली बार हिंदी सिनेमा को “12 पीस आर्केस्ट्रा” और “वेस्टर्न सिंफनी” से जोड़ा।
बारीसाल, पूर्वी बंगाल में 7 जुलाई, 1914 को जन्मे अनिल बिस्वास की संगीत यात्रा फिल्म जगत में मात्र 26 साल रही।16 साल की उम्र में नवंबर 1930 में कलकत्ता में महान बाँसुरी वादक पन्नालाल घोष के घर शरण ली।
काज़ी नज़रूल इस्लाम के कहने पर ‘मेगा फोन रिकॉर्ड कंपनी’ में काम किया। उनका पहला रिकॉर्ड उर्दू में जारी हुआ था। यहीं पर उनकी मुलाकात कुंदनलाल सहगल और सचिन देव बर्मन से हुई।हीरेन बोस के साथ मुंबई आए और 26 साल संगीत सृजन किया।
अनिल बिस्वास एक अकेले ऐसे बंगाली संगीतकार थे जो पंजाबी फिल्म में पंजाबी,गुजराती फिल्म में गुजराती,मुगल पृष्ठभूमि की फिल्म में हिंदुस्तानी संगीत देने में माहिर थे। वे कीर्तन, जात्रा और रवीन्द्र संगीत के अलावा भी हिन्दुस्तानी संगीत को बखूबी जानते हैं जिनका इस्तेमाल उन्होंने अपने संगीत में किया।
उनकी 90 से अधिक फिल्मों में रोटी (1942), किस्मत (1943), अनोखा प्यार (1948), तराना (1951), वारिस (1954), परदेसी (1957) और चार दिल चार रही (1959) सबसे यादगार रहीं। इन फिल्मों का एक एक नगमा ख़ालिस सोने की डलियों से कम नहीं। उनकी हर संगीत रचना आज भी हर संगीतप्रेमी के लबों पर थिरकती है।
1961 में बीस दिनों के अंदर छोटे भाई सुनील और बड़े बेटे के निधन ने अनिल दा को भीतर से तोड़ दिया था। वे मुंबई से दिल्ली चले गए और मृत्युपर्यंत वहीं रहे। यहाँ रहते हुए भी उन्होंने आकाशवाणी को अपनी सेवाएँ दीं और ‘हम होंगे कामयाब एक दिन’ जैसा क़ौमी-तराना युवा पीढ़ी को दिया। इस गीत को लिखा था कवि गिरिजाकुमार माथुर ने।
इसके पहले भी अनिल दा एक ऐसा ही तराना ‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है दूर हटो,दूर हटो, दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिन्दुस्तान हमारा है’ फ़िल्म किस्मत (1943) दे चुके थे जिसे कवि प्रदीप ने कलमबद्ध किया था और उस दौर की सरकार ने इस पर बैन लगा दिया था।
अनिल बिस्वास के दौर में एक से बढ़कर एक संगीतकार और गीतकार रहे। इनके चलते श्रोताओं को मधुर से मधुरतम गीत मिले। उस दौर में नरेन्द्र शर्मा,कवि प्रदीप, गोपालसिंह नेपाली ,इंदीवर, डी.एन.मधोक जैसे गीतकार भी हुए, जिनके गीत कविता/शायरी की तरह भावपूर्ण और सार्थक होते थे।नौशाद, रोशन, मदन मोहन, सचिन देव बर्मन, सज्जाद, ग़ुलाम हैदर, वसंत देसाई, हेमंत कुमार, शंकर-जयकिशन और खय्याम जैसे संगीतकारों के सागर में अनिल दा सदैव ‘कमल’ की भाँति रहते हुए सबका मार्गदर्शन करते रहे।
सी. रामचंद्र जैसे महान संगीतकार की तरह बहुत से संगीतकार अपने आपको अनिल दा का शिष्य कहते हुए फ़क्र महसूस करते थे।फ़िल्म-संगीत के ख़ज़ाने को मालामाल करते और करवाने में अपना विनम्र योगदान देते हुए अनिल दा 89 वर्ष की उम्र में बीमारी का सामना करते हुए दिल्ली में 31 मई 2003 को इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह गए।
(लेखक देश के वरिष्ठ प्रसारकों में से एक हैं। उन्होंने रेडियो सिलोन और विविध भारती में वर्षों बिताए हैं, वर्तमान में मनोहर महाजन सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। यह आलेख उनकी फेसबुक पोस्ट से साभार।)