आज भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा पर विशेष
पुरी। आज पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा (Jagannath Rath yatra) निकल रही है। दो वर्ष के कोरोना काल के बाद इस वर्ष यह रथयात्रा सार्वजनिक रूप से निकल रही है और इसमें श्रद्धालु शामिल हो सकेंगे।
इस खास मौके पर पाठकों के लिए इस मंदिर से जुड़े दो महत्वपूर्ण तथ्य। यहां की अनूठी रसोई को लेकर परंपराएं बेहद अलग हैं। वहीं भगवान जगन्नाथ के अनन्य भक्त सालबेग का किस्सा भी अनूठा है। आज भी भगवान जगन्नाथ का रथ कुछ देर के लिए अपने इस भक्त की मजार पर रुकता है। आईए, जानते हैं पुरी की रथयात्रा से जुड़े दोनों अनूठे तथ्यों से।
दुनिया की सबसे बड़ी रसोई
जगन्नाथ मंदिर पुरी में दुनिया की सबसे बड़ी रसोई (world biggest kitchen) है, जहां हर रोज करीब 1 लाख लोगों का खाना बनता है। यहां भगवान को हर दिन 6 वक्त भोग लगाया जाता है, जिसमें 56 तरह के पकवान शामिल होते हैं। भोग के बाद ये महाप्रसाद (Mahaprasad) मंदिर परिसर में ही मौजूद आनंद बाजार में बिकता है।
जगन्नाथ मंदिर की रसोई 11वीं शताब्दी में राजा इंद्रवर्मा के समय शुरू हुई थी। तब पुरानी रसोई मंदिर के पीछे दक्षिण में थी। जगह की कमी के कारण, मौजूदा रसोई 1682 से 1713 ई के बीच उस समय के राजा दिव्य सिंहदेव ने बनवाई थी। तब से इसी रसोई में भोग बनाया जा रहा है।
मिट्टी के बरतन में तैयार होता है महाप्रसाद
यहां कई परिवार पीढ़ियों से सिर्फ भोग बनाने का ही काम कर रहे हैं। वहीं, कुछ लोग महाप्रसाद बनाने के लिए मिट्टी के बर्तन बनाते हैं, क्योंकि इस रसोई में बनने वाले शुद्ध और सात्विक भोग के लिए हर दिन नया बर्तन इस्तेमाल करने की परंपरा है।
मसालों में जीरा, धनिया, काली मिर्च, सौंफ, तेजपत्ता, दालचीनी और सरसों का इस्तेमाल किया जाता है। मिठाई के लिए शक्कर की जगह अच्छी किस्म के गुड़ का उपयोग होता है।
मसालों में जीरा, धनिया, काली मिर्च, सौंफ, तेजपत्ता, दालचीनी और सरसों का इस्तेमाल किया जाता है। मिठाई के लिए शक्कर की जगह अच्छी किस्म के गुड़ का उपयोग होता है।
मजार पर क्यों रुकता है भगवान का रथ?
भक्त सालबेग समाधि स्थल पुरीरथ यात्रा के दौरान जब रथ ग्रैंड रोड (या बड़ा डंडा) पर लगभग 200 मीटर आगे की ओर लुढ़कता है। तब नंदी घोष यानी भगवान जगन्नाथ का रथ दाहिनी ओर एक मजार (मकबरा) पर ठहरता है।
यह स्थल भक्त सालबेग समाधि पीठ (Bhakta Salabega Samadhi Pitha) के नाम से जाना जाता है। परंपरा के अनुसार यहां रथ कुछ देर रुकता है, इस दौरान मकबरे में शांति से विश्राम करने वाली आत्मा को याद किया जाता है। उसके बाद रथ अपनी मंजिल की ओर बढ़ जाता है।
असंख्य भजनों और गीतों में जिंदा हैं सालबेग की भक्ति की गाथा
भगवान के रथ को इस पड़ाव पर रोकने के अनुष्ठान के पीछे रोचक कहानी है। यह घटना सदियों पहले मुगल काल के दौरान की है। मुगल सेना की पैतृक छाया में पले-बढ़े एक मुसलमान नौजवान सालबेग को भगवान जगन्नाथ के प्रति गहरी आसक्ति थी। उनकी भक्ति की गाथाएं आज भी असंख्य भजनों और गीतों में जिंदा हैं। जिन्होंने भगवान के अनुष्ठानों के प्रदर्शनों में एक अहम जगह बनाई है।
लेकिन सालबेग इस बात को लेकर बहुत दुखी थे कि उन्हें अलग समुदाय की वजह से अपने ही भगवान के दर्शन के लिए मंदिर में प्रवेश नहीं मिल पा रहा था। कहा जाता है कि अपने भगवान श्री कृष्णा के प्रति समर्पण में उन्होंने वृंदावन में कम से कम एक वर्ष का समय बिताया था। किवंदंति है कि जब सालबेग रथ यात्रा में शामिल होने के लिए वापस ओड़िशा आ रहे तब वे बीमार पड़ गए थे। जब उनके शरीर ने लगभग जवाब दे दिया था तब उन्होंने भगवान जगन्नाथ से प्रार्थना की कि कम से कम एक बार वे उन्हें दर्शन करने की अनुमति दें।
भगवान की स्तुति में गाए जाने वाले सैकड़ों गीत व भजन सालबेग के अटूट विश्वास और धैर्य को प्रकट करते हैं उनकी आत्मा से निकली आवाज ने भगवान जगन्नाथ को हिला दिया। जब यात्रा शुरु हुई तो, भगवान का रथ सालबेग की कुटिया के सामने आकर रुक गया और आगे नहीं बढ़ा। ऐसा माना जाता है कि वह आवाज सालबेग की अंतर्रात्मा की आवाज थी, जिसकी वजह से रथ को रोकने की दैवीय मंजूरी मिली थी। इस प्रकार से भगवान जगन्नाथ अपने कट्टर भक्त के पास जाकर उसे अपने रथ के नीचे आकर दर्शन करने की अनुमति दी।
सालबेग को सम्मान देने के बाद ही
भगवान जगन्नाथ का रथ आगे बढ़ा
आज भी यह परंपरा चली आ रही है। भगवान के रथ को अपने भक्त की समाधि या मजार पर अनिवार्य रूप से रुकना पड़ता है। सालबेग का भजन अहे नीलाशैला आज भी इस दिन के लिए भगवान के अनुष्ठानों के इतिहास में सर्वकालिक लोकप्रिय है।
डॉ. मोहम्मद यामीन अपनी ओडिशा समीक्षा में लिखते हैं कि कृष्णरास में मदहोश सालबेग की वृंदावन जाने की इच्छा हुई होगी। वहां उन्हाेंने साधु-संतों से अपने पीठासीन भगवान के बारे में सुना होगा और भगवान श्रीकृष्ण के बालमुकुंद स्वरुप में खो गए होंगे।
श्रीकृष्ण ने जिस तरह से बालक की तरह अपनी माता से व्यवहार किया था, सालबेग उससे अवश्य मोहित हो गए होंगे। इसलिए उन्होंने उस बालक (श्रीकृष्ण) का वर्णन करते हुए भजन की रचना की।
सुनपुआ नचैरे कविता की रचना के दौरान सालबेग ने उस घटना का वर्णन किया है जिसमें श्रीकृष्ण द्वारा भोजन ग्रहण करते समय माता यशोदा को समस्या हुई थी।
उस दौरान स्नेही माता यशोदा कुछ गीत गाकर कृष्ण को भोजन कराती हैं। सुंदरानंद विद्याविनोद और सुकुमार सेन जैसे आलोचकों ने सालाबेग को 17वीं शताब्दी के ओडिशा के एक स्थापित भक्ति कवि के रूप में मान्यता दी है और हिंदी, बंगाली और उड़िया में लिखे गए उनके वैष्णव छंदों का सम्मान करते हैं।