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आज जयंती पर विशेष-किशोर साहू का
आज जयंती पर विशेष-किशोर साहू का
योगदान भुला दिया गया फिल्मी दुनिया से
विशेष लेख-मनोहर महाजन
ये फ़िल्मकार आज़ादी से पहले ही भारतीय फिल्म उद्योग में स्थापित हो चुका था.उन्हें याद रखने वाली आख़िरी पीढ़ी की संख्या कम से कमतर से होती जा रही है.मैं उन्हें जो थोड़ा बहुत जान पाया वो उनकी बेटी नयना (‘हरे कांच की चूड़ियां’:1967) और उनके बेटे विक्रम साहू याने विकी साहू के ज़रिए जान पाया।
जिसने अपना कैरियर ‘बतौर मॉडल’ मेरे द्वारा संचालित एक फ़ैशन शो में किया था, और बाद में फ़िल्म सत्ते पे सत्ता में अमिताभ बच्चन के एक भाई की भूमिका निभाई थी. जी,मैं बात कर रहा हूँ बहुमुखी प्रतिभा के धनी फ़िल्मकार किशोर साहू की.
किशोर साहू उन बिरले फ़िल्मकारों में थे जिन्होंने साहित्य रचते हुए फ़िल्में भी बनाई और उन फिल्मों से कई हिंदी साहित्कारों को भी जोड़ा.ये अलग बात है कि उनकी फ़िल्मों को तो कभी कभार याद कर लिया जाता है, लेकिन उनके साहित्यिक योगदान पर चर्चा कभी नहीं हुई.
22 नवम्बर,1915, दुर्ग, छत्तीसगढ़ में कन्हैयालाल साहू एवं प्रेमवती साहू के परिवार में जन्मे किशोर के ने छत्तीसगढ़ की विभिन्न रियासतों में अपने दादा आत्माराम साहू के साथ निवास किया.प्रारम्भिक शिक्षा राजनांदगाँव में हुई.राजनांदगाँव में पढ़ते हुए छत्तीसगढ़ की संस्कृति से गहरा लगाव हुआ जो जीवन पर्यन्त बना रहा।
स्कूल के ज़माने से ही वे नाटकों में हिस्सा लेने लगे थे.नाटकों की दुनिया में प्रवेश लेने के बाद उन्हें लगता था कि वे अभिनय करने के लिये ही पैदा हुए थे.नागपुर के मॉरिस कालेज में प्रवेश लेने के बाद साहू नाटकों को इतनी गंभीरता से लेने लगे.इसके साथ ही उनकी लेखनी भी मुखरित होने लगी.
लेखन उन्हें अपने पिता कन्हैया लाल साहू जो हिंदी के लेखक थे से विरासत में मिला.स्कूली दिनों से ही किशोर साहू कहानियां लिखने लगे.नागपुर में उहोंने ना सिर्फ़ नाटकों में अभिनय किया बल्कि नाटक लिखे भी. आकर्षक और प्रभावशाली व्यक्तित्व के मालिक साहू को दोस्तों ने राय दी कि उन्हें मुंबई जाकर फ़िल्मों में भाग्य आज़माना चाहिए.साहू के मन की मुराद भी यही थी.उन्होंने मुंबई का रूख़ किया.
बम्बई में उन्हें कड़ा संघर्ष करना पड़ा.इस संघर्ष के दौरण उनकी मुलाक़ात अशोक कुमार से हुई. साहित्य में रूचि और अभिनय की बारीकियों पर साहू की बेबाक़ बातों ने अशोक कुमार को काफ़ी प्रभावित किया.परिणाम? अशोक कुमार की सिफ़रिश पर बॉम्बे टाकीज़ के मालिक हिमांशु राय साहू से मिलने पर राज़ी हो गए.
इस मुलाकात ने साहू की किस्मत ही बदल दी.हिंमांशु राय ने उन्हें फ़िल्म ‘जीवन प्रभात'(1938) में हीरो का रोल दे दिया. साहू की नायिका थीं हिमांशु राय की पत्नी देविका रानी. किशोर साहू की पहली ही फ़िल्म हिट हो गयी. पर इस फ़िल्म की सफ़लता उनके अंदर के कलाकार को संतुष्ट न कर पाई. उनके सामने एक ही रास्ता था कि अपनी ख़्वाहिश को पूरा करने के लिये वे ख़ुद ही फ़िल्म बनाएं.मगर उनके आर्थिक हालात ऐसे नहीं थे. वो वापस नागपुर लौट गए और लेखन में जुटे गए.तभी उनके मुंबई के अनुभवों की ख़बर पाकर उनके दोस्त द्वारका दास डागा उनसे मिलने आ पहुंचे.
वो धनाढ्य व्यक्ति थे और उन्हें किशोर साहू की प्रतिभा का पहले से ही अंदाज़ था.साहू ने डागा को बताया कि अपनी मर्ज़ी की फ़िल्म में काम किए बिना उन्हें संतुष्टि नहीं मिल सकती और ऐसा करने के लिए उन्हें अपनी फ़िल्म कंपनी खोलनी होगी जिसकी हैसियत उनमें नहीं है.डागा साहू के साथ मिल कर फ़िल्म कंपनी खोलने पर राज़ी हो गए.इस तरह वजूद में आई ‘इंडिया आर्टिस्ट लिमिटेड’ नाम की फ़िल्म निर्माण संस्था.
इस बैनर की पहली फ़िल्म थी ‘बहुरानी’.साहित्य के प्रति गहरा अनुराग रखने वाले साहू ने इस फिल्म के लिए अनूप लाल मंडल के उपन्यास ‘मिमांसा’ को आधार बनाया. अछूत विषय आधारित ये फ़िल्म अपने समय की बेहद चर्चित और क्रांतिकारी फ़िल्म साबित हुई. इसके बाद साहू ने बॉम्बे टाकीज़ की फ़िल्म ‘पुनर्मिलन’ में काम किया. यह फ़िल्म भी सफल रही. इसी दौरान साहू ने अ एक और रंग प्रस्तुत किया और ‘कुंवारा बाप’ नाम की वो फ़िल्म बनायी जो आज भी भारत की बेहतरीन हास्य फ़िल्मों में से एक मानी जाती है.
किशोर साहू ने अपने मित्र और हिंदी के प्रसिद्ध लेखक अमृतलाल नागर से ‘कुंवारा बाप’ के डायलाग लिखवाए और अभिनय भी कराया. जब किशोर साहू के हास्य अभिनय के चर्चे हो रहे थे तब साहू ने ‘एंग्री मैन का रोल निभाने के लिए फ़िल्म ‘राजा’ का बनाई. इस फिल्म से उन्होंने एक और हिंदी साहित्यकार भगवती चरण वर्मा को जोड़ा. उनके के प्रसिद्ध गीत- ‘है आज यहां कल वहां चलो’ को किशोर साहू ने ‘राजा’ का ‘थीम सांग’ बनाया.
फिल्मों से जुड़े रहने के साथ साथ किशोर साहू ने लिखना भी जारी रखा और जमकर लिखा.उपन्यास, नाटक, कविताएं,कहानियां सभी कुछ लिखा.उनकी कहानियों की एक बड़ी विशेषता ये है कि वो जब तक पूरी नही हो जातीं सस्पेन्स बना रहता.सादा और दिलचस्प अंदाज़-ए-बयाँ, आम बोलचाल की भाषा और मनवीय संवेदना किशोर साहू के लेखन की खासियत है.
लेखक के रूप में उनके तीन कहानी संग्रह टेसू के फूल, ‘छलावा’ और ‘घोंसला’ हिंद पॉकेट बुक से प्रकाशित हुए. उन्होंने चार उन्यास भी लिखे. उनके नाटकों का संग्रह ‘शादी या ढकोसला’ है. इसके अलावा उनके गद्य गीतों का भी एक संग्रह है. किशोर की लेखन प्रतिभा को देखते हुए अपने समय की सबसे चर्चित फिल्म पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ के संपादक बाबू राव पटेल ने किशोर साहू को ‘आचार्य किशोर साहू’ लिखना शुरू किया था.
अपने जमाने की सुप्रसिद्ध फिल्मों: ‘पुनर्मिलन’, ‘बहूरानी’, ‘सिंदूर’, साजन, ‘काली घटा’, ‘राजा’, बाप’, ‘हेमलेट’, ‘सावन आया रे’, ‘मयूर पंख’ में “नायक’ की भूमिका निभाने वाले किशोर साहू ने ‘साजन’,’गृहस्थी’, ‘औरत’, ‘तीन बहूरानियाँ’, ‘घर बसा के देखो’, ‘पूनम की रात’, ‘हरे काँच की चूडिय़ाँ’, ‘पुष्पांजलि’, ‘दिल अपना प्रीत पराई’ और ‘वीर कुणाल’ जैसी 22 उत्कृष्ट हिन्दी फिल्मों का निर्देशन किया. प्रथम उप-प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री सरदार बल्ल्भभाई पटेल ने मुंबई में फ़िल्म ‘वीर कुणाल’ को रिलीज़ करते हुए इसे श्रेष्ठ फिल्म घोषित किया था.
अभिनय पर्दे पर भी उन्होंने अलग अलग शेड्स प्रस्तुत किए.फिल्म ‘गाइड’ में उनके सशक्त अभिनय को भला कैसे भूला जा सकता है? जीवन के अंतिम वर्षों में किशोर साहू फिल्मी दुनिया में आ रहे बदलावों को लेकर बहुत क्षुब्द रहने लगे थे. वो उस दौर के थे जब मेहनत ईमानदारी और उसूल बड़ी चीज़ हुआ करते थे,और अब? (चुप!) अपने निधन से पहले तक किशोर साहू एक भव्य फिल्म की योजना पर काम करते रहे लेकिन तब तक समय ‘The End’ लिख चुका था. बैंकाक से उड़ान भरते समय हवाई अड्डे पर ही 22 अगस्त, 1980 को हृदयाघात से उनका निधन हो गया.
भारतीय उद्योग के इस सशक्त पर गुमनाम फ़िल्मकार को जो फ़िल्म की हर विधा में: अभिनय, निर्देशन’ लेखन, निर्माण अव्वल रहा को-उन की 107 वीं वर्षगाँठ पर हम प्रणाम करते हैं.
[मेरी पुस्तक फ़िल्म इतिहास के बिखरे हुए पन्ने से उद्धरित]