28 सितंबर पुण्यतिथि पर विशेष
(जनकवि कोदूराम “दलित” की स्मृति में स्व. हरि ठाकुर द्वारा लिखा गया लेख)
छत्तीसगढ़ की उर्वरा माटी ने सैकड़ो कवियों,कलाकारों और महापुरुषों को जन्म दिया है। हमारा दुर्भाग्य है कि हमने उन्हें या तो भुला दिया अथवा उनके विषय में कुछ जानने की हमारी उत्सुकता ही मर गई। जिस क्षेत्र के लोग अपने इतिहास, संस्कृति और साहित्य के निर्माताओं और सेवकों को भुला देते हैं, वह क्षेत्र हमेशा पिछड़ा ही रहता है। उसके पास गर्व करने के लिए कुछ नहीं रहता। छत्तीसगढ़ भी इसी दुर्भाग्य का शिकार है।
छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य को विकसित तथा परिष्कृत करने का कार्य द्विवेदी युग से आरंभ हुआ। सन 1904 में स्व.लोचन प्रसाद पाण्डेय ने छत्तीसगढ़ी में नाटक और कवितायेँ लिखी जो हिंदी मास्टर में प्रकाशित हुईं। उनके पश्चात् पंडित सुन्दर लाल शर्मा ने 1910 में “छत्तीसगढ़-दान लीला” लिखकर छत्तीसगढ़ भाषा को साहित्यिक संस्कार प्रदान किया। “छत्तीसगढ़ी दान लीला” छत्तीसगढ़ी का प्रथम प्रबंध काव्य है। उत्कृष्ट काव्य-तत्व के कारण यह ग्रन्थ आज भी अद्वितीय है।
पंडित सुन्दर लाल शर्मा के साहित्य के पश्चात् छत्तीसगढ़ी को अपनी सुगढ़ लेखनी से समृद्ध करनेवाले दो कवि प्रमुख हैं- पंडित द्वारिका प्रसाद तिवारी ‘विप्र’ तथा कोदूराम ‘दलित’. विप्र जी को भाग्यवश प्रचार और प्रसार दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हुए। दुर्भाग्यवश उन्हीं के समकालीन और सशक्त लेखनी के धनी कोदूराम जी को न तो प्रतिभा के अनुकूल ख्याति मिली और न ही प्रकाशन की सुविधा।
कोदूराम जी का जन्म ग्राम टिकरी, जिला दुर्ग में 5 मार्च 1910 में एक निर्धन परिवार में हुआ। विद्याध्ययन के प्रति उनमें बाल्यकाल से ही गहरी रूचि थी। गरीबी के बावजूद उन्होंन विशारद तक की शिक्षा प्राप्त की और शिक्षा समाप्त करके प्राथमिक शाला, दुर्ग में शिक्षक हो गए. योग्यता और निष्ठा के कारण उन्हें शीघ्र ही प्रधान पाठक के पद पर उन्नत कर दिया गया। वे जीवन के लिए शिक्षकीय कार्य करते थे, किन्तु मूलतः वे साहित्यिक साधना में लगे रहते थे।साहित्यिक साधना में वे इतने तल्लीन हो जाते थे की खाना, पीना और सोना तक भूल जाते थे। इसके बावजूद वे वर्षों दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति, प्राथमिक शाला शिक्षक संघ, हरिजन सेवक तथा सहकारी साख समिति क मंत्री पद पर अत्यंत योग्यता के साथ कर्तव्यरत रहे।
दलित जी विचारधारा के पक्के गाँधीवादी तथा राष्ट्र भक्त थे। राष्ट्र भाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए वे सदैव चिंतित रहते थे। हिंदी और हिंदी की सेवा को उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। वे आदतन खादी धारण करते थे और गाँधी टोपी लगाते थे। उनका रहन-सहन अत्यंत सदा और सरल था। सादगी में उनका व्यक्तित्व और भी निखर उठता था। दलित जी अत्यंत और सरल ह्रदय के व्यक्ति थे। पुरानी पीढ़ी के होकर भी नयी पीढ़ी के साथ सहज ही घुल-मिल जाते थे। मुझ जैसे एकदम नए साहित्यकारों के लिए उनके ह्रदय में अपर स्नेह था।
दलित जी मूलतः हास्य-व्यंग्य के कवि थे किन्तु उनके व्यक्तित्व में बड़ी गंभीरता और गरिमा थी। कवि-सम्मेलनों में वे मंच लूट लेते थे। उस समय छत्तीसगढ़ी में क्या, हिंदी में भी शिष्ट हास्य -व्यंग्य लिखने वाले उँगलियों में गिने जा सकते थे। वे सीधी-सादे ढंग से काव्य पाठ करते थे फिर भी श्रोता हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते थे और दलित जी गंभीर बने बैठे रहते थे। उनकी यह अदा भी देखने लायक ही रहती थी। देखने में वे ठेठ देहाती लगते और काव्य पाठ भी ठेठ देहाती लहजे में करते थे।
छत्तीसगढ़ी भाषा और उच्चारण पर उनका अद्भुत अधिकार था। हिंदी के छंदों पर भी उनका अच्छा अधिकार था। वे छत्तीसगढ़ी कवितायेँ हिंदी के छंद में लिखते थे जो सरल कार्य नहीं है। दलित जी मूलतः छत्तीसगढ़ी के कवि थे।
वह तो आजादी के घोर संघर्ष का दिन था। अतः विचारों को गरीब जनता तक पहुँचाने के लिए छत्तीसगढ़ी से अच्छा माध्यम और क्या हो सकता था। दलित जी ने गद्य और पद्य दोनों में सामान गति और समान अधिकार से लिखा.
उन्होंने कुल 13 पुस्तकें लिखी हैं। (1) सियानी गोठ (2) हमर देश (3) कनवा समधी (4) दू-मितान (5) प्रकृति वर्णन (6)बाल-कविता – ये सभी पद्य में हैं. गद्य में उन्होंने जो पुस्तकें लिखी हैं वे हैं (7) अलहन (8) कथा-कहानी (9) प्रहसन (10) छत्तीसगढ़ी लोकोक्तियाँ (11) बाल-निबंध (12) छत्तीसगढ़ी शब्द-भंडार. उनकी तेरहवीं पुस्तक कृष्ण-जन्म हिंदी पद्य में है।
इतनी पुस्तकें लिख कर भी उनकी एक ही पुस्तक “सियानी-गोठ” प्रकाशित हो सकी। यह कितने दुर्भाग्य की बात है, दलित जी की अन्य पुस्तकें आज भी अप्रकाशित पड़ी हैं और हम उनके महत्वपूर्ण साहित्य से वंचित हैं। “सियानी-गोठ” में दलित जी की 76 हास्य-व्यंग्य की कुण्डलियाँ संकलित हैं। हास्य-व्यंग्य के साथ दलित जी ने गंभीर रचनाएँ भी की हैं जो गिरधर कविराय की टक्कर की।
दलित जी ने सन 1926 से लिखना आरंभ किया। उन्होंने लगभग 800 कवितायेँ लिखीं। जिनमे कुछ कवितायेँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और कुछ कविताओं का प्रसारण आकाशवाणी से हुआ। आज छत्तीसगढ़ी में लिखनेवाले निष्ठावान साहित्यकारों की पूरी पीढ़ी सामने आ चुकी है, किन्तु इस वट-वृक्ष को अपने लहू-पसीने से सींचनेवाले, खाद बनकर उनकी जड़ों में समा जानेवाले साहित्यकारों को हम न भूलें।
छत्तीसगढ़ के गिरधर कविराय- कोदूराम दलित
ओमप्रकाश साहू ‘अंकुर’
जब हमर देश हा अंग्रेज मन के गुलाम रिहिस। वो समय हमर साहित्यकार मन हा लोगन मन मा जन जागृति फैलाय के गजब उदिम करिन । हमर छत्तीसगढ़ मा हिन्दी साहित्यकार के संगे संग छत्तीसगढ़ी भाखा के साहित्यकार मन घलो अंग्रेज सरकार के अत्याचार ला अपन कलम मा पिरो के समाज ला रद्दा देखाय के काम करिन।
छत्तीसगढ़ी के अइसने साहित्यकार मन मा स्व. लोचन प्रसाद पांडेय, पं. सुन्दर लाल शर्मा, पं. द्वारिका प्रसाद तिवारी विप्र, स्व. कुंजबिबारी चौबे ,प्यारे लाल गुप्त, अउ स्व. कोदूराम दलित के नाम अब्बड़ सम्मान के साथ लेय जाथे ।येमा विप्र जी अउ दलित जी हा मंचीय कवि के रुप मा घलो गजब नाव कमाइन । छत्तीसगढ़ी मा सैकड़ो कुंडलिया लिखे के कारण दलित जी ल छत्तीसगढ़ के गिरधर कविराय कहे जाथे
जन कवि कोदू राम दलित के जनम बालोद जिले अर्जुन्दा ले लगे गांव टिकरी मा 5 मार्च 1910 मा एक साधारण किसान परिवार मा होय रिहिन ।पढ़ाई पूरा करे के बाद दलित जी हा प्राथमिक शाला दुर्ग मा गुरुजी बनिस। बचपन ले वोकर रुचि साहित्य डहर रिहिस हवय ।वोहा अपन परिचय ला सुघर ढंग ले अइसन देहे –
लइका पढ़ई के सुघर, करत हवंव मैं काम ।
कोदूराम दलित हवय मोर गंवइहा नाम ।।
मोर गंवइहा नाम, भुलाहू झन गा भइया ।
जनहित खातिर गढ़े हवंव मैं ये कुंडलियां ।।
शउक महूँ ला घलो हवय, कविता गढ़ई के ।
करथव काम दुरुग मा मैं लइका पढ़ई के ।।
दलित जी सिरतोन मा हास्य व्यंग्य के जमगरहा कवि रिहिन हे । शोषण करइया मन के बखिया उधेड़ के रख देय ।दिखावा अउ अत्याचार करइया मन ला वोहा नीचे लिखाय कविता के माध्यम ले कइस अब्बड़ ललकारथे वोला देखव –
ढोंगी मन माला जपयँ, लमभा तिलक लगायँ।
हरिजन ला छूवय नहीं, चिंगरी मछरी खाय ।।
खटला खोजो मोर बर, ददा बबा सब जाव ।
खेखरी साहीं नहीं, बघनिन साहीं लाव ।।
बघनिन साहीं लाव, बिहाव मैं तब्भे करिहों ।
नई ते जोगी बनके तन मा राख चुपरिहौं ।।
जे गुण्डा के मुँह मा चप्पल मारै फट ला ।
खोजो ददा बबा तुम जा के अइसन खटला ।।
ये कविता के माध्यम ले हमर छत्तीसगढ़ के नारी मन के स्वभिमान ला सुग्घर ढंग ले बताइन । संगे संग छत्तीसगढ़िया मन ला साव चेत करिस कि एकदम सिधवा बने ले घलो काम नइ चलय ।अत्याचार करइया मन बर डोमी सांप कस फुफकारे ला घलो पड़थे ।
दलित जी के कविता मा गांव डहर के रहन सहन अउ खान पान के गजब सुग्घर बखान देखे ला मिलथे –
भाजी टोरे बर खेतखार औ बियारा जाये ,
नान नान टूरा टूरी मन धर धर के ।
केनी, मुसकेनी, गंडरु, चरोटा, पथरिया,
मंछरिया भाजी लाय ओली ओली भर के । ।
मछरी मारे ला जायं ढीमर केंवटीन मन,
तरिया औ नदिया मा फांदा धर धर के ।
खोखसी, पढ़ीना, टेंगना, कोतरी, बाम्बी, धरे ,
ढूंटी मा भरत जायं साफ कर कर के । ।
दलित जी हा 28 सितंबर 1967 मा अपन नश्वर शरीर ला छोड़ के स्वर्गवासी होगे ।
दलित जी के सुपुत्र अरुण कुमार निगम जी हा अपन पिता जी के मार्ग ला सुग्घर ढंग ले अपना के साहित्य सेवा करत हवय । संगे संग” छंद के छंद “जइसे साहित्यिक आंदोलन के माध्यम ले हमर छत्तीसगढ़ के नवा पीढ़ी के साहित्यकार मन ला छंद सिखा के सुग्घर ढंग ले छंदबद्ध रचना लिखे बर प्रेरित करत हवय। येहा एक साहित्यकार पुत्र द्वारा अपन पिता जी ला सही श्रद्धांजलि हरय।
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