बस्तर की लोकप्रिय सब्जी अब छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों में शौक से इस्तेमाल हो रही
पीयुष कुमार
आषाढ़ लगते ही तपी धरती उमस से भर उठती है। ऐसे में साल के जंगलों में एक गोल गोल फंगस जमीन की सतह पर उभर आता है जिसे बस्तर में बोड़ा (boda)कहा जाता है । इस फंगस की विशेषता है कि यह महीने भर ही उपलब्ध होता है और यह सब्जी के रूप खाया जाता है। यह इतना लोकप्रिय है कि शुरुआत में इसकी कीमत हजार से पंद्रह सौ रुपये किलो तक होती है। छत्तीसगढ़ में इस फंगस का बहुप्रचलित नाम है बोड़ा। बोड़ा शब्द गोंडी भाषा के बोडांग से आया है।
गोंडी में बोड़ा को बोडांग कहते हैं। वास्तव में बोड़ा एक फफूंद है। यह फफूंद ही बस्तर और मध्य छत्तीसगढ़ में बोड़ा कहलाती है जबकि उत्तरी हिस्से सरगुजा में यह पुटु कहलाता है।
मध्य छत्तीसगढ़ में इसे पटरस फुटू भी कहते हैं। आदिवासी जीवन मे यह सब्जी के रूप में आरम्भ से रहा है पर अब यह जनसामान्य में विशेष हो गया है। लोग महंगा होने पर भी खोजकर खाते हैं, इसलिए आषाढ़ लगते ही बोड़ा की चर्चा अनिवार्य रूप से होने लगती है।
साल की गिरने वाली सूखी पत्तियों पर जीवित रहता है बोड़ा
बोड़ा टफल प्रजाति का फफूंद है। इसका वैज्ञानिक नाम राइजो पोगाम है जो कि एक प्रकार का माईक्रोलोजिकल फंगस है। यह साल की जड़ों से उत्सर्जित केमिकल से विकसित होता है और साल की ही गिरी सूखी पत्तियों पर जीवित रहता है। मानसून आगमन पर यह जमीन की ऊपरी सतह पर उभर आता है जिसे कुरेद कर निकाला जाता है। बोड़ा (boda) सेलुलोज और कार्बोहाइड्रेट का अच्छा स्रोत है। बोड़ा में विभिन्न तत्व जैसे फैट पांच प्रतिशत, फाइबर पैंतीस प्रतिशत, प्रोटीन 45 प्रतिशत और जल पंद्रह प्रतिशत पाया जाता है।
दो प्रकार का बोड़ा इस्तेमाल होता है खाने में
बोड़ा छत्तीसगढ़ के बस्तर सम्भाग में खासतौर से कोंडागांव जिले के सरई के जंगलों में भरपूर मात्र में होता है। बोड़ा की खेती नहीं की जा सकती क्योंकि इसके लिए जो अनुकूल वातावरण चाहिए, वह कृत्रिम रूप से तैयार नहीं किया जा सकता।
बोड़ा दो प्रकार का होता है। आषाढ़ की पहली बारिश होते ही जो गहरी रंगत वाला बोड़ा निकलता है, उसे जात बोड़ा कहा जाता है। इसके बाद उसी जगह पर पुन: पैदा होने वाले सफेद और तुलनात्मक रूप से छोटे आकार के बोड़ा को लाखड़ी बोड़ा कहा जाता है।
यह अगस्त के आखिर तक मिलता है। जात बोड़ा और लाखड़ी बोड़ा (boda) में खाने के लिहाज से एक फर्क यह है कि ठीक से न पके लाखड़ी बोड़ा से पेट खराब होने की गुंजाइश ज्यादा रहती है।
बस्तर से लेकर छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों में सोने के भाव बिकता है बोड़ा
बोड़ा चूंकि यह मिट्टी से निकलता है, अतः अच्छी सफाई प्रमुख शर्त है। इसे सब्जी की तरह बनाया जाता है। बोड़ा (boda) को आमतौर पर आलू के साथ या देसी चने के साथ बनाया जाता है।
बस्तर में यह देसी चिकन के साथ भी मिलाकर खाया जाता है। बस्तर में इसके सीजन के शुरुआती दौर में निकलने वाले नर्म बोड़े को आमट अर्थात आम की खटाई के साथ ज्यादा बनाया जाता है। बोड़ा एक शानदार अपेटाइजर अर्थात भूख बढ़ानेवाला फंगस है।
इसके लिए बोड़ा को अच्छी तरह साफ करके हल्दी, नमक, जीरा, धनिया, प्याज, लहसुन के पेस्ट से थोड़ी देर मेरिनेट कर दिया जाता है। इसके बाद इसे साल के पत्ते में मोड़कर लकड़ी के धीमी आंच में बेक कर दिया जाता है। इसे खाने से भूख बढ़ती है। बोड़ा पहले सिर्फ बस्तर में मिलता है लेकिन अब आवागमन के साधन सुलभ होने की वजह से दुर्ग-भिलाई, रायपुर, राजनांदगांव, बिलासपुर सहित छत्तीसगढ़ के विभिन्न हिस्सों में मिल जाता है। इसकी आपूर्ति बस्तर से ही होती है। आम तौर पर यह एक हजार से 1500 रूपए किलो तक बिकता है।
बस्तर की बहुप्रचलित सब्जी है बोड़ा
बोड़ा बस्तर में बहुप्रचलित सीजनल सब्जी है पर यह देश के विभिन्न हिस्सों में अलग अलग नामों के साथ भी पाया जाता है। छत्तीसगढ़ के उत्तरी हिस्से सरगुजा में यह ‘पुटु’ कहलाता है। इसी सरगुजा सम्भाग से लगे झारखंड राज्य के नागर समाज में यह ‘फुटका’ के नाम से जाना जाता है जबकि ग्रामीण इसे ‘रुगड़ा’ कहते हैं।
यहीं के बोकारो क्षेत्र में इसे ‘पुटका खुंखड़ी’ भी कहते हैं। इसी तरह उत्तरप्रदेश के तराई क्षेत्र लखीमपुर खीरी, तराई भावर, पीलीभीत और लखनऊ क्षेत्र में इसे ‘कटरूआ’ कहा जाता है। जबकि बस्ती जिले में इसे ‘सफ़ड़ा’ और अवध क्षेत्र में इसे ‘भुटकी’ कहते हैं।
बस्तर में जो गहरी रंगत वाला जात बोड़ा और बाद में मिलनेवाला सफेद रंगत का लाखड़ी बोड़ा है, वह छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में मानी या गोहिया पुटु और छिरिया पुटु कहलाता है। यही दो प्रकार का बोड़ा झारखंड में कालबोड़ा और जुटू पुटु कहलाता है। झारखंड के शहरी क्षेत्र में यह सफेद फुटका और चन्दन फुटका के नाम से भी प्रचलित है। भारत के अलावा बोड़ा अमेरिका, अर्जेंटीना, ब्राज़ील, चीन और अफ्रीका में भी पाया जाता है।
सिर्फ महीने भर ही मिलता है, दो दिन से ज्यादा रख नहीं सकते
बोड़ा (boda) चूंकि साल के जंगलों में ही मिलता है वह भी एक महीने के लिए, इसलिए उतना सुलभ नही है। इसे दो दिन से ज्यादा स्टोर नही किया जा सकता क्योंकि यह खराब होने लगता है। ऐसे में रायपुर के रंगकर्मी और खाद्यप्रयोगधर्मी हेमन्त वैष्णव Hemant vaishnav ने इसे सुखाकर रखने की एक पारंपरिक विधि के बारे में बताया।
उनके अनुसार इस विधि से सुखाया गया बोड़ा खोइला कहलाता है। खोइला के लिए बांस के खोल में बोड़ा डालकर बन्द कर दिया जाता है फिर उस बांस को आग वाले चूल्हे के ऊपर लटका दिया जाता है और आंच में सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। लगभग दस से पन्द्रह दिन में बो (boda)ड़ा सूख जाता है। सूखे हुए बोड़े को किसी डिब्बे में बंद करके रख दिया जाता है और जब चाहे तब खाने में प्रयोग किया जा सकता है। इस विधि से बोड़ा स्टोर किया जा सकता है।
प्राकृतिक दवा के रूप में भी उपयोग किया जाता है बोड़ा
बोड़ा एक अच्छा एंटीऑक्सीडेंट है। इसका एंटीइंफ्लेमेटरी का गुण सूजन को कम करने में सहायक होता है। बोड़ा साइटोटॉक्सिक भी होता है, अर्थात यह विषाक्तता को कम करता है। बस्तर में बोड़ा का प्राकृतिक दवा के रूप में भी उपयोग किया जाता है।
ज्यादा दिनों वाला खराब बोड़ा जब खाने के लायक़ नहीं होता है, उस तरह के बोड़े के भीतर के काले हिस्से को निकाल लिया जाता है। इस काले पावडर में सरसों का तेल मिलाकर लेप बना लिया जाता है। इस लेप को शरीर के सफ़ेद दाग धब्बों पर लगाने से वह ठीक हो जाते हैं।
बोड़ा जहां खाने में स्वादिष्ट और स्वास्थ्यगत रूप से लाभकारी तो है पर इसके साथ कुछ सावधानियां भी हैं। कई बार धोने में लापरवाही से या कम पकने पर पेट दर्द भी होता है। बोड़ा (boda) को ठीक से साफ करने में समय और बहुत परिश्रम लगता है। बिक्री की दृष्टि से देखा जाए तो इसका फायदा इसे इकट्ठा करने वाले गरीब लोगों कम मिलता है जबकि बिचौलिए ज्यादा कमाते हैं। पर कब इसे निकालनेवाले यह जान गए हैं सो वे स्वयम भी इसकी कीमत ठीक रखने लगे हैं जो कि उनके आर्थिक विकास के हिसाब से अच्छा लक्षण है।