मिसाल कायम की देश के सबसे सफल नेत्रहीन बिज़नेसमैन भावेश भाटिया ने, देशभर के 9000 दिव्यांगजनों को दे रहे काम
अहमदाबाद। “इंसान का जन्म दो बार होता है, एक माता-पिता की संतान बनकर और दूसरा जब उसे अपने जीवन का विज़न मिल जाता है।” अपने माता-पिता से मिली इस सीख को ध्यान में रखकर, 51 वर्षीय नेत्रहीन भावेश भाटिया (Bhavesh Bhatia a visually impaired businessman) आज भी काम कर रहे हैं।
भावेश अपनी कंपनी सनराइज़ कैंडल के ज़रिए 10 हजार से ज्यादा डिज़ाइन की मोमबत्तियां बना रहे हैं। वहीं 1000 मल्टीनेशनल कंपनियां हैं, जो उनकी नियमित ग्राहक हैं और 57 देशों में उनके प्रोडक्ट्स जा रहे हैं।
लेकिन सालों पहले उन्होंने मात्र 20 किलो मोम (wax) के साथ, अपने काम की शुरुआत की थी और पिछले साल उनकी कंपनी में 2560 टन वैक्स का उपयोग करके लाखों कैंडल्स बनाई गई हैं।
इसी से आप भावेश की सफलता का अंदाजा लगा सकते हैं। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि देश के यह सफल बिजनेसमैन बचपन से ही देख नहीं पाते। बावजूद इसके उन्होंने जीवन में जो मुकाम हासिल किया है उसके पीछे कड़ी मेहनत और लगन का बहुत बड़ा हाथ रहा है।
एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्म लेने और आँखों से न देख पाने के बावजूद, भावेश ने अपने जीवन के साथ-साथ देश के कई दिव्यांगजनों को भी जीवन में एक लक्ष्य दे दिया है।
बचपन से क्राफ्ट में माहिर थे भावेश
कच्छ गुजरात (Cutch Gujrat) से ताल्लुक रखने वाले भावेश का परिवार, भावेश के जन्म के साथ ही काम की तलाश में गोंदिया महाराष्ट्र (Gondia-MH) में आकर बस गया था। भावेश, बचपन में कम देख पाते थे।
कुछ बड़ी-बड़ी चीजें उन्हें धुंधली दिखती थीं। इसलिए उनकी माँ ने उनका दाखिला सामान्य स्कूल में कराया, ताकि भावेश कभी अपने आप को अलग न समझें। उनकी माँ उनके लिए कई किताबें लेकर आईँ और उनकी पढ़ाई पर पूरा ध्यान देने लगीं।
भावेश कहते हैं कि स्कूल में क्राफ्ट का विषय उनका सबसे पसंदीदा विषय था। क्योंकि उसी समय उन्हें अपना हुनर दिखाने का मौका मिलता था। उनके बनाए कई प्रोजेक्ट्स स्कूल के टीचर सबको दिखाते और भावेश की खूब तारीफ भी करते थे। शायद तब उन्हें अंदाजा भी नहीं था कि इसे अपना काम भी बनाया जा सकता है।
शौक बनता गया जुनून
दसवीं की बोर्ड परीक्षा के बाद, भावेश ने अपने एक दोस्त के साथ, कुछ डबल पैडल वाली साइकिल पर गोंदिया से नेपाल की यात्रा की थी।
भावेश कहते हैं, “मेरी माँ ने मुझे एक किताब पढ़कर सुनाई थी, जिसमें कुछ पारसी लोगों ने साइकिल से वर्ल्ड टूर किया था। उन लोगों की देशभर में तारीफ की जा रही थी। मैं भी उनकी इस कहानी से काफी प्रभावित हुआ था।
मेरे साथ स्कूल में मेरा एक दोस्त था, जो एक पैर से दिव्यांग था। पूरे स्कूल में केवल हम दोनों ही दिव्यांग थे, इसलिए मेरी उससे अच्छी दोस्ती भी हो गई थी। हमने साथ में मिलकर एक साइकिल टूर करने का फैसला किया।” इस टूर के बाद 15 वर्षीय भावेश और उनका दोस्त स्कूल के साथ-साथ, पूरे शहर में भी मशहूर हो गए थे।
कठिन परिस्थियों में शुरू किया काम करना
गोंदिया से ही उन्होंने, इकोनॉमिक्स विषय में एम ए तक की पढ़ाई पूरी की है। हालांकि, बाद में काम के सिलसिले में उनके माता-पिता महाबलेश्वर आकर बस गए। यहां उनके पिता गुजराती ट्रस्ट की एक धर्मशाला की देखरेख का काम करते थे। पढ़ाई के बाद, भावेश के ऊपर काम करने और घर संभालने की जिम्मेदारी आ गई।
उसी बीच उन्हें पता चला कि उनकी माँ को लास्ट स्टेज कैंसर है। घर की सारी जमा पूंजी उनके इलाज में चली गई, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी वह अपनी माँ को बचा नहीं पाए।
मुंबई में माँ के इलाज के दौरान उन्हें पता चला कि शहर में दिव्यांगजनों के लिए क्रिएटिव ट्रेनिंग कोर्स कराया जाता है। चूंकि भावेश को क्राफ्ट में दिलचस्पी भी थी, इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय नेत्रहीन संस्थान (नैब) National Association for the Blind (NAB) में एक साल रहकर एक बेसिक कैंडल मेकिंग सहित कई और तरह के कोर्स किए। बाद में साल 1994 में अपने पिता के पास महाबलेश्वर आकर, उन्होंने सनराइज कैंडल की नींव रखी।
भावेश कहते हैं, “मैंने 50 रुपये में एक हैंड कार भाड़े पर ली और लोगों का मसाज करके मैंने 5000 रुपये इकट्ठा किए।”
महाबलेश्वर एक टूरिस्ट डेस्टिनेशन है, इसलिए उन्हें कई ग्राहक भी मिलने लगे। साथ ही भावेश अलग-अलग शहरों में होने वाली प्रदर्शनियों में अलग-अलग डिज़ाइन की मोमबत्तियां बनाकर ले जाते थे। साल 1998 तक उन्होंने अकेले ही मोमबत्तियां बनाकर बेचने का काम किया।
आखिरकार मिल ही गई सफलता
समय के साथ उनकी हिम्मत देखकर कई लोग उनसे जुड़ने लगे। धीरे-धीरे परिस्थितियां भी सुधरने लगीं। भावेश के जीवन में उनकी धर्मपत्नी भी ढेर सारी खुशियां लेकर आईं।
उनकी पत्नी नीता एक टूरिस्ट के तौर पर भावेश से मिली थीं और 18 दिनों तक उन्होंने मोमबत्तियां बनाने में भावेश की एक हेल्पर की तरह मदद की और बाद में दोनों ने शादी कर ली। एक समृद्ध परिवार से आने वाली नीता ने दिव्यांग न होते हुए भी भावेश की खूबियों के कारण उनसे शादी करने का फैसला किया था।
उन्होंने मिलकर,महाबलेश्वर से छह किलोमीटर दूर सिंदोड़ा गांव में आठ कमरे भाड़े पर लिए और पांच नेत्रहीन लोगों के साथ एक छोटा सी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट डाली। उस समय परिस्थियां थोड़ी कठिन थी। बिज़नेस ज्यादा नहीं था, कच्चा माल लाना, लोगों को सैलरी देना और किराया देना बड़ी मुश्किल से हो पाता था। एक समय तो ऐसा भी आया कि उन्हें लगा काम बंद न करना पड़ जाए।
उस समय को याद करते हुए भावेश कहते हैं,“मैं हमेशा ही सफल इंसानों और महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेता रहता हूँ। बचपन में भी मेरी माँ मुझे प्रेरक कहानियां सुनाया करती थीं। अपने मुश्किल समय में मैंने एक बार रेडियो पर एपीजे अब्दुल कलाम का भाषण सुना था, जिसमें उन्होंने कहा था,“इंतजार करने वालों के हाथ में उतना ही आता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ दिया करते हैं।” इसके बाद मैंने कोशिश करना नहीं छोड़ा।”
शुरू किया अपने जैसे कई लोगों को साथ जोड़ना
भावेश बताते हैं कि-धीरे-धीरे उन्होंने अपने जैसे कई लोगों को अपने साथ जोड़ना शुरू किया। जहां लोगों का आना-जाना ज्यादा होता है, वहां उन्होंने छोटे-छोटे स्टॉल लगाकर मोमबत्तियां बेचना शुरू कर दिया। कई और नेत्रहीन लोग उनके बारे में जानने के बाद उनसे जुड़ने लगे।
उनका मानना था कि अगर हम बोल सकते हैं, तो कुछ बेच भी सकते हैं। उन्होंने अपने साथ जुड़ने वाले हर एक इंसान को प्रोडक्ट्स बेचना सिखाया। कई शहरों में उनसे लोग जुड़ने लगे और काम बढ़ने लगा।
अपने बिज़नेस की सफलता का एक मूल मन्त्र बताते हुए वह कहते हैं कि जो भी काम उन्हें मिलता गया वह उसे पूरी लगन से करते और अपने ग्राहकों को ही अपना ब्रांड एम्बेसडर समझते थे।
बढ़ता गया कारोबार, आज कई नामचीन ग्राहक
मुंबई, पुणे सहित सनराइज कैंडल, कई शहरों में अलग-अलग प्रदर्शनियों में भाग लेता रहता है। साल 2007 में उनके जीवन का टर्निंग पॉइन्ट तब आया, जब अपने एक दोस्त की मदद से उन्हें पुणे के तिलक स्मारक हॉल में 12 हजार मोमबत्तियों की डिज़ाइन को प्रदर्शित करने का मौका मिला। इस तीन दिन की प्रदर्शनी में लाखों की भीड़ आई और सभी ने नेत्रहीन लोगों की बनाई इन मोमबत्तियों को काफी सराहा, जिसके बाद उन्हें कई बड़ी कंपनियों से ऑर्डर मिलने लगे।
आज वह देश के सबसे बड़े बिज़नेस परिवार रिलाइंस सहित कई कंपनियों में दिवाली गिफ्टिंग कैंडल की सप्लाई करते हैं। इसके अलावा, वह एक पैरा ओलंपियार्ड भी हैं और देश के लिए जैवलिन थ्रो में कई अवॉर्ड जीत चुके हैं। उन्हें राज्य और केंद्र सरकार की ओर से भी ढेरों अवार्ड्स मिल चुके हैं।
भावेश चाहते हैं कि हर एक दिव्यांग अपने अंदर के हुनर को पहचाने और जीवन में एक लक्ष्य बनाकर आगे बढ़े। भावेश, न केवल दिव्यांगजनों बल्कि उन सबके लिए एक प्रेरणा स्रोत हैं, जो मुश्किलों से डरकर हार मान लेते हैं।