प्रख्यात गजल गायिका बेगम अख्तर की 108वीं सालगिरह आज
मनोहर महाजन
कौन है वो जिसने अपनी ‘गायकी’ को पीड़ा और तन्हाई की नींव पर खड़ा कर, दिल की जलन से संगीत को सुलगाकर, दिल पिघला देने वाली ग़ज़लों की वो आबोताब पैदा की जिसे संगीतप्रेमी रहती दुनिया तक रोशन होते रहेंगे? आइये और जानिए मेरे साथ…
कभी कभार ज़िंदगी न जाने कितने बेरहमी के रंग दिखाती है.उसकी आवाज़ में जो दर्द है वह भी ज़माने के दिए ज़ख्मों की वजह से है.बशीर बद्र साहब के शब्दों में कहें तो:
“..ख़ुदा की उस के गले में अजीब क़ुदरत है।
वो बोलता है तो इक रौशनी सी होती है..।।
“बिब्बी” उर्फ़ अख़्तरी बाई की आवाज़ में यह रौशनी एक गहरे और वीभत्स अंधेरे के बाद आई थी.बेगम अख्तर ने कई उस्तादों से संगीत सीखा.सात साल की उम्र में उनके जीवन में एक बड़ी दर्दनाक और अमानवीय घटना घटी. उनके एक उस्ताद ने गायकी की बारीकियां सिखाने के बहाने उनकी पोशाक उठाकर अपना हाथ उनकी जांघ पर सरका दिया था.इस हादसे के अलावा एक और हादसा उनकी ज़िंदगी में घटा,जिससे वह कभी नहीं उबर पाईं.यह हादसा 13 साल की उम्र में हुआ था.
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उस वक्त बिहार का एक राजा उनका क़दरदान बन गया था.उसने उन्हें गाना गाने के लिए अपने यहां न्योता दिया.उस राजा ने बेगम अख़्तर के साथ पशुवत व्यवहार किया…वह प्रेग्नेंट हो गईं और एक बच्ची को जन्म दिया जिसका नाम ‘सन्नो’ उर्फ ‘शमीमा’ रखा.लेकिन इस क्रूर हादसे के बावजूद बेगम अख्तर ने ख़ुद को दोबारा समेटा और जीवन को नए सिरे से शुरू किया.
“बिब्बी” उर्फ़ अख़्तरी और उनकी जुड़वां बहन “अनवरी’ का जन्म फैज़ाबाद में हुआ था.उनकी वालिदा मुश्तरीबाई लखनऊ के नवाबों की दरबारी गायिका थीं.उनके शौहर को गाना-बजाना पसंद नहीं था. मियां बीवी की अनबन के चलते मुश्तरीबाई बेटियों को लेकर फ़ैज़ाबाद चली आईं और संघर्ष शुरू हो गया.
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शौहर लखनऊ में सिविल जज थे पर फ़ैज़ाबाद में मां-बेटियों पर तंज कसे जाते. जैसे-तैसे दिन गुज़र रहे थे कि अनवरी का इंतेकाल हो गया.मां-बेटी अकेले रह गए और सामने बेदर्द ज़माना.मां अक्सर कहतीं, ‘हाय अल्लाह अब क्या होगा?’ फिर एक दिन,’एंजेलीना योवर्ड’ उर्फ़ ‘गौहर जान’ जिनकी पूरे हिंदुस्तान में धूम थी,फ़ैज़ाबाद आईं.
इत्तेफ़ाक से वे उस कक्षा में गई जहां ‘बिब्बी’ उर्फ़ अख़्तरी पढ़ती थीं.किस्सा है कि बिब्बी ने एंजेलीना योवर्ड याने गौहर जान का दामन थाम लिया और कहा, ‘आप गौहर जान हैं न?’ आप ठुमरी गातीं हैं.गौहर जान बोलीं, ‘क्या तुम भी गाती हो?’ बिब्बी ने उन्हें ख़ुसरो का कलाम ‘अम्मा मोरे भैया को भेजो सवान आया’ सुनाया.कहते हैं कि गौहर जान इसे सुनकर अवाक रह गईं. बोलीं, ‘अगर इस बच्ची को तालीम मिल गई तो ये मल्लिका-ए-ग़ज़ल बनेगी!
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ग़ालिब, मोमिन,फैज़ अहमद फैज़, कैफ़ी आज़मी, शकील बदायूंनी जैसे कमाल के शायरों के कलामों को उनकी आवाज़ ने नए मुक़ाम दिलवाए. लखनऊ घरानों की शान कही जाने वाली ठुमरी को गौहर जान के बाद नयी ऊंचाइयों पर अगर कोई ले गया तो वे बेगम अख़्तर ही थीं. वाजिद अली शाह की बनाई हुई ‘हमरी अटरिया पे आजा रे सांवरिया’ तो उनके जैसे शायद कोई गा ही नहीं पाया.
बेगम अख्तर की एक ग़ज़ल है,‘..दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे,वरना कहीं तकदीर तमाशा न बना दे..’इसका जादू कुछ यूं हुआ कि एच.एम.वी. के रिकार्ड्स कम पड़ गए.जब मांग के हिसाब से सप्लाई करना मुश्किल हो गया तो कंपनी ने इंग्लैंड से नया रिकॉर्ड प्रेसिंग प्लांट ही मंगा डाला.
बेगम अख़्तर की आवाज़ का जादू लोगों के सिर पर चढ़कर बोल रहा था. उनकी शक्लो-सूरत भी ठीक-ठाक थी. फ़िल्म निर्माता उनसे अभिनय की भी मांग करने लगे.इसके बाद उन्होंने ‘नल और दमयंती’, ‘एक दिन की बादशाहत’, ‘मुमताज़ बेगम’, ‘अमीना’, ‘जवानी का नशा’ और कई फ़िल्मों में काम किया.
कहा जाता है कि ईस्ट इंडिया फ़िल्म कंपनी ने उनकी तनख्वाह 700/- रुपये मासिक से बढ़ाकर 2000/- कर दी थी. लेकिन उनका मन नहीं लग रहा था. सो इस सब को छोड़कर वे 1942 में लखनऊ चली आईं. लेकिन महान फ़िल्म निर्माता महबूब उनके उनके पीछे वहां तक आ गए और फ़िल्म ‘रोटी’ में रोल और गाने की हां करवाकर ही माने.
बेगम अख़्तर ने इश्तियाक़ अहमद अब्बासी जो पेशे से एक वकील थे उनसे साल 1945 में निकाह किया.इस निकाह के बाद ही वो अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी से बेगम अख़्तर बन गयीं.
निकाह के बाद उन्होंने गायकी छोड़ दी.गायकी तो उन्होंने छोड़ दी थी लेकिन वह इस दौरान ठीक उसी तरह तड़प रही थी जैसे पानी के बिना मछली तड़पती है. हालांकि 1949 में वह गायकी में वापस आईं.इसके बाद उनकी गायकी का सिलसिला उनकी आखिरी सांस तक जारी रहा.
इसी दौर में ग़ज़लों के कम्पोज़ीशन में माहिर मदन मोहन जैसा संगीतकार फ़िल्म इंडस्ट्री में दूसरा नहीं हुआ है. पर इतना नाम होने से पहले उन्होंने फ़िल्म “दाना पानी” (1953) में ‘जूनियर मोहन’ के नाम से संगीत रचा था और इसमें कैफ़ भोपाली की ग़ज़ल ‘..ऐ इश्क़ मुझे और तो कुछ याद नहीं है..’ के लिए बेगम अख़्तर को मना लिया था.
यह बहुत बड़ी बात थी क्योंकि तब तक वे फ़िल्मों से किनारा कर चुकी थीं. फिर 1956 में फ़िल्म ‘भाई-भाई’ का संगीत मदन मोहन की ज़िंदगी में बड़ी कामयाबी लेकर आया.अब आगे का क़िस्सा खुद बेगम अख़्तर साहिबा से ही सुन लीजिये: “..मैं मदन जी को उस ज़माने से जानती हूं जब वो लखनऊ रेडियो स्टेशन में थे.उस ज़माने में मदन जी को मौसीक़ी से रूह की हद तक लगाव था,जब देखो हारमोनियम बज रहे हैं,बैठे गया रहे हैं.
इसके बाद वे बम्बई आये और म्यूज़िक डायरेक्टर बन गए.1956 में उनकी फ़िल्म “भाई भाई” रिलीज़ हुई,मैं उन दिनों दिल्ली आई हुई थी.मेरे साथ बहुत से फ़नकार मेरे आसपास जमा थे.मैने पहली बार रेडियो पर उनकी फिल्म का गाना:”..क़दर जाने न,हो दरद जाने न.मोरा बालम बेदर्दी..”सुना तो पूछिये मत क्या हालत हुई.मैंने मदन जी को बम्बई ट्रंक-कॉल किया और फ़ोन के ऊपर पूरे 18 मिनट या 22 मिनट तक ये गाना बारी बारी से हम सब सुनते रहे…”
इसके बाद सत्यजीत रे की फ़िल्म ‘जलसाघर’
(1958) में उन्होंने विलायत ख़ान साहब की’ राग पीलू’ की बंदिश में ‘…भर आई मोरी अखियां पिया बिना,घिर घिर आईं कारी बदरिया,जरत मोरी छतियां’ गाई..इसने तहलका मचा दिया था. उनके पहले कॉन्सर्ट की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं.1930 में बिहार में आये भूकंप पीड़ितों की सहायता के लिए एक शो किया गया था. मशहूर शहनाई वादक अमान अली खान साहब और उनके नौजवान शागिर्द (उस्ताद) बिस्मिल्लाह ख़ान ने (जिन्हें बाद में भारत रत्न से नवाज़ा गया) भी इसमें शिरकत की.
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शो के दूसरे हिस्से में अफ़रा तफ़री मच गई क्योंकि एक मशहूर शास्त्रीय गायक आने का वादा करके ऐन वक्त पर दगा दे गए थे.आयोजकों की भद्द न पिटे,इसके लिए पटियाला घराने के उस्ताद मोहम्मद अत्ता खान साहब ने अपनी एक शागिर्द को आगे कर दिया.
लोगों का हुजूम शोर मचा रहा था. कांपती टांगों से 20 वर्षीय अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी मंच पर आईं. दर्शकों का रेला देख के उनके पसीने छूट गए.उन्होंने आंखें बंद कर ख़ुदा को याद किया और उस दौर की जानी-मानी ग़ज़ल गायिका मुमताज़ बेग़म का कलाम उनके मुंह से निकल पड़ा. “..तूने बुत-ए-हरजाई कुछ ऐसी अदा पाई, तकता है तेरी ओर हर एक तमाशाई..” ग़ज़ल पूरी होते होते तालियों की गड़गड़ाहट से सारा माहौल गूंज उठा.
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आवाज़ की कशिश ने लोगों को हैरत डाल दिया.देखते ही देखते वे चार ग़ज़ल गा चुकी थीं.शो तो ख़त्म हो चुका था,पर दास्तां अभी बाकी थी. कार्यक्रम पूरा होने के बाद उन तक एक महिला आईं और कहा,’ “..मैं ये तय करके आई थी कि मुझे कुछ देर ही इस कार्यक्रम में रुकना है,तुम्हें सुना तो ठहर गई..”उस महिला ने आगे कहा, “..अब कल तुम मुझे सुनने आना…” ये कहकर उसने अख़्तरी बाई को खादी की साड़ी भेंट की.वह महिला कोई और नहीं, बल्कि भारत की स्वर कोकिला सरोजिनी नायडू थीं!
बेगम अख़्तर और कैफ़ी आज़मी का ज़िक्र न हो तो बेगम साहिबा पर हर लेख अधूरा रहेगा. दोनों इतने अच्छे दोस्त थे कि कैफ़ी साहब ने एक बार उनसे कुछ यूं कहा था,‘आपकी गायकी के ज़रिए ग़ज़ल सिर्फ सुनने को ही नहीं देखने को भी मिलती है.’ जिस प्रकार फैज़ अहमद फैज़ की कुछ नज़्मों को नूरजहां ने गाकर अमर किया था, कुछ वैसे ही इधर भी देखने को मिला.11 बरस के कैफ़ी की पहली ग़ज़ल,‘..इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े, हंसने से हो सुकूं न रोने से कल पड़े..’ से लेकर उनकी तमाम दूसरी गजलें बेगम अख़्तर ने अपनी आवाज़ से नवाज़ीं.
सोज़ और साज़ का मुक़म्मल अफसाना थीं बेगम अख़्तर.उस दौर में बेगम अख़्तर ने अपनी पूरी रवायत को इज़्ज़त दिलवायी.ठुमरी,दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया और बड़े-बड़े दिग्गज उस्तादों से अपनी गायिकी का लोहा मनवाया.भारत सरकार ने इस सुर साम्राज्ञी को पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किया था.उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी नवाजा गया.
समोसों,चंद सिगरेटों की तमन्ना और तन्हाई का बेगम अख़्तर से गहरा ताल्लुक़ था.वे अक्सर कहा करतीं, ‘सब कुछ साथ छोड़ जाएगा तन्हाई के अलावा.’ खाना बनाने की की वो शौक़ीन थीं.दो प्याज़ा सब्ज़ी बड़े चाव से बनातीं और समोसे पर तो उनका सब कुछ कुर्बान था.शराब, सिगरेट और कैफ़ी साहब ही उनके आख़िरी दिनों के दोस्त थे.कहते हैं जिसकी ‘ज़िंदगी’ एक मुक्कमल कहानी की तरह हो उसकी ‘मौत’ कैसे नीरस हो सकती थी.
बेगम अख्तर की मौत भी इस केमुकम्मल कहानी को एक झटकेदार मोड़ है. अपने करियर के अंतिम दिनों में जब वे बीमार चल रही थीं तो डॉक्टर्स ने भी उन्हें गाने से मना कर दिया था। मगर इसके बाद भी उन्होंने परफॉर्मेंस दी. 30 अक्टूबर 1974 के अहमदाबाद का कंसर्ट उनके जीवन का आखिरी कंसर्ट साबित हुआ.इस कॉन्सर्ट में बेगम अख्तर ने कैफ़ी आज़मी की यह ग़ज़ल गाई;
”..वो तेग मिल गई,जिससे हुआ था कत्ल मेरा।
किसी के हाथ का लेकिन वहां निशां नहीं मिलता..।।”
जब उन्होंने ये ग़ज़ल गई तो शायद ही वहां कोई ऐसा था जिसकी आंखों में आंसू न हो.जब वह गा रही थीं तब उनकी तबीयत काफ़ी ख़राब थी. गाते हुए ही उनकी तबीयत और बिगड़ गई. उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा और वहां हार्ट-अटैक के कारण उनका इंतकाल हो गया. किसी ने सोचा भी नहीं था कि जिस ग़ज़ल का मिसरा वह गुनगुना रही थी वह इतनी जल्दी सच हो जाएगा.
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इंतकाल के बाद बेगम को लखनऊ के पसंदा बाग में सुपुर्दे खाक़ किया गया.लखनऊ के हैवलक रोड इलाके में बेगम साहिबा का मकान भले ही वीरान पड़ा है मगर आज भी फिज़ाओं मे मोमिन ख़ां ‘मोमिन’ की लिखी और उनकी गाई ये मशहूर ग़ज़ल गूंजती है:
‘..वो जो हममे तुममें क़रार था,तुम्हें याद हो के न याद हो,
वही यानी वादा निबाह का तुम्हे याद हो के न याद हो..”
उनकी 108वीं सालगिरह पर हम सब संगीतप्रेमी उन्हें सलाम करते हैं.
अख्तरी बाई फैजाबादी (7 अक्टूबर 1914 – 30 अक्टूबर 1974), जिन्हें बेगम अख्तर के नाम से भी जाना जाता है, एक भारतीय गायिका और अभिनेत्री थीं। “मल्लिका-ए-ग़ज़ल” (ग़ज़लों की रानी) हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ग़ज़ल, दादरा और ठुमरी शैलियों की सबसे महान गायिकाओं में से एक माना जाता है। बेगम अख्तर को 1972 में गायन संगीत के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला, उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया, और बाद में भारत सरकार द्वारा मरणोपरांत पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
[मनोहर महाजन की पुस्तक :”फ़िल्म इतिहास के बिखरे हुए पन्ने” से साभार]