आज जयंती पर विशेष: फिल्मकार वी. शांताराम ने छह दशक लंबे
अपने फ़िल्मी सफर में हिन्दी-मराठी भाषा में उद्देश्यपूर्ण फिल्में बनाईं
एक समय जब भारतीय सिनेमा का प्रभुत्व पाश्चात्य जगत भी मानता था, चाहे अमेरिका हो या सोवियत संघ। उसका एक प्रमुख कारण वी शांताराम जैसे कुशल फिल्मकार भी थे। आज जिस जगह पर पुणे का चर्चित Film and Television Institute of India (FTII ) बना है, वहां पर कभी शांताराम की विश्वप्रसिद्ध प्रभात फिल्म कम्पनी चलती थी।
महाराष्ट्र के कोल्हापुर में 18 नवंबर 1901 को एक जैन परिवार में जन्मे वणकुद्रे राजाराम शांताराम ने बाबूराव पेंटर की महाराष्ट्र फ़िल्म कम्पनी में छोटे-मोटे काम से अपनी शुरुआत की थी।
शांताराम ने नाममात्र की शिक्षा पायी थी। उन्होंने 12 साल की उम्र में रेलवे वर्कशाप में अप्रेंटिस के रूप में काम किया था। कुछ समय बाद वह एक नाटक मंडली में शामिल हो गए।
शांताराम ने फ़िल्मों की बारीकियां बाबूराव पेंटर से सीखीं। बाबूराव पेंटर ने उन्हें ‘सौकारी पाश’ (1925) में किसान की भूमिका भी दी। तद्पश्चात वी शांताराम ने फ़िल्म निर्माण की कार्यकुशलता सीखते हुए इस क्षेत्र में कदम रखा और उनकी प्रथम फिल्म बतौर निर्देशक ‘नेताजी पालकर’ थी।
परंतु संतुष्ट होना शांता राम के व्यक्तित्व में नहीं था। इसके बाद उन्होंने वी.जी. दामले, के. आर. धाईबर, एम. फतेलाल और एस. बी. कुलकर्णी के साथ मिलकर ‘प्रभात फ़िल्म’ कंपनी का गठन किया। अपने गुरु बाबूराव की ही तरह शांताराम ने शुरुआत में पौराणिक तथा ऐतिहासिक विषयों पर फ़िल्में बनाईं।
लेकिन बाद में जर्मनी की यात्रा से उन्हें एक फ़िल्मकार के तौर पर नई दृष्टि मिली और उन्होंने 1934 में ‘अमृत मंथन’ फ़िल्म का निर्माण किया। शांताराम ने अपने लंबे फ़िल्मी सफर में कई उम्दा फ़िल्में बनाईं और उन्होंने मनोरंजन के साथ संदेश को हमेशा प्राथमिकता दी।
इसके अतिरिक्त गीत और संगीत शांताराम की फ़िल्मों का एक और मज़बूत पक्ष होता था। एक फ़िल्मकार के रूप में वह अपनी फ़िल्मों के संगीत पर विशेष ध्यान देते और उनका ज़ोर इस बात पर रहता कि गानों के बोल आसान और गुनगुनाने योग्य हो। शांताराम की फ़िल्मों में रंगमंच का पुट ज़रूर नज़र आता था, लेकिन वह अपनी फ़िल्मों से समाज को एक नई दृष्टि देने में कामयाब रहे।
हर फ़िल्म अपने वक़्त की कहानी बयां करती है, लेकिन उन्हें लगता है कि अब शांताराम की ‘पड़ोसी’ (1940) और ‘दो आंखें बारह हाथ’ जैसी जीवंत फ़िल्में दोबारा नहीं बनाई जा सकतीं। शांताराम की कुछ कृतियों की गुणवत्ता का मुक़ाबला आज भी नहीं किया जा सकता। क़रीब छह दशक लंबे अपने फ़िल्मी सफर में शांताराम ने हिन्दी व मराठी भाषा में कई सामाजिक एवं उद्देश्यपरक फ़िल्में बनाई और समाज में चली आ रही कुरीतियों पर चोट की।
उन्होंने 1933 में पहली रंगीन फ़िल्म ‘सैरंध्री’ बनाई। भारत में एनिमेशन का इस्तेमाल करने वाले भी वह पहले फ़िल्मकार थे। वर्ष 1935 में प्रदर्शित हुई फ़िल्म ‘जंबू काका’ (1935) में उन्होंने एनिमेशन का इस्तेमाल किया था। उनकी फ़िल्म ‘डॉ.कोटनिस की अमर कहानी’ विदेश में दिखाई जाने वाली पहली भारतीय फ़िल्म थी।
शांताराम ने प्रभात फ़िल्म के लिए तीन बेहद शानदार फ़िल्में बनाई। उन्होंने 1937 में कुंकुं (हिन्दी में दुनिया ना माने), 1939 में मानुष (हिन्दी में आदमी) और 1941 में शेजारी (हिन्दी में पड़ोसी) बनाई।
इसी बीच उनकी कंपनी द्वारा निर्मित ‘संत तुकाराम’ ने विश्वप्रसिद्ध बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में तहलका मचा दिया और सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी अर्जित किया।
तद्पश्चात शांताराम ने बाद में प्रभात फ़िल्म को छोड़कर राजकमल कला मंदिर का निर्माण किया। इसके लिए उन्होंने ‘शकुंतला’ फ़िल्म बनाई। इसका 1947 में कनाडा की राष्ट्रीय प्रदर्शनी में प्रदर्शन किया गया। शांताराम की बेहतरीन फ़िल्मों में से एक है ‘डॉ.कोटनिस की अमर कहानी’।
यह एक देशभक्त डॉक्टर द्वारकानाथ कोटनिस की सच्ची कहानी पर आधारित है जो सद्भावना मिशन पर चीन गए चिकित्सकों के एक दल का सदस्य था और Sino Japanese War के समय चीनियों की निश्छल सेवा करते करते वे वीरगति को प्राप्त हुए।
वी शांताराम एक चलते-फिरते संस्थान थे, जिन्होंने फ़िल्म जगत में बहुत सम्मान हासिल किया। फ़िल्म निर्माण की उनकी तकनीक और उनके जैसी दृष्टि आज के निर्देशकों में कम ही नज़र आती है।
उन्हें वर्ष 1957 में ‘झनक-झनक पायल बाजे‘ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया था। ये प्रथम ऐसी फिल्म थी, जो भारत में टेक्नीकलर पद्वति से बनी थी। उनकी कालजयी फ़िल्म ‘दो आंखें बारह हाथ‘ के लिए सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार प्रदान किया गया।
इस फ़िल्म ने बर्लिन फ़िल्म समारोह और गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड में भी झंडे गाड़े। अन्नासाहब के नाम से मशहूर शांताराम को वर्ष 1985 में भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जब बेटी को ही फिल्म से निकाल दिया था शांताराम ने
अब वी शांताराम जितने अतरंगी ऑनस्क्रीन थे, उतने ही ऑफस्क्रीन भी। स्वयं को अनुशासन में ऐसा बांधा कि आदर्शों पर आंच न आए इसलिए अपनी बेटी को भी नहीं छोड़ा। आज के समय में फिल्मी दुनिया में अपनों को जिस तरह से प्रमोट किया जाता है उनके लिए शांताराम जैसे दिग्गज फिल्मकारों का जीवन एक तमाचा समान होता।
इतना ही नहीं, वी शांताराम कास्टिंग में भी अपने धुन के पक्के थे। शांताराम ने 1967 में एक फिल्म बनाई थी ‘बूंद जो बन गई मोती’। इस फिल्म में जितेंद्र को लीड रोल में लिया था, लेकिन कम लोगों को पता होगा कि इस फिल्म में पहले लीड एक्ट्रेस मुमताज नहीं बल्कि शांताराम की बेटी राजश्री थीं।
कहते हैं कि प्रारंभ में शांताराम की बेटी राजश्री ही प्रमुख एक्ट्रेस थी, परंतु वह शूटिंग सेट पर पहले ही दिन देर से पहुंची। क्रोध से तमतमाए फिल्ममेकर ने अपनी बेटी को ही फिल्म से बाहर कर दिया और उनकी जगह मुमताज को कास्ट कर लिया।
उस समय मुमताज छोटे-मोटे रोल करने वाली बी ग्रेड की एक्ट्रेस मानी जाती थीं। जितेंद्र उनके साथ काम नहीं करना चाहते थे लेकिन शांताराम के सामने किसकी चलती। बाद में यही मुमताज हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की पॉपुलर एक्ट्रेस बन गईं।
शुरू हुआ बायोपिक का शानदार सिलसिला, ‘दो आंखें बारह हाथ’ ने जीता जहां
https://www.youtube.com/watch?v=C2tDlljMuwg
शांताराम राजाराम वनकुद्रे यानी वी शांताराम यानी भारतीय सिनेमा के एक ऐसे फिल्मकार रहे जिन्होंने सिनेमा अपने साथ सिनेमा को भी आगे बढ़ाया। शांताराम वह फिल्मकार हैं जिन्होंने सिनेमा में अपना काम तब शुरू किया जब देश में मूक फिल्में बनती थीं।
पहली बोलती फिल्म तो शांताराम ने नहीं बनाई लेकिन फिल्मों में तकनीक का इस्तेमाल सबसे पहले शुरू करने का श्रेय जरूर शांताराम को जाता है। उन्होंने अपने करियर में 90 से ज्यादा फिल्में बनाईं।
55 फिल्मों के वह निर्देशक रहे। भारत सरकार की तरफ से दिए जाने वाले सिनेमा के सबसे बड़े सम्मान दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से वी शांताराम को 1985 में सम्मानित किया गया। आज उनके जन्मदिन के मौके पर हम आपको उनकी कुछ बेहतरीन फिल्मों के बारे में बताते हैं।
दुनिया ना माने (1937)
वी शांताराम ने अपने करियर की शुरुआत से ही चुनौतीपूर्ण फिल्में बनाना शुरू किया था। ‘नेताजी पालकर’, ‘गोपाल कृष्ण’, ‘उदयकाल’ जैसी साइलेंट फिल्में बनाने के बाद शांताराम ने ‘अमृत मंथन’, ‘अमर ज्योति’ जैसी बेहतरीन बोलती फिल्में भी बनाईं। उनकी हर फिल्म का मुद्दा अलग ही रहता था।
शांताराम ने 1937 में फिल्म ‘दुनिया न माने’ बनाई। यह फिल्म हिंदी के साथ मराठी भाषा में भी ‘कुंकु’ शीर्षक से बनी है। इस फिल्म के साथ शांताराम ने भारतीय समाज में महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार पर हिम्मत दिखाकर प्रकाश डाला। साथ ही उन्होंने बाल विवाह का भी अपनी फिल्म में चित्रण किया। यह फिल्म उन्होंने वेनिस इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी दिखाई। इस फिल्म को हर जगह दर्शकों और समीक्षकों दोनों से ही सराहना मिली।
आदमी (1939)
शांताराम ने वर्ष 1939 में ‘आदमी’ नाम से एक ड्रामा फिल्म बनाई। मूल रूप से यह फिल्म मराठी में रही जिसका शीर्षक है ‘माणूस’। यह फिल्म ए भास्करराव की लिखी कहानी ‘द पुलिस कांस्टेबल’ पर आधारित है। यह कहानी भी एक ईमानदार पुलिस वाले की है जो एक वेश्या से प्रेम करने लगता है।
वह पुलिस वाला उस वैश्या को अपनाने के लिए तैयार है और वह उस वेश्या का काम भी छुड़वा देता है। प्रेम की वजह से वह पुलिस वाला भले ही उस वेश्या को अपना लेता है लेकिन समाज उसे कभी नहीं अपनाता। समाज की इस धारणा का ही शांताराम ने खूबसूरती से चित्रण किया है।
डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी (1946)
शांताराम ने अपनी पहली फिल्म ‘नेताजी पालकर’ वर्ष 1927 में महाराष्ट्र फिल्म कंपनी के बैनर तले बनाई जिसे मराठी की पहली बायोपिक माना जा सकता है।
इसके बाद फिर उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर प्रभात फिल्म कंपनी शुरू की। इस प्रोडक्शन हाउस के अंतर्गत उन्होंने वर्ष 1929 से लेकर 1941 तक कई फिल्में बनाईं। फिर उन्होंने प्रभात फिल्म कंपनी को छोड़ दिया और अपनी एक अलग प्रोडक्शन कंपनी राजकमल कालामंदिर शुरू की।
उनकी वर्ष 1946 में आई फिल्म ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी’ इसी नई कंपनी के अंतर्गत बनी। शांताराम ने यह बायोपिक फिल्म हिंदी के अलावा अंग्रेजी भाषा में भी बनाई जिसका अंग्रेजी में शीर्षक ‘द जर्नी ऑफ डॉक्टर कोटनीस’ रखा। इस फिल्म में शांताराम ने मुख्य भूमिका भी निभाई।
यह कहानी डॉक्टर कोटनीस की है जिसे द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान लड़ रहे सिपाहियों की मदद के लिए चीन भेज जाता है। कहानी में कई उतार-चढ़ाव आते हैं लेकिन अंत में डॉक्टर कोटनीस की मिर्गी का दौरा पड़ने से मौत हो जाती है। फिल्म में शांताराम की हीरोइन उनकी पत्नी जयश्री रहीं।
अमर भूपाली (1951)
वर्ष 1951 में आई ‘अमर भूपाली’ फिल्म का निर्देशन और निर्माण दोनों ही शांताराम ने किए हैं। यह भी एक बायोपिक जैसी ही है।
मराठी भाषा की इस फिल्म कहानी एक साधारण गायों के चरवाहे की है जो बेहतरीन कविता भी करता है। कहानी 19वीं सदी की शुरुआत की है जब देश के पश्चिम में मराठा शासन था।
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वह चरवाहा अपनी कविताओं से लोगों के अंदर इतना जोश भर देता है कि वह साहस दिखाकर अंग्रेजी शासन से लोहा लेने के लिए तैयार रहते हैं। शांताराम ने जब इस फिल्म को कांन्स फिल्म फेस्टिवल में दिखाया यो इसे ग्रैंड प्राइज ऑफ द फेस्टिवल की श्रेणी में नामांकन मिला।
सुबह का तारा (1954)
शांताराम ने 1954 में एक सामाजिक रोमांटिक ड्रामा फिल्म ‘सुबह का तारा’ भी बनाई। इस फिल्म का निर्देशन और निर्माण दोनों शांताराम ने किए और इसे लिखने का काम किया शम्स लखनवी ने। फिल्म की कहानी एक जवान विधवा औरत पद्मिनी की है जो अपनी बीमार मां को पाल रही है।
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फिल्म में जवान विधवा औरत का किरदार शांताराम की पत्नी जयश्री ने निभाया है। एक जवान आदमी मोहन (प्रदीप कुमार) उस विधवा से प्रेम करने लगता है।
हालांकि, वह उससे शादी नहीं कर पाता क्योंकि उसे एक विधवा से शादी करने की वजह से समाज का डर रहता है। इसी चक्कर में मोहन पागल हो जाता है। फिल्म में शांताराम ने भी एक शराबी का छोटा सा किरदार निभाया है। इस छोटे से किरदार को समीक्षकों और दर्शकों से बड़ी सराहना मिली।
झनक झनक पायल बाजे (1955)
शीर्षक के अनुसार यह कहानी दो नर्तकों की है। नीला एक मशहूर नर्तकी है जो मंगल की हवेली में एक बेहतरीन प्रस्तुति देती है। लेकिन, मंगल उस प्रतियोगिता में अपने बेटे गिरधर को भी उतार देता है। वह गिरधर से कहता है कि नीला को शास्त्रीय नृत्य का सही ढंग दिखाया जाए।
नीला गिरधर के साथ नृत्य करती है और उससे प्रेम करने लगती है। हालांकि, मंगल नीला को चाहता था लेकिन नीला उसके बेटे से प्यार करने लगी। नीला और गिरधर सब कुछ भूल कर सिर्फ प्रेम पर ध्यान देते हैं। लेकिन, मंगल को चिंता हो जाती है कि इनकी वजह से कहीं शास्त्रीय नृत्य दिक्कत में न आए।
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यहीं से शुरू होता है क्रूरता का खेल। फिल्म में नर्तकी का किरदार शांताराम की तीसरी पत्नी संध्या ने निभाया है। इस फिल्म ने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार और ऑल इंडिया सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट फॉर बेस्ट फीचर फिल्म जैसे पुरस्कार जीते। बॉक्स ऑफिस पर भी यह फिल्म सुपरहिट रही। शांताराम के निर्देशन में बनी यह फिल्म शुरुआत की चुनिंदा रंगीन फिल्मों में से एक है।
दो आंखें बारह हाथ (1957)
वर्ष 1957 में आई कालजयी फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ हर दृश्य के साथ दर्शकों को कुछ नैतिक शिक्षा देती है। यह बताती है कि कोई आदमी अगर किसी काम को करने की ठान लेता है तो वह कुछ भी कर सकता है।
सरल शब्दों में कहा जाए तो शांताराम के निर्देशन और निर्माण में बनी यह कॉमेडी ड्रामा फिल्म मानव की मानसिकता को प्रदर्शित करती है।
कहानी एक जेल वार्डन की है जो खूंखार अपराधियों को पैरोल पर रिहा कर देता है। भले ही वह अपराधी थे लेकिन जब वह वार्डन उन्हें एक बंजर भूमि पर छोड़ देता है तो उन अपराधियों को मेहनत का मतलब समझ में आता है। वह उस बंजर जमीन को उपजाऊ बनाकर फसल पैदा कर देते हैं।
इस फिल्म को दर्शकों और समीक्षकों से भारी सराहना मिली। फिल्म को आठवें बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया जहां इसने सिल्वर बेयर जीता और गोल्डन ग्लोब में नामांकन भी हासिल किया। लता मंगेशकर ने वह प्रतिष्ठित गीत ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम’ इसी फिल्म में गाया है।
नवरंग (1959)
शांताराम के निर्देशन में बनी फिल्म ‘नवरंग’ एक म्यूजिकल ड्रामा फिल्म है। इसे शांताराम की पत्नी संध्या की तरफ से इस फिल्म में दी गई एक नृत्य प्रस्तुति के लिए याद किया जाता है।
संध्या ने फिल्म में मुख्य भूमिका भी निभाई। फिल्म की कहानी एक कवि दिवाकर की है जो अपनी पत्नी जमुना से बहुत प्यार करता है।
वह उसके प्यार में इतना अंधा हो जाता है कि उसके लिए वह अपने ख्यालों की एक अलग दुनिया बसा लेता है। और, उसमें अपनी पत्नी जमुना का नाम सोचता है मोहिनी।
अपनी पत्नी के प्रति उसका यह मोह उसके घर के साथ उसके करियर को भी तबाह कर देता है। पार्श्व गायक महेंद्र कपूर ने इसी फिल्म के साथ अपने करियर की शुरुआत की।
सेहरा (1963)
शांताराम की फिल्मों में उनकी पत्नी संध्या ने खूब काम किया है। वर्ष 1963 में आई फिल्म ‘सेहरा’ में भी संध्या की मुख्य भूमिका में रहीं। यह फिल्म राजस्थान की पृष्ठभूमि पर आधारित है। फिल्म की कहानी दो समुदायों के बीच आपसी झगड़े की है।
झगड़ा तो इन समुदायों में पहले से ही चल रहा था लेकिन यह और भी बड़ा तब हो जाता है जब इन दोनों समुदायों के बच्चे एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं। इस फिल्म में एक छोटा सा किरदार मुमताज ने भी किया है।
शांताराम की यह पहली फिल्म है जिसने दो श्रेणियों में फिल्मफेयर पुरस्कार जीते। फिल्म को बेहतरीन रंगीन सिनेमैटोग्राफी के लिए न्यूली इंस्टिट्यूटेड एजे पटेल अवार्ड भी मिला जहां पुरस्कार स्वरूप थे पांच हजार रुपये नगद।
पिंजरा (1972)
शांताराम की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में साल 1972 में ‘पिंजरा’ भी एक रही। मूल रूप से यह एक मराठी फिल्म है लेकिन उसी साल शांताराम ने इसे हिंदी भाषा में भी रिलीज किया। जाने-माने रंगमंच के कलाकार श्रीराम लागू ने इस फिल्म से ही फिल्मों में अपने करियर की शुरुआत की।
इस फिल्म को भी अभिनेत्री संध्या की बेहतरीन नृत्य प्रस्तुति के लिए जाना जाता है। शांताराम की सबसे बेहतरीन फिल्मों में यह अंतिम है। फिल्म को समीक्षकों से तो अच्छी प्रतिक्रिया मिली ही, साथ ही दर्शकों से भी बहुत प्यार मिला। महाराष्ट्र के शहर पुणे में यह फिल्म लगातार 134 सप्ताह तक चलती रही।
यह कहानी एक स्कूल के अध्यापक और एक तमाशा करने वाली की है। ये दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं लेकिन झूठ बोल बोल कर अपने रिश्ते को समाज से छुपाते रहते हैं। मराठी फिल्मों में रंगीन सिनेमा की शुरुआत इसी फिल्म से मानी जाती है। इस फिल्म को मराठी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानते हुए अगले साल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला।