आज जयंती पर विशेष
घर देता का घर, कुनी घर देता का… इस संवाद को न जाने कितने अभिनेताओं ने साकार किया लेकिन डॉ. श्रीराम लागू की बात ही कुछ और थी. उन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक नाटकों और फिल्मों में छोटी बड़ी भूमिकाएं की लेकिन इस संवाद और भूमिका से जुड़ी उनकी छवि अमिट रही. वि. वि. शिवाड़कर के लिखे कालजयी नाटक ‘नटसम्राट’ का यह संवाद है जिसमें गणपतराव बेलवलकर की केन्द्रीय भूमिका डॉ. लागू ने निभाई.
यह भूमिका एक ऐसे अभिनेता की है जो मंच से संन्यास ले चुका है, जीवन के उत्तर काल में यथार्थ से उसका तालमेल नहीं बन पाता. मंच का अभिनय और यथार्थ के आपसी द्वंद्व और दोनों का अंतर मिट जाने के कारण उसके जीवन में ऐसी त्रासदी आती है जो किंग लीयर की याद दिलाती है.
कहानी में कई स्तर हैं. एक कलाकार का अपना अक्खड़पन है, जिसे उसकी संतान नहीं समझ पाती. दूसरा स्तर परिवार का है, जिसमें बुजुर्गों की सीमा तय कर दी गई है और फिर उपेक्षा, उपहास और पीड़ा का संसार बनता है. इस भूमिका को तीन सौ बार से अधिक बार डॉ. लागू ने मंच पर जिया, उसके तनाव, संघर्ष, अक्खड़ता और पीड़ा के साथ. इस नाटक पर आधारित सिनेमा भी दर्शकों के मन से डॉ. लागू की छवि को नहीं निकाल सका, नटसम्राट मतलब डॉ. श्रीराम लागू.
17 दिसंबर 2019 को पूणे के हस्पताल में डॉ. श्रीराम लागू की जीवन की भूमिका का अंत हो गया, वो सक्रिय अभिनय जीवन से पहले ही संन्यास ले चुके थे. रंगमंच के अतिरिक्त वो अंधश्रद्धा निर्मुलन अभियान से भी जुड़े थे. वो ऐसे अभिनेताओं में से एक थे जिन्होंने सिनेमा और रंगमंच के बीच संतुलन बनाए रखा. ‘सिंहासन’, ‘सामना’, ‘पिंजरा’ जैसी मराठी फिल्मों तथा ‘लावारिस’, ‘घरौंदा’, ‘इनकार’, ‘हेरा फेरी’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’ जैसी फिल्मों में उनके अभिनय को याद किया जाता है. ‘घरौंदा’ फिल्म में अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला.
डॉ. श्रीराम लागू का जन्म महाराष्ट्र के सतारा में 16 नवम्बर 1927 को हुआ था. डॉ. लागू ने पूणे के बीजे मेडिकल कॉलेज से एमबीबीबीएस की पढ़ाई की और नाक कान गले के सर्जन बने. मेडिकल की पढ़ाई के साथ साथ रंगकर्म भी शुरू किया जिसका शौक बचपन से ही था.
तंजानिया में मेडिकल प्रैक्टिस छोड़कर बयालिस साल की उम्र में भारत वापस आ गए और मराठी के पेशेवर रंगमंच में सक्रिय हुए. वसंत कानेटकर के नाटक ‘इथे ओशाला मृत्यू’ में संभा जी की भूमिका से अभिनय की शुरूआत की और 1970 में ही ‘नटसम्राट’ में काम किया.
1972 में व्ही. शांताराम की आखिरी फिल्म ‘पिंजरा’ में इन्होंने मराठी रंगमंच के एक और बेहतरीन अभिनेता नीलू फूले के साथ काम किया और गुरूजी की भूमिका में अपनी छाप छोड़ी. सिनेमा में अपनी शुरूआती भूमिकाओं में ही उन्होंने अपने अभिनय की गहराई और संभावना को दिखाया. डॉ. लागू अभिनय में आवाज के उतार चढ़ाव, और भेदने वाली आँखों से काम लेते थे और साधारण सी लगने वाली भूमिकाओं को भी आकर्षक बना देते थे.
मराठी के व्यावसायिक रंगमंच से इतर मराठी के प्रयोगशील रंगमंच के साथ भी उनका जुड़ाव रहा और इसके लिए छबीलदास स्कूल से जो मूहिम शुरू हुई थी उसमें अपना योगदान भी दिया. विजय तेंदूलकर के नाटक ‘गिद्धाड़े’ को निर्देशित किया और ‘उद्ध्वस्त धर्मशाला’, ‘एंटीगनी’ जैसे नाटकों में अभिनय किया.
वैसे डॉ. लागू पेशेवर और प्रयोगशील जैसे विभाजन के सख्त खिलाफ थे. उनका मानना था कि ऐसे थियेटर जिनसे व्यावसायिक लाभ नहीं कमाया जा सकता लेकिन उसका कथ्य ऐसा है कि उसे किया ही जाना चाहिए तो उसे छबीलदास जैसे स्पेस में किया जा सकता है.
इसी तरह व्यावसायिक रंगमंच में भी अच्छा रंगमंच हो सकता है. डॉ. लागू संगीत नाटक अकादेमी सम्मान, मध्य प्रदेश सरकार का कालीदास सम्मान, पद्मश्री आदि से सम्मानित थे. ‘लमाण’ नाम से इन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी है जिसका हिंदी में मतलब है मालवाहक, अभिनेता मालवाहक ही तो होता है जो निर्देशक, और नाटककार के साथ दूसरे किरदार की संवेदनाओं को ढोता है.
दूरदर्शन के लोकप्रिय साक्षात्कार के कार्यक्रम में तबस्सुम से डॉ.लागू ने कहा था कि ‘मुझे ये मालूम नहीं है कि थियेटर के ऑडियेन्स को मेरी कमी महसूस होती है या नहीं लेकिन एक बात जरूर है कि मुझे थियेटर की कमी बहुत महसूस होती है.’ आधुनिक भारतीय रंगमंच और सिनेमा के इस बेमिसाल अभिनेता की कमी रंगमंच और सिनेमा को हमेशा महसूस होती रहेगी.