2 जून एक्टर-डायरेक्टर राजकपूर की पुण्यतिथि पर विशेष
ज़ाहिद ख़ान
राजकपूर, हिंदी सिनेमा के पहले शोमैन थे। जिनकी नीली आंखों में सतरंगी सपने थे। वे आम आदमी के फ़िल्मकार थे और उन्होंने अपनी फ़िल्मों में आम आदमी के दुःख-दर्द, उनकी आशा-निराशा, स्वप्न और संघर्ष को बड़े ही खू़बसूरती से अभिव्यक्ति दी। ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘अनाढ़ी’, ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’ ‘संगम’ और ‘मेरा नाम जोकर’ जैसी फ़िल्में उनकी बेहतरीन अदाकारी और कल्पनाशील डायरेक्शन की वजह से जानी जाती हैं।
राजकपूर, नेहरू युग के प्रतिनिधि फिल्मकार थे और उन्होंने अपनी फिल्मों के ज़रिए उस दौर की बेहतरीन तर्जुमानी की। ख़ास तौर पर उनकी शुरुआती फ़िल्मों को देखने के बाद लगता है कि उस दौर में आम आदमी के संघर्ष, सपने और आकांक्षायें क्या थीं ?
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ख़्वाजा अहमद अब्बास की इंक़लाबी क़लम से निकली दृष्टिसंपन्न कहानियों को राजकपूर ने फ़िल्मों में इस अंदाज़ में पेश किया कि लोग उनकी फ़िल्मों के दीवाने हो गये। अदाकार दिलीप कुमार, देव आनंद उनके समकालीन थे और इनका फ़िल्मों में उस वक़्त बेहद दबदबा था। इन दोनों की अदाकारी के लाखों शैदाई थे। बावजूद इसके राजकपूर ने अपने निर्देशन और शानदार अदाकारी से एक अलग पहचान बनाई।
राजकपूर और उनकी फ़िल्मों की लोकप्रियता देश-दुनिया में असाधारण थी। दक्षिण एशिया से लेकर अरब मुल्कों, चीन, मॉरिशस और लेटिन अमेरिका के लोग उनकी फ़िल्मों में एक अपनापन महसूस करते थे। जिसमें अविभाजित सोवियत संघ और उसके बाद अलग हुए देशों में आज भी उनकी फ़िल्मों के जानिब ग़ज़ब की दीवानगी है। यहां तक कि पूंजीवादी देश भी राजकपूर की फ़िल्मों को पसंद करते हैं। बीसवीं सदी के आठवें दशक में अमेरिका के कई शहरों में राजकपूर की फ़िल्में दिखाई गईं और आरके रिट्रास्पेक्टिव आयोजित किया गया। जिन्हें देखने के लिए दर्शकों का सैलाब उमड़ पड़ा था।
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राजकपूर और उनकी फिल्मों की मक़बूलियत का आलम यह है कि उनकी बनाई फ़िल्मों ने जितनी उनकी ज़िंदगी में कमाई नहीं की, उससे कहीं ज़्यादा यह फ़िल्म आज उनके परिवार को कमा कर दे रही हैं। यही नहीं सभी फ़िल्मों की लागत से ज्यादा पैसा संगीत रॉयल्टी से मिला है और आज भी यह सिलसिला बंद नहीं हुआ है।
मिसाल के तौर पर ‘मेरा नाम जोकर’ जब रिलीज हुई, बॉक्स ऑफ़िस पर यह नाकाम रही, मगर आज़ यह फ़िल्म खू़ब पसंद की जाती है। राजकपूर ने फ़िल्मी दुनिया में उस दौर में अपनी एक अलग पहचान बनाई, जब हिंदी सिनेमा में वी. शांताराम, मेहबूब खान, बिमल रॉय, गुरुदत्त, बीआर चोपड़ा जैसे दिग्गज निर्देशक एक साथ काम कर रहे थे। राजकपूर ने एक अलग ही फ़िल्मी मुहावरा अपनाया।
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मधुर गीत संगीत से सजी उनकी फ़िल्मों में अदाकारों के बीच एक जुदा केमिस्ट्री नज़र आती थी। उनकी फ़िल्मों से दर्शकों को सिर्फ़ मनोरंजन ही नहीं, बल्कि एक सशक्त सामाजिक संदेश भी मिलता था। भारतीयता उनकी फ़िल्मों की पहचान थी। ‘बूट पॉलिश’, ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘जागते रहो’, ‘फिर सुबह होगी’, ‘तीसरी कसम’ जैसी फ़िल्मों का तसव्वुर राजकपूर के बिना नामुमकिन है।
उनकी फ़िल्म ‘आवारा’ को जो कामयाबी मिली, ऐसी कामयाबी बहुत कम फ़िल्मों को हासिल होती है। उस ज़माने में समाजवादी देशों में यह फ़िल्म खूब पसंद की गई। जवाहरलाल नेहरू, निकिता ख्रुश्चेव, माओ और अब्दुल गमाल नासर जैसे वैश्विक लीडरों ने इस फ़िल्म की तारीफ़ की थी।
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14 दिसम्बर, 1924 को अविभाजित भारत के पेशावर में जन्मे रणबीर राजकपूर को अभिनय विरासत में मिला। उनके पिता पृथ्वीराज कपूर रंगमंच और सिनेमा की कद्दावर शख़्सियत थे। फ़िल्मों में राजकपूर के रुझान को देखते हुए, पिता पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें निर्देशक केदार शर्मा के सुपुर्द कर दिया। जिनके साथ उन्होंने क्लैपर बॉय से शुरू कर, सहायक निर्देशक की ज़िम्मेदारी भी संभाली।
केदार शर्मा ने ही उन्हें अपनी फ़िल्म ‘नीलकमल’ में पहली बार हीरो का रोल दिया। फ़िल्म कोई ख़ास नहीं चली, मगर राजकपूर फ़िल्मी दुनिया में अपने आप को आज़माते रहे। यहां तक कि वे जब सिर्फ़ चौबीस साल के थे, तब उन्होंने पहली फ़िल्म ‘आग’ का निर्देशन किया। बेहतरीन कथानक पर बनी यह संवेदनशील फ़िल्म पर्दे पर भले ही कोई कमाल नहीं दिखा सकी, लेकिन फ़िल्मी दुनिया उनसे ज़रूर प्रभावित हुई।
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राजकपूर में उन्हें एक प्रतिभाशाली निर्देशक दिखाई दिया। उनके जिगरी दोस्त दिलीप कुमार की तरह राजकपूर की शुरुआती फ़िल्में भी बॉक्स ऑफ़िस पर फ़्लॉप रहीं। फ़िल्मों में कामयाबी के लिए उन्हें छह साल इंतज़ार करना पड़ा। साल 1949 में आई फ़िल्म ‘अंदाज’ और ‘बरसात’ ने राजकपूर को फ़िल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया।
निर्देशक महबूब खान की ‘अंदाज़’ में तो दिलीप कुमार भी उनके साथ थे। यह पहली और आखि़री फ़िल्म रही, जिसमें इन दोनों ने एक साथ काम किया। उसके बाद फिर किसी फ़िल्म में यह जोड़ी दोहराई न जा सकी। फ़िल्म ‘बरसात’ के तो वे निर्माता-निर्देशक भी थे। राजकपूर और नर्गिस की लाजवाब अदाकारी, संगीतकार शंकर-जयकिशन के संगीत एवं शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी के गीतों से सजी यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर ज़बर्दस्त कामयाब रही। आज भी इस फ़िल्म के गीत उसी शिद्दत से सुने जाते हैं।
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नाटक हो या फिर सिनेमा, यह तब बेहतर बनता है जब एक बेहतरीन टीम और इसमें टीम वर्क शामिल हो। राजकपूर इस बात से अच्छी तरह से वाक़िफ़ थे। लिहाजा़ वह लगातार यह कोशिश करते रहे कि यह टीम बने। बहरहाल, उनकी यह बेहतरीन टीम बनी साल 1951 में और फ़िल्म थी, ‘आवारा’। टीम क्या थी, गुणीजनों का जमघट था। जिसमें कहानीकार, पटकथा लेखक के तौर पर वामपंथी लेखक ख़्वाजा अहमद अब्बास, संगीतकार-शंकर जयकिशन की जोड़ी, गायक-गायिका मुकेश, मन्ना डे, लता मंगेशकर, कैमरामैन-राधू कर्माकर, साउंड रिकॉर्डिस्ट-अलाउद्दीन, कला निर्देशक-एमआर अचरेकर और संपादक जीजी मायेकर शामिल थे।
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इस टीम का जादू दो दशक तक चला। राजकपूर की इस प्रतिभाशाली टीम ने भारतीय सिनेमा को आधा दर्जन सुपर हिट फ़िल्में दीं। जिसमें फ़िल्म ‘बूट पॉलिश’ (साल-1954), ‘श्री 420’ (साल-1955), ‘जागते रहो’ (साल-1956), ‘जिस देश में गंगा बहती है’ (साल-1960), ‘संगम’ (साल-1960) और ‘मेरा नाम जोकर’ (साल-1970) शामिल हैं। पहले गीतकार शैलेन्द्र, फिर संगीतकार जयकिशन, गायक मुकेश और उसके बाद ख़्वाजा अहमद अब्बास एक के बाद एक के बिछड़ जाने से टीम बिखर गई।
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इस बीच एक वाक़या और हुआ। ‘मेरा नाम जोकर’ राजकपूर की महत्त्वाकांक्षी फ़िल्म थी। बड़े स्टारकास्ट की इस फ़िल्म को बनाने के लिए उन्होंने खूब जतन किए थे। फ़िल्म पर पानी की तरह पैसा बहाया था। लेकिन यह फ़िल्म उम्मीदों के बर-खि़लाफ़ टिकिट ख़िड़की पर नाकामयाब साबित हुई। फ़िल्म नाकाम हुई, तो राजकपूर का आत्मविश्वास लड़खड़ा गया। वे काफ़ी दिन सदमें में रहे। लेकिन इस होनहार निर्देशक ने हिम्मत नहीं हारी।
उद्देश्यपूर्ण फ़िल्मों से इतर उन्होंने अब अपने बेटे ऋषि कपूर और नई नवेली हीरोइन डिम्पल कपाड़िया को लेकर फ़िल्म ‘बॉबी’ बनाई। किशोर उम्र की इस प्रेम कहानी को दर्शकों ने हाथों हाथ लिया। फ़िल्म सुपर हिट हुई। ख़ास तौर पर फ़िल्म के गाने बच्चे-बच्चे की ज़बान पर थे। ‘बॉबी’ की कामयाबी के बाद राजकपूर ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस फ़िल्म के बाद आई ‘प्रेम रोग’ और ‘राम तेरी गंगा मैली’ ने भी वही कामयाबी दोहराई।
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राजकपूर ने यूं तो अपने दौर की हर बड़ी हीरोइन के साथ काम किया, लेकिन उनकी जोड़ी नर्गि़स के साथ खू़ब जमी। इन दोनों ने एक साथ सोलह फ़िल्में कीं और इनमें से ज़्यादातर कामयाब रही। इस हिट जोड़ी की न भुलाये जाने वाली कुछ प्रमुख फिल्में हैं, ‘बरसात’, ‘अंदाज’, ‘आवारा’, ‘श्री 420’, ‘चोरी-चोरी’।राजकपूर को गीत-संगीत की अच्छी समझ थी। उनकी कोई भी फ़िल्म उठाकर देख लीजिए, इस जोनर में उनकी फ़िल्में कभी कमतर नहीं रहीं। मानीख़ेज़ स्टोरी और गीत-संगीत उनकी फ़िल्मों को बुलंदियों पर पहुंचाता था।
राजकपूर को अपनी फ़िल्मों के लिए कई सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ा गया। फिल्म ‘अनाढ़ी’ और ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता एवं ‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘प्रेम रोग’, ‘राम तेरी गंगा मैली’ फ़िल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्मफे़यर अवार्ड मिला। वहीं उनकी फ़िल्म ‘जागते रहो’ कारलोवी वेरी अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव में ग्रा. प्री अवार्ड से सम्मानित की गई। साल 1969 में वह देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्म भूषण’ से नवाजे गए, तो साल 1981 में उन्हें मॉस्को में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
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साल 1988 में भारत सरकार ने राजकपूर को हिंदोस्तानी सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘दादा साहब फ़ालके पुरस्कार’ देने का ऐलान किया। इस पुरस्कार के मिलने से वे बेहद खु़श थे। ख़ुशी की वजह यह भी थी कि कुछ साल पहले इस सम्मान से उनके पिता पृथ्वीराज कपूर भी नवाजे़ गए थे। उनके निधन उपरांत मिले इस सम्मान को राजकपूर ने ही लिया था। पृथ्वीराज कपूर यानी पापाजी को वे अपना आदर्श मानते थे।
ज़िंदगी में उनका जैसा ही बनना चाहते थे। यह महज इत्तेफ़ाक भर है कि पृथ्वीराज कपूर और राजकपूर दोनों ही ‘पद्म भूषण’ सम्मान से सम्मानित किये गये, तो उन्हें ‘दादा साहब फ़ालके पुरस्कार’ भी मिला। यह एक ऐसा कीर्तिमान है, जो शायद ही कभी टूटे। साल 1988 की 2 जून वह तारीख़ है, जब राजकपूर हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गए। वे सपनों के सौदागर थे और उनकी फ़िल्में दर्शकों को सपनों की सतरंगी दुनिया में ले जाती थीं। उस दुनिया में जहां कोई ऊंच-नीच, भेदभाव और असमानता नहीं। जहां हर तरफ़ प्यार और ख़ुशियां ही खु़शियां हैं। राजकपूर के जाने से, उनके लाखों चाहने वालों का मानो यह सपना टूट गया।
(लेखक जाहिद खान महल कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र में निवासरत हैं, उनसे मोबाईल 94254 89944 पर संपर्क किया जा सकता है।)