मिट्टी की उपज क्षमता और मौसम में बदलावों का सही
आंकड़ा जमा करने में लगी है कृषि क्षेत्र की नई स्टार्टअप
नई दिल्ली। पर्यावरण बदलाव की ज़ोख़िमों के अलावा भरोसेमंद आंकड़ों के अभाव में किसानों को कर्ज और फसल बीमा मिलने में भी तमाम मुश्किलें होती हैं. ऐसे में सैटस्योर और मैंटल लैब्स जैसी स्टार्टअप अब मिट्टी की उपज क्षमता और मौसम में बदलावों का सही आंकड़ा जमा करने में लगी है।
खाद्य सुरक्षा, कामगार, जीडीपी, गरीबी उन्मूलन, कृषि व्यवस्था, सूखा, पर्यावरण, कृषि कानून, कृषि तक़नीक़, कीटनाशक, जलवायु परिवर्तन, भूमिगत जल, क़िफ़ायती क़र्ज, अर्थव्यवस्था तेज़ी से आर्थिक आधुनिकीकरण की बदौलत पिछले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था ने आठ फ़ीसदी की दर से विकास की नई ऊंचाईयों को हासिल किया। फिर भी ग़रीबी उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को पूरा करने की कोशिशों में खेती की भूमिका बेहद अहम रही।
इस सत्य के बावज़ूद की भारतीय कामगारों की कुल तादाद के क़रीब 41 फ़ीसदी लोग खेती किसानी से जुड़े हैं। कृषि क्षेत्र का देश की जीडीपी में महज़ 15 फ़ीसदी योगदान है। और तो और किसान तमाम चुनौतियों का सामना करने पर मज़बूर हैं। यहां तक कि किसानों के पास कृषि संबंधी जानकारी की कमी है तो उनके सामने बाज़ार से जुड़ने के तरीक़ों का भी अभाव है।
सच्चाई तो ये भी है कि खेत से थाली तक की मौज़ूदा श्रृंखला में कई ख़ामियां हैं, ज़्यादा लंबा होने के साथ-साथ इसमें कई लोगों के हित साधने का सवाल भी आता है। जिसके चलते आख़िर में किसानों के पास ज़्यादा कुछ नहीं बच जाता। दूसरी ओर ढांचागत सुविधाओं की कमी और मंडी व्यवस्था ऐसी है कि किसानों को उनके उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिल पाता है। जिससे खेती के बाद उनकी उपज से उन्हें भारी नुक़सान सहने पर मज़बूर होना पड़ता है।
इसके साथ ही कृषि विकास का पर्यावरण पर भी असर पड़ता है। भारत 2,299 मिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करता है जिसमें खेती और मवेशियों का क़रीब पांचवां हिस्सा शामिल है। ज़्यादातर कृषि ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन उत्पादन के पहले चरण में होता है। जिसमें खेती से जुड़ी चीजें जैसे पानी, खाद और कीटनाशक दवाईयों का इस्तेमाल, खेती से जुड़े उपकरणों, मिट्टी में गड़बड़ी, सिंचाई और अवशिष्ट प्रबंधन शामिल हैं।
साल 1891 से 2009 के बीच भारत ने 23 बार गंभीर रूप से सूखा देखा है और हर बार पिछले सूखे की तुलना में इसकी तीव्रता ज़्यादा रही है। इस तरह के मौसम में तेज़ बदलाव के चलते फसलों की पैदावार को भारी नुक़सान पहुंचता है।
यही नहीं कृषि क्षेत्र पर पर्यावरण बदलाव के तहत बार-बार होने वाले सूखे, गर्म हवाओं और अनियमित बारिश का भी प्रतिकूल असर पड़ता है। तापमान में संभावित बदलाव, अवक्षेपण और कार्बन डाईऑक्साइड की सघनता का असर फसल के उत्पादन पर होता है। मौसम वैज्ञानिकों की मानें तो भारत में मौसम में बदलाव की वज़ह से तापमान में परिवर्तन की संभावना ज़्यादा है।
जिसके चलते जाड़े के दिनों में गर्मी के मौसम के मुक़ाबले ज़्यादा गर्मी का अनुभव होगा. साल 1891 से 2009 के बीच भारत ने 23 बार गंभीर सूखा का सामना किया है और हर बार पिछले सूखे की तुलना में इसकी तीव्रता ज़्यादा रही है। इस तरह के मौसम में तेज़ बदलाव के चलते फसलों की पैदावार को भारी नुक़सान पहुंचता है। इसके साथ ही भारत के पर्यावरण और सामाजिक परिवेश पर पहले से ही बढ़ती आबादी, आर्थिक और औद्योगिकीकरण के विस्तार का अतिरिक्त भार है। उद्योग धंधों को वापस पटरी पर लाने के लिए सरकार की तरफ़ से नीतियों में सुधार की कोई मांग लंबे समय से नहीं की गई है।