अंर्तकथा को उजागर करती है “दो गुलफामों की तीसरी कसम”
पुस्तक समीक्षा/डॉ.प्रतिभा सिंह
भारतीय सिनेमा जगत “आलमआरा” से शुरू होकर 22वीं सदी की अश्लील चकाचौध तक पहुँच गया है। वास्तव में तब से लेकर अबतक इसमें इतने बदलाव आ गए हैं कि इसका मूल स्वरूप ही नष्ट हो गया है। किन्तु इन तमाम बदलावों के बावजूद यदि कुछ नहीं बदला है तो वह है इसके अंदर चलने वाला षड़यंत्र।
सत्य तो यह है कि भारतीय सिनेमा को एक घिसे-पिटे लीक पर चलने की आदत हो गयी है।नेपुटिज्म से ग्रसित सिनेमा ने योग्यता को महत्व देने के स्थान पर भाई-भतीजावाद को तवज्जो दी है।इसने लीक से हटकर फिल्मों को ना ही आगे बढ़ने दिया और ना ही जमीन से उठे कलाकारों को बुलंदियों पर बर्दाश्त किया।
यह पिछले कुछेक सालों से हम बेहतर देख और सुन भी रहे हैं। यद्यपि आज सोशल मीडिया संचार का इतना सशक्त माध्यम बन गया है कि मिनटों में बात दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में पहुँच जाती है।
इसने लोगों को जागरूक और सचेत किया है।किन्तु बात जब उन्नीसवीं सदी के पांचवें-छठे दशक की हो तो परिस्थितियां कुछ और ही थीं। जनता वही देखती थी जो उसे दिखाया जाता था। परिणाम यह हुआ कि मारे गए दो गुलफ़ाम…..
फिल्मी सफ़र की दुःखद यात्रा है किताब
मैं बात कर रही हूँ अनंत सिन्हा की सद्यप्रकाशित पुस्तक “दो गुलफामों की तीसरी कसम” Do gulfamon ki tisri kasam की। सच कहूँ तो यह शोधपरक पुस्तक फणीश्वर नाथ रेणु Fanishwar Nath Renu की कहानी तीसरी कसम अर्थात “मारे गए गुलफ़ाम” के फिल्मी सफ़र की दुःखद यात्रा है। अभी तक हिन्दी सिनेमाजगत पर लगभग ना के बराबर पुस्तके लिखी गयी हैं।
ऐसे में इस पुस्तक का आना सुखद है। उसपर भी ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह पुस्तक सिनेमा जगत के षड़यन्त्रों को उजागर करती है।लगभग 240 पृष्ठों की यह पुस्तक 10 अध्यायों में विभाजित है।अंत मे सन्दर्भ सूची,परिशिष्टि और तीसरी कसम फ़िल्म की झलकियां दी गयी हैं।
पुस्तक के प्रथम अध्याय “अजी मारे गए गुलफ़ाम “में रेणु की कहानी मारे गए गुलफ़ाम अर्थात तीसरी कसम Tisri kasam का विश्लेषणात्मक विवेचन है। दूसरे अध्याय “कौन है हिरामन और हीराबाई” में लेखक ने रेणु की कहानी के मुख्य पात्रों हिरामन और हीराबाई के विषय में बताया है कि रेणु को इन पात्रों की प्रेरणा कहाँ से मिली।
रेणु की कहानी के फिल्मी चौखट तक पहुंचने की दास्तान
एक-एक कड़ी को जोड़ना लेखक के लिए काफी श्रमसाध्य रहा होगा। शोध प्रक्रिया में लेखक को रेणु के तमाम रिश्तेदारों से भी मिलना पड़ा है। पुस्तक के तीसरे अध्याय “फिल्मी चौखट पर तीसरी कसम “में लेखक ने रेणु की कहानी “मारे गए गुलफ़ाम” की फिल्मी चौखट पर कैसे दस्तक हुई इसकी चर्चा की है।
बतौर लेखक रेणु ने यह कहानी 1956 में लिखा और 1957 में पटना से प्रकाशित पत्र “अप्सरा” में पहली बार छपी।प्रकाशन के साथ ही यह कहानी चर्चा में आ गयी। मोहन राकेश Mohan Rakesh ने “पाँच लम्बी कहानियां”नामक कहानी संग्रह का सम्पादन किया जो राजकमल प्रकाशन से छपकर आया। जिसमें रेणु”की मारे गए गुलफ़ाम”भी थी। इस संग्रह की चर्चा साहित्य जगत में जोर शोर से होने लगी।
इस तरह शैलेंद्र ने दिखाई रूचि
तभी साहित्यिक अभिरुचि के पटकथा लेखक नवेन्दु घोष की नज़र भी इस कहानी पर पड़ी। उन्होंने यह कहानी संकलन जब बासु भट्टाचार्य Basu Bhattacharya को दिया तो उन्हें भी यह कहानी बेहद पसंद आयी।और उसी समय उन्होंने इसपर एक छोटे बजट की फ़िल्म बनाने का निर्णय कर लिया। बासु और गीतकार शैलेन्द्र Lyricist Shailendra अच्छे दोस्त थे और जब बासु ने शैलेन्द्र को यह कहानी पढ़ने को दी तो वह इसमें डूबते ही चले गए।
अंततः शैलेन्द्र ने इस फ़िल्म निर्माण में एक लाख तक लगाने की जिम्मेदारी उठाई। तय हुआ कि और भागीदार ढूंढ लिया जाएगा। इसके बाद राजकमल प्रकाशन के सहयोग से रेणु का पता ढूंढकर उनसे”मारे गए गुलफ़ाम “पर फ़िल्म निर्माण की सहमति मांगी गयी।और इस प्रकार इस कहानी का फिल्मी सफ़र शुरू हुआ।
शेलेंद्र ने बनाई फिल्म निर्माण संस्था, बन पाई एक ही फिल्म
शीर्षक “इमेज मेकर्स”के अंतर्गत शैलेन्द्र द्वारा इमेज मेकर्स नामक आधिकारिक संस्था खोलने का जिक्र किया किया है।जिसके बैनर तले तीसरी कसम फ़िल्म निर्माण किया जाना था। लेखक ने इस बात का भी खुलासा किया है कि इस संस्था के बैनर तले मात्र “तीसरी कसम” फ़िल्म ही बन सकी थी।
किन्तु इसी एक फ़िल्म से बाद में इस बैनर ने नाम हासिल किया।अभिनेता राजकपूर और अभिनेत्री वहीदा रहमान Actor Raj Kapoor and actress Waheeda Rehman को भी रेणु की कहानी ने प्रभावित किया था। अतः वह दोनों भी इसमें काम करने के लिए तैयार हो गए। यद्यपि की बासु भट्टाचार्य हीरामन और हीराबाई जैसे गवईं चरित्रों को देखते हुए राजकपूर जैसी बड़ी हस्ती के पक्ष में नहीं थे,किन्तु उन्हें रेणु और शैलेन्द्र के आगे झुकना पड़ा था।
अबतक रेणु भी पटना से बम्बई बुला लिए गए थे। “रेणु के बोल शैलेन्द्र के गीत” शीर्षक के अंतर्गत बतौर लेखक-“गीत ही जनमानस की जुबां पर सवार होकर फ़िल्म को जन-चेतना का हिस्सा बनाता है। “तीसरी कसम “के गीतों में भी कुछ ऐसी ही खासियत है। फ़िल्म की कहानी की तरह ही इसके गीत भी ग्राम्य जीवन से सराबोर हैं।”
गीत शैलेंद्र के लेकिन भाव रेणु के
लेखक ने बताया है कि भले ही इस फ़िल्म के गीत शैलेन्द्र ने लिखे हैं किन्तु उसकी देशज भाषा और भाव रेणु के ही थे।अपनी ठेठ गवईं काव्यात्मक भाषा प्रवाह के कारण ही इसके गीत फ़िल्म आने से पहले ही लोकमानस की जुबां पर चढ़ गए थे।बल्कि आज भी वे गीत उतने ही नवीन लगते हैं।
शैलेन्द्र ने साथी गीतकार के रूप में हसरत जयपुरी को भी साथ जोड़कर रेणु के बोल को अमर कर दिया।फ़िल्म में कुल 9 गीत थे और सब के सब सदाबहार सुपर हिट थे।
जिनमें आ आ भी जा, पिजड़े वाली मुनिया,दुनिया बनाने वाले,अजी हाँ मारे गए गुलफ़ाम,पान खाये सैंया हमार,सजनवा बैरी हो गए हमार,सजन रे झूठ मत बोलो और लाली लाली डोलिया में लाली रे …गाने थे।
यह सभी गीत आज भी उतनी ही शिद्दत से सुने जाते हैं। इन गीतों को शंकर जयकिशन जैसे सिद्धहस्त संगीतकार ने अपने सुरों में सजाया और मुकेश,मन्ना डे,लता जी,आशा जी और सुमन कल्यानपुर ने जब अपनी आवाज से नवाजा तो कमाल ही हो गया।इसने देशज समाज के साथ ही शहरी वर्ग का भी मन मोह लिया।
छह महीने में पूरी होने वाली फिल्म बनने में लग गए छह साल
“फिल्मांकन का संघर्षमय सफरनामा”के अंतर्गत लेखक ने उन पहलुओं पर प्रकाश डाला है जिनके कारण छः महीने में तैयार होने वाली कम बजट की फ़िल्म को बनने में छः साल लग गए। 14 फरवरी 1961 को फ़िल्म का मुहूर्त हुआ और रेणु की इच्छानुसार इसके कुछ दृश्यों को उनके गाँव औराही हिंगना और पूर्णिया में भी फिल्माया गया।
राजकपूर और वहीदा रहमान का अपना स्टारडम था।वे सेट पर तीन साल तक एक साथ आ ही नहीं सके थे।इस कारण गीतों की रिकार्डिंग और उन दृश्यों की शूटिंग पहले कर ली गयी जिनमें उनकी जरूरत नहीं थी।
जब फ़िल्म के कुछ दृश्यों की शूटिंग के लिए मध्य प्रदेश जाना था तब वहीदा रहमान ने शैलेन्द्र से अपने बाकी के पैसों की मांग की।इसके बगैर वह चलने को तैयार न थीं। शैलेन्द्र के पास तो बिल्कुल ही पैसे न थे।
किन्तु उनकी पत्नी शकुंतला ने अपने घर-गृहस्थी से बचाये हुए पैसे देकर उनकी सहायता की थी। सचमुच छोटी-बड़ी समस्याओं के साथ ‘तीसरी कसम’ तीसरी कसम का सफर बहुत ही संघर्षमय रहा। और अंततः यह फ़िल्म 1966 में बनकर तैयार हुई। इसे 16 अगस्त को सेंसर बोर्ड की हरी झंडी भी मिल गयी।
देरी ने उत्साह ठंडा कर दिया रेणु का
“टूटते बिखरते सपनों की दास्तान” शीर्षक के अंतर्गत फ़िल्म निर्माण में लेट लतीफी के कारण रेणु को हो रही परेशानियों का जिक्र किया गया है।जो फ़िल्म छः महीने में ही बना लेने की योजना थी अब सालों की देरी होने से रेणु का उत्साह भंग होने लगा था। वह जहाँ भी जाते लोग उनके फ़िल्म के बाबत ही पूछते। शहर से तंग आकर रेणु कुछ सुकून खोजने अपने गाँव आये।लेकिन यहाँ स्थिति और भी खराब थी।
यहाँ तक कि उनका घर से निकलना भी कम हो गया। गाँव में तो यह भी चर्चा होने लगी कि फ़िल्म आएगी भी या नहीं।रेणु तरह-तरह के व्यंग्य- तानों को सुनकर ख़ामोश रहते। अंततः काफ़ी दिनों बात एक दिन सचमुच ही उन्हें यह सुखद समाचार उनके गाँव की ही एक महिला ने दिया कि आपकी फ़िल्म की हिरोइनी का साक्षात्कार समाचार में निकला है।आपकी फ़िल्म बन गयी। लोग बाजार में पेपर पढ़ रहे।इस ख़बर ने रेणु को बहुत सुकून दिया।
जानबूझ कर फ्लॉप किया गया फिल्म को..?
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“जीता हुआ युद्ध:’तीसरी कसम’ में लेखक ने पूरी कहानी का निष्कर्ष ही दे दिया है।वास्तव में यह मारे गए गुलफान पर तीसरी कसम का बनना एक युद्ध जीतने जैसा ही था।
जैसा की रेणु ने भी कहा।उनके शब्दों में तीसरी कसम सिर्फ फ़िल्म नहीं विजय पताका थी।जिसने बम्बइया फ़िल्म इंडस्ट्री की लॉबीबाजी और राजनीति के मध्य स्वयं को स्थापित किया था। किन्तु दुःखद यह रहा कि शुरू में फ़िल्म पूरी तरह फ्लॉप रही।
रेणु ने कहा है कि इसे जानबूझकर फेल किया गया था। ताकि इंडस्ट्री के कुछ लोगों का अहम तुष्ट हो सके।वास्तव में शुरू से ही शैलेन्द्र पर फ़िल्म का अंत बदलने के लिए दबाव बन रहा था जबकि रेणु इसके लिए तैयार नहीं थे।और शैलेन्द्र ने भी रेणु का मान रखते हुए कहानी की साहित्यिकता को मरने नहीं दिया था।
“हिरामन के सपनो की हीराबाई”के अंतर्गत कहानी की मुख्य नायिका हीराबाई को एक सशक्त चरित्र के रूप में शब्दांकित किया गया है। जो अपने समय की औरतों से आगे सोचती और बोलती ही नहीं है करती भी है।
महुआ घटवारिन जैसा हश्र हुआ शैलेंद्र का
किताब के अंतिम अध्याय “ऐसे शहीद हुए शैलेन्द्र” के प्रारंभ में ही लिखा गया है-“फ़िल्म का अंत नहीं बदलना ,बम्बइया इंडस्ट्री में बह रही पूँजीवादी मानसिकता और कॉस्मोपॉलिटन कल्चर की धारा के ख़िलाफ़ एक बिगुल था।
“बतौर लेखक शैलेन्द्र कहानी की एक अदृश्य पात्र महुआ घटवारिन की तरह ही धारा के विरुद्ध उफ़नती नदी में छलांग लगाया था।अंततः उनका भी वही हस्र हुआ जो महुआ घटवारिन का हुआ।फ़िल्म व्यावसायिक दृष्टि से फ्लॉप हुई । शैलेन्द्र ने फ़िल्म निर्माण के लिए बहुत सा कर्ज ले लिया था। फाइनेनसरों ने उन्हें कानूनी नोटिस भी भिजवा दिया।
शैलेन्द्र के खिलाफ अरेस्ट वारेंट जारी हुआ। जिसके कारण वह अपनी फ़िल्म का प्रसार-प्रचार नहीं कर पाए।यहाँ तक की शैलेन्द्र के वे रिश्तेदार जो इमेज मेकर्स से जुड़े थे,उन्होंने भी खूब पैसे बनाये।
स्वयं शैलेन्द्र की पत्नी शकुंतला शैलेन्द्र ने भी अपने रिश्तेदारों पर आक्षेप लगाते हुए कहा कि-पैसे हमारे घर से निकलकर रिश्तेदारों के घरों में पहुंचने लगे थे।नतीजतन शैलेन्द्र दिवालिया हो गए।
अपने-पराए द्वारा छले जाने के कारण वह अंदर से टूट गए।और अंततः जब 14 दिसम्बर को राजकपूर का जन्मदिन पूरी फ़िल्म इंडस्ट्री धूम-धाम से मना रही थी उसी रात शैलेन्द्र ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
शैलेंद्र की मौत की वजह खुद को मानते रहे रेणु
यद्यपि की ‘तीसरी कसम’ लीक से हटकर बनाई गयी थी। और इस कारण उसे फ्लॉप होना पड़ा। जिसके कारण शैलेन्द्र दिवालिया हो गए। बहुत हद तक सह निर्देशक वसु चटर्जी भी इसके जिम्मेदार थे।
किन्तु शैलेन्द्र की असमय मृत्यु का कारण रेणु स्वयं को मानते रहे। उनका कहना था कि न उन्हें मेरी कहानी पसन्द आती और न ही वे उसपर फ़िल्म बनाते। फ़िल्म निर्माण व्यवसाय है न कि कला। और इसी कारण राजकपूर के साथ ही फाइनेनसरों ने भी फ़िल्म में बदलाव करने का दबाव शैलेन्द्र पर बनाया था।किन्तु वे रेणु की बात पर अड़े रहे।जिसके कारण फ़िल्म फ्लॉप रही।
जो शैलेन्द्र जैसे श्रेष्ठ गीतकार की मृत्यु का कारण भी बनी। अंत में हम कह सकते हैं कि “दो गुलफामों की तीसरी कसम” फिल्मी पर्दे के पीछे छिपे उसके षड़यन्त्रों और “तीसरी कसम” की दुःखद यात्रा का निरूपण करने में पूर्णतः सफल है।
पुस्तक-दो गुलफामों की तीसरी कसम
लेखक-अनंत सिन्हा
प्रकाशन-कीकट