आज जन्मदिन-अमोल ने बड़े परदे के अलावा
थियेटर औऱ छोटे परदे पर भी खूब रंग जमाया
अमोल पालेकर के बारे में सोचते ही ‘गोलमाल’ याद आती है। छोटा कुर्ता, “राम प्रशाद दशरथ प्रशाद” और नकली मूंछें। फिर वो डायलॉग कि ‘कबीर को पढ़ने-पढ़ाने के लिए पूरा जीवन ही कम है, पर मैं कोशिश करूंगा कि साढ़े सात बजे तक खत्म कर दूं।’
अमोल पालेकर के चाहने वाले ये मानते हैं कि जैसी सौम्यता उनके ज्यादातर किरदारों में रही, वैसी ही उनके व्यक्तित्व में थी और इसीलिए उन्होंने बहुत चमक-दमक नहीं चाही। अमोल पालेकर का जन्म 24 नवंबर 1944 को बाम्बे में हुआ। उनके परिवार में पत्नी चित्रा पालेकर औऱ दो बेटियां हैं।
वो हमारी तरह ही किराये का कमरा खोजता, कॉलेज में लड़कियों को चिट्ठी लिखता, बस की कतार में खड़ी लड़की को चुपके-चुपके निहारता, बैचलर लॉज में रहते हुए पानी का इंतजार करता, क्लर्क की नौकरी करता, कॉफी हाउस में लड़की के साथ बैठा रहता, अपने दोस्तों के साथ दुनिया जहान की बातें करता, बीच-बीच में अपने बाल को कंघी करता, रुमाल से मुंह पोछता।
वो कभी किसी दूसरी दुनिया का सुपरमैन नहीं लगता। झोला लटकाए, बजाज स्कूटर को किक मारते, लड़की के साथ इंडिया गेट घूमते, सिनेमा जाते, पार्क में बैठ बातें करते, कभी गांव में बस से उतरते, कभी रेलवे स्टेशन से घर जाने के लिये तांगे की सवारी करते हुए वो हमेशा अपने बीच का ही कोई आदमी लगता।
मानो हम में से ही कोई एक उठकर उस बड़े से रुपहले पर्दे पर चला गया हो। उसकी फिल्मों को देखते हुए लगता जैसे हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी को ही किसी ने बड़े पर्दे पर उठाकर रख दिया हो।
वो रियलिज्म के इतना करीब था कि उसकी बेरोजगारी, सिगरेट के लिये खत्म हो गए पैसे, सेकेंड हैंड बाइक, किसी अंग्रेजी रेस्तरां में चम्मच से न खा पाने की मजबूरी, उसके सुख-दुख, मूंछों के बीच अचानक से फूंट पड़ने वाली हंसी सबकुछ अपना ही हिस्सा लगती।
उसका बेलबॉटम फुलपैंट, स्लीव शर्ट, पतली मूंछ, बड़े ग्लास वाला चश्मा, कानों तक लंबे बाल ठीक वैसे ही थे जो हमने अपने घर के एलबम में पापा-मामा-चाचा की जवानी की तस्वीरों में देख रखे थे।
उसकी प्रेमिकाएं किसी टिपिकल हिन्दी फिल्मों की तरह अचानक से नाचते-गाते नहीं मिलती, बल्कि वो उसके आसपास ही पड़ोसी के घर में, मोहल्ले में या कॉलेज- ऑफिस में साथ-साथ काम करती मिलती। हमारी तरह उसका दिल भी लड़की को प्रपोज़ करना तो दूर उससे बात तक करने में धक-धक करने लगता। महीनों-सालों वो सिर्फ लड़की को निहारता रह जाता। उसके बगल वाली सीट पर बैठकर ही खुश होता रह जाता। लड़की के समय पूछ लेने भर से न जाने कितने ख्यालों को मन में उकेर बैठता।
वो उन फिल्मी हीरो की तरह नहीं था, जो अकेले ही न जाने कितनों को निपटा देते। वो कोई महानायक, कोई काल्पनिक एंग्री यंग मैन नही था। वो तो हमारे चाचा जी की तरह था, हमारी तरह था। अपने बॉस के सामने हाथ जोड़े, ऑफिस-कॉलेज, आस-पड़ोस की आंटियों के सामने दुबका सहमा विनम्र छवि बनाए रखने वाला।
हम जब उसे पर्दे पर देखते हैं तो सिर्फ उसे नहीं देख रहे होते बल्कि अपने दब्बूपन, आम आदमी होने की लघुता को भी नाप रहे होते है। भारी भरकम सुपरहीरो वाली फीलिंग से इतर हम अपने दब्बूपन को सिनेमैटिक पोएट्री में पिरोए जाने का सुख महसूस कर रहे होते हैं। खुद की साधारण कहानी भी स्पेशल लगने लगती है।
साधारण होने की लघुता को बड़े रंगीन रुपहले पर्दे पर करीने से सजाने वाले उस नायक को जन्मदिन की शुभकामनाएं। वो शख्स जिसने कभी महानायक बनना न चाहा।
70 और 80 के दशक में जब बॉलीवुड में लार्जर दैन लाइफ ट्रेंड था उस समय अमोल पालेकर अपने शांत और सहज अभिनय से लोगों का मन मोहते थे। एक किस्म की सीधापन उनकी यूएसपी थी। उनकी बोलने की स्टाईल, कॉमेडी करने का ढंग और भावुक करने का अंदाज भी अलहदा था।
‘गोलमाल’ फिल्म के कई दृश्य सिर्फ अमोल के अभिनय की वजह से दर्शकों को याद हैं। अमोल एक संपूर्ण अभिनेता रहे हैं। ऐक्टिंग करने के साथ उन्होंने फिल्में लिखी भी हैं और निर्देशित भी की हैं। उनकी हर फिल्म पर एक अमोल पालेकर छाप देखने को मिलती है। थिएटर से आए अमोल ने यह राय और भी पुख्ता की कि अभिनय का ककहरा सीखने के लिए कलाकार को थिएटर की एबीसीडी आनी ही चाहिए।
अभिनय में कदम रखने से पहले ही अमोल पालेकर थिएटर जगत में निर्देशन में हाथ आजमा चुके थे। निर्देशक के रूप में उनकी एक अलग पहचान थी। उन्होंने नामचीन निर्देशक सत्यदेव दुबे के साथ मिलकर मराठी थिएटर में बहुत से नए प्रयोग किए। बासु चटर्जी, ऋषिकेश मुखर्जी और बासु भट्टाचार्य उनका नाटक देखने आया करते थे।
इसके बाद साल 1972 में उन्होंने अपना थिएटर ग्रुप ‘अनिकेत’ शुरू किया। थिएटर की दुनिया में ही उनकी मुलाकात बासु चटर्जी, ऋषिकेश मुखर्जी और बासु भट्टाचार्य की तिकड़ी से हुई जिनके साथ अमोल ने कई फिल्में कीं।
मन्नू भंडारी की चर्चित कहानी ‘यही सच है’ पर बासु चटर्जी ने ‘रजनीगंधा’ नाम से फिल्म बनाई। इस प्रेम त्रिकोण में अमोल की मुख्य भूमिका थी। यह अमोल पालेकर की पहली फिल्म थी। फिल्म चली और उनकी शांत ऐक्टिंग की हर कहीं तारीफ हुई। इसके बाद उनके पास ऐसी फिल्मों का अंबार लग गया।
‘छोटी सी बात’, ‘चितचोर’, ‘घरौंदा’, ‘मेरी बीवी की शादी’, ‘बातों-बातों में’, ‘गोलमाल’, ‘नरम-गरम’, ‘श्रीमान-श्रीमती’ जैसी कई यादगार फिल्में अमोल पालेकर ने दी। अमोल की भूमिका एक आदमी का प्रतिनिधित्व करने वाली रही। फिल्मों में उनके पहनावे भी आम आदमी के रहते। बहुत ही कम फिल्मों में उन्हें शूटेड-बूटेड दिखाया गया। उस दौर में अभिनेता नाचना शुरू कर चुके थे। पर अमोल का अंदाज वही रहा जिस अंदाज में संजीव कुमार, राजेन्द्र कुमार या मनोज कुमार डांस फिल्माया करते थे।
अमोल पालेकर का हास्य में कोई जोड़ नहीं था। उनका हास्य सिचुवेशनल होता था। ‘गोलमाल’ की डबल भूमिका में वह खूब जमे। यही हाल उनकी अन्य कॉमेडी फिल्मों का रहा। दर्शक अमोल की भूमिका याद करके बाद तक हंसते रहते। ‘रंग बिरंगी’, ‘श्रीमान श्रीमती’ और ‘नरम गरम’ में उन्होंने दर्शकों को खूब हंसाया। अमोल ने जो फिल्में डायरेक्ट की है उसमें भी अमोल का अंदाज वही रहा जैसा कि वह अभिनय में किया करते थे।
एक निर्देशक के रूप में अमोल ने कई फिल्मों को डायरेक्टर करने के साथ कुछ धारावाहिकों का भी निर्देशन किया। अमोल ने साल 1981 में मराठी फिल्म ‘आक्रित’ से फिल्म निर्देशन में कदम रखा। उनकी अंतिम निर्देशित फिल्म ‘पहेली’ रही। शाहरुख खान और रानी मुखर्जी के साथ बनाई गई यह फिल्म बहुत सफल नहीं रही है। इसके अलावा अमोल ने ‘थोड़ा सा रुमानी हो जाए’, ‘अनकही’ और ‘अनाहत’ जैसी फिल्मों का निर्देशन किया। फिल्मों के अलावा अमोल रंगमंच में भी सक्रिय रहे।
Legendary actor & filmmaker Amol Palekar and his wife joined the Padyatra with Rahul Gandhi today. pic.twitter.com/LGWj71F761
— Ankit Mayank (@mr_mayank) November 20, 2022