आज पुण्यतिथि पर विशेष
मैं पल दो पल का शायर हूँ पल दो पल मेरी कहानी है
पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मेरी जवानी है
मुझसे पहले कितने शायर आए और आकर चले गए
कुछ आहें भर कर लौट गए कुछ नग़मे गाकर चले गए’
दिलीप कुमार पाठक
साहिर पल दो पल के नहीं मानवीय सभ्यता के शायर थे, जब तक मानवीय सभ्यता है, साहिर भी रहेंगे, क्या पता साहिर ने यह गीत मोहिल लोगों के लिए लिखा हो, लेकिन साहिर तो अनन्त तक रहने वाले शायर थे.
‘ ये दुनिया मिल भी जाए तो क्या है’ जैसा यथार्थ भाव, वहीँ चलो एक बार फ़िर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’ जैसे दर्द के नग्मे लिखने वाले महान गीतकार साहिर लुधियानवी आज अपने सामाजिक सरोकार की आवाज़ दर्द के नगमों एवं बेपरवाह मुहब्बत के लिए जाने जाते हैं.
शब्दों की कारगुजारी ऐसी की सुनने – पढ़ने वाले को डुबो कर रख दे. शब्दों के साथ भावों का ज्वार उकेरने वाले साहिर अगर याद हैं, तो यह उनकी कलम की ताकत थी, हर परिस्थिति में उनके नग्मे जुबां पर आ ही जाते हैं, शब्दों का ग़ज़ब का तानाबाना ये तिलिस्म साहिर का ही हो सकता है, साहिर वाकई शब्दों के साथ भावों के भी बेताज बादशाह थे. जिन्होंने कई पीढ़ियों को अपने साथ जोड़े रखा है.
साहिर थे, तो कोई बात थी
साहिर को भावों के अथाह सागर में जैसी गहराई के लिए विख्यात उनकी शायरी के लिए तो याद किया ही जाएगा, लेकिन साथ ही उन्हें हिन्दी सिनेमा में गीतों को एक नई पहचान और मुकाम देने के लिए भी हमेशा याद रखा जायेगा. कई पीढ़ियां उनके गीतों शायरी लेखन के लिए शुक्रगुजार हैं, कि अगर साहिर थे, तो कोई बात थी.
साहिर कहते थे “कि लिखने वालों के लिए यादें सिर्फ़ यही हैं कि लोग आपको कितना याद करते हैं, वो आपको खुद कमाना पड़ता है, साहिर को यह भी शौक़ नहीं था, वो तो हमेशा कहते कि कभी तो दुनिया भी मेरे नग्मे गाएगी… साहिर ने ठीक ही कहा था, आज भी कई पीढ़ियों के बाद भी दुनिया उनके नग्मे गा रही है.
साहिर के कारण ही रेडियो पर गीतकारों का होने उल्लेख होने लगा
साहिर से पहले गीतकारों का गाना बजाते समय कभी भी गीतकारों का उल्लेख नहीं होता था. साहिर के कारण ही रेडियो पर गीतकारों का होने उल्लेख होने लगा. बड़ी दिलचस्प बात है कि साहिर लुधियानवी पहले ऐसे भारतीय गीतकार थे, जिन्हें अपने गानों के लिए रॉयल्टी मिलती थी.
उनके प्रयासों के कारण ही संभव हो पाया कि आकाशवाणी, रेडियो, पर बजने वाले गानों के प्रसारण के पहले गायक तथा संगीतकार के अलावा गीतकारों के नाम का भी उल्लेख किया जाने लगा.
इससे पहले तक गानों के प्रसारण वक़्त सिर्फ़ गायक एवं संगीतकार का नाम ही उद्घोष होता था, लेकिन साहिर ने इस लकीर को मिटा दिया. कहते हैं, हर पेशे में कोई ऐसा एक पैदा होता है, जो सारी रूढ़िवादी सोच को मिटा देता है. गीतकारों को भी प्रत्यक्ष ख्याति मिलने का कारण भी साहिर को बनना पड़ा.
जागीरदार होते हुए भी फ़कीर रहे साहिर
कहते हैं कि इस सांसारिक जीवन में हर व्यक्ति को अपने संघर्ष को जीना पड़ता है, संघर्ष जो आपको सिखा सकता है, वो कोई पाठशाला नहीं सिखा सकती, लुधियाना के एक जागीरदार मुस्लिम परिवार में 8 मार्च 1921 को जन्मे साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हई था.
कॉलेज की शिक्षा के बाद वे लुधियाना से लाहौर चले गए और उर्दू पत्रिकाओं में काम करने लगे. इससे पहले घर से निकल गए क्योंकि जमा नहीं, सच है अगर साहिर ने खुद अपने हिस्से में धूप – छांव नहीं देखी होती तो दर्द, मुफलिसी, आदि को कैसे उकेरते, मुहब्बत के तो क्या ही कहने साहिर बेपरवाह मुहब्बत के लिए आज भी याद किए जाते हैं.
साहिर जागीरदार होते हुए भी फ़कीर रहे, आजीविका के लिए खूब सारी नौकरियां भी कीं, लेकिन साहिर को तो इसके बरअक्स कुछ करना था. लाहौर में रहते हुए उनके एक बयान को विवादास्पद मानते हुए पाकिस्तान सरकार ने उनकी ग़िरफ़्तारी के वारन्ट निकाले तो 1949 में लाहौर छोड़ कर साहिर भारत आ गए, बंबई को अपना ठिकाना बनाया. और जुड़ गए हिन्दी सिनेमा से जहां रच डाले सदियों तक गुनगुनाने वाले नग्मे…..
फिल्मों में आए और बन गए सफलता की गारंटी
सन 1949 में फिल्म आजादी की राह पर के लिए उन्होंने पहली बार गीत लिखे, लेकिन प्रसिद्धि उन्हें फिल्म ‘नौजवान’ से मिली. ‘नौजवान’ फिल्म में संगीतकार बर्मन दादा थे. ठंडी हवाएँ, लहरा के आयें रुत है जवां तुमको यहाँ, कैसे बुलाएँ ठंडी हवाएँ…इस गीत को लिखने के बाद साहिर लुधियानवी नाम का जिक्र लिटरेचर की दुनिया से हटकर थोड़ा सिनेमा, संगीत पर होने लगी.
इस गीत पर संगीत कार बर्मन दादा ने शास्त्रीय संगीत पद्धति थाट बिलावल के राग बिहाग पर संगीत रचा, जो हिन्दी सिनेमा एवं संगीत में मील का पत्थर साबित हुआ. इस फिल्म के गानों की आपार सफलता के बाद बर्मन दादा एवं साहिर दोनों सफलता की गारंटी, के साथ ही दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए.बाद में साहिर लुधियानवी ने बाजी, प्यासा, फिर सुबह होगी, कभी कभी जैसे लोकप्रिय फिल्मों के लिए गीत लिखे.
विद्वान लोग कहते हैं “कि बहुत ज़हीन लोग कम समझ आते हैं क्यों कि उनके अन्दर एक कोने में सिरहन पैदा करने वाली ख़ामोशी होती है, वहीँ एक कोने में असंतुलित कर देने वाला शोर होता है. बर्मन दादा एवं साहिर लुधियानवी दोनों अपनी – अपनी प्रतिभा में पूरा का पूरा अध्याय थे.
साहिर-बर्मन का विवाद, अंतत: दूर हुए बर्मन दादा
एक दौर में एस डी बर्मन दादा, साहिर साहब, देव साहब एवं गुरुदत्त साहब आदि के ग्रुप में रहकर काम करते थे, कहते हैं कि बर्मन दादा एवं साहिर की प्रतिभा का फायदा सबसे ज्यादा देव साहब एवं गुरुदत्त साहब को अपने फ़िल्मों में यादगार संगीत के कारण हुआ. दोनों ने दोनों की प्रतिभा को खूब सराहा, एवं खूब फायदा कमाया.
गुरुदत्त साहब 1957 में फिल्म ‘प्यासा’ बना रहे थे. इसी दौरान एसडी बर्मन दादा और साहिर लुधियानवी के बीच कुछ अनबन हो गई. इस झगड़े की वजह था गाने का क्रेडिट किसको कितना मिले, उसके गीतकार को या संगीतकार में किसको ज्यादा मिलना चाहिए.
बर्मन दादा के जीवन पर किताब लिखने वाली लेखिका सत्या सरन ने लिखा कि, ‘मामला इस हद तक बढ़ा कि साहिर, बर्मन दादा से एक रुपया अधिक फीस चाहते थे, साहिर का तर्क ये था कि बर्मन दादा के संगीत की लोकप्रियता में उनका बराबर का हाथ है.
ज्यादा ज़हीन लोग ज्यादा समझौते के लिए नहीं जाने जाते वो कब क्या करेंगे, कोई नहीं जानता, तो बर्मन दादा ने कहा कि एक रू. ज्यादा मांगने का अर्थ है आप ज्यादा काम कर रहे हैं, मैं कुछ भी नहीं…आखिकार एसडी बर्मन दादा ने साहिर की शर्त को मानने से इंकार कर दिया और फिर दोनों ने कभी साथ काम नहीं किया. बाद में बर्मन दादा की जोड़ी मजरुह सुल्तानपुरी के साथ ज़मी. बर्मन दादा अपनी अंतिम साँस तक मजरुह सुल्तानपुरी के साथ काम करते रहे.
रफी की तरह किसी गुट का हिस्सा नहीं बने साहिर
हिन्दी सिनेमा में दो लोग स्वच्छंद आकाश थे, कभी भी ग्रुप का हिस्सा नहीं बने, एक साहिर लुधियानवी दूसरे ग्रेट मुहम्मद रफी साहब….लगभग सभी बड़े स्टारों के साथ काम किया, शुरू में देखा जाए तो राजकपूर के साथ, शैलेन्द्र, शंकर – जयकिशन एवं मुकेश की तिकड़ी अंतिम साँस तक जुड़ी रही, इनकी प्राथमिकता, राजकपूर ही थे, बाद में दूसरों के लिए हालांकि सबसे ज्यादा राजकपूर के लिए इन शख्सियतों ने काम किया.
देव साहब की फ़िल्मों में सबसे अच्छा संगीत मिलता है आज तक हिन्दी सिनेमा में देव साहब से अच्छा संगीत किसी के पास नहीं है, हालाँकि राजकपूर की फ़िल्मों में जरूर है, लेकिन देव साहब की फ़िल्मों का तो अद्वितीय है. देव साहब के साथ बर्मन दादा, किशोर कुमार, शुरू शुरू में कुछ वक़्त के लिए साहिर लुधियानवी जुड़े लेकिन अलग हो गए फिर मजरुह सुल्तानपुरी, उसके बाद गोपाल दास नीरज जुड़े. एक दूसरे के साथ सतत काम किया.
स्वच्छन्द आकाश बन कर कलम का जादू जगाते रहे साहिर
दिलीप साहब ने अकूत लोकप्रियता हासिल की, ट्रेजडी किंग बने, लेकिन उनकी लोकप्रिय फ़िल्मों में भी संगीत उतना गहरा नहीं है, कई बार लगता है कि उनकी फ़िल्मों में संगीत के नाम पर रस्म अदायगी है.
चूंकि दिलीप साहब ने कभी किसी भी अपना स्टुडियो, आदि नहीं बनाया, हालाकि दिलीप साहब के साथ नौशाद अली हमेशा होते थे, साहिर को भी अपने साथ करने की कोशिश की लेकिन साहिर ग्रुप बनाकर काम नहीं करना चाहते थे.
यही बात मुहम्मद रफी साहब कहते थे, दिलीप साहब ने रफी साहब को भी अपना ग्रुप बनाकर शामिल करना चाहा, लेकिन बात नहीं बनी, कुल मिलाकर साहिर लुधियानवी मुहम्मद रफी साहब की भाँति स्वच्छन्द आकाश बने रहे.
सभी के साथ काम किया, इसलिए भी, साहिर लुधियानवी सबसे जुदा थे. हमेशा अपनी यादगार लेखनी एवं बेमिसाल दर्द भरे नगमों के लिए हमेशा यादों में रहेंगे.
उनके गीतों में पूर्णता और उनकी शख्सियत झलकती
हिन्दी सिनेमा की फ़िल्मों के लिए लिखे उनके गानों में पूर्णता उनकी शख्सियत झलकती है. उनके गीतों में संजीदगी कुछ इस कदर समाहित है, है जैसे ये उनके जीवन से जुड़ी हों. उनका नाम जीवन के विषाद, प्रेम में जुनून के बरअक्स बेपरवाह है,सामजिक सरोकार को क्या खूब उकेरा.
साहिर को पढ़ने से पता चलता है कि शायर का विषय केवल प्रेम नहीं, सामजिक सरोकार भी होता है. सियासत नुमा हाथी जब मतवाला हो जाए तो उसको अपनी कलम से ताकत से पकडकर उस विशालकाय हाथी अपनी कलम से ताकत से पकडकर घुटनों के बल बिठाने का हुनर भी साहिर का एक अंदाज़ था. सियासती लोगों के लिए साहिर की लेखनी की दहशत भी विख्यात है. साहिर अपने अंदाज़ के लिए गीतकार और शायरों में शुमार है.
साहिर के कुछ यादगार शेर
हज़ार बर्क़ गिरे लाख आँधियाँ उट्ठें
वो फूल खिल के रहेंगे जो खिलने वाले हैं
देखा है ज़िंदगी को कुछ इतने क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से
अपनी तबाहियों का मुझे कोई ग़म नहीं
तुम ने किसी के साथ मोहब्बत निभा तो दी
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
तुम मेरे लिए अब कोई इल्ज़ाम न ढूँडो
चाहा था तुम्हें इक यही इल्ज़ाम बहुत है
औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया
जीवन के हर मोड़ पर मिलते हैं साहिर
हिन्दी सिनेमा की दुनिया के वे बेहद लोकप्रिय गीतकार साहिर आज भी प्रेमी गलियों में गुनगुनाए जाते हैं. टूट चुके प्रेमी की शराब की बॉटल से ज्यादा उनके नग्मे गुनगुनाते आशिक मिल जाते हैं, किसी न किसी राह पर, निरंकुश हो चुकी सत्ता को चुनौती देते लोगों के लहजे में भी साहिर दिख जाते हैं,
साहिर एक सक्रिय व्यक्ति को जीवन के हर मोड़ पर मिलते हैं. य़ह उनका तिलिस्म आज भी कायम है, उनकी रूहानी मुहब्बत आज भी अमर है. किसने कहा साहिर अकेले थे, आज भी हर रंग, हर रस के साथ जी रहे व्यक्ति को साहिर छू कर निकल जाते हैं.
59 साल की उम्र में आज ही दिन 25 अक्टूबर 1980 को साहिर लुधियानवी इस फानी दुनिया को रुखसत कर, छोड़ गए बेहिसाब नग्मे गुनगुनाने के लिए… साहिर कहते थे, चले जाने के बाद दुनिया नग्मे गाएगी….