कला अकादमी द्वारा बिलासपुर में दो दिवसीय नाट्योत्सव का
समापन, भूपेंद्र साहू के निर्देशन में ‘भरथरी’ का हुआ नाट्य मंचन
बिलासपुर। कला अकादमी, छत्तीसगढ संस्कृति परिषद, संस्कृति विभाग की ओर से बिलासपुर में दो दिवसीय नाट्योत्सव का समापन रविवार 22 जनवरी की शाम छत्तीसगढ़ आयुर्विज्ञान संस्थान (सिम्स) सभागार में हुई। आखिरी दिन छत्तीसगढ़ में प्रचलित राजा भरथरी की लोकगाथा का नाट्य रूपांतरण मंचित हुआ।
अब तक भरथरी गायन, खास तौर पर सुरूज बाई खांडे के माध्यम से इस गाथा को लोग जानते थे लेकिन यह बिलासपुर शहर के लिए पहला अवसर था जब इसका नाट्य रूपांतरण कर मंचन किया गया।
मूल रूप से राजा भरथरी के एक भिक्षुक बन सर्वस्व त्यागने की कहानी को बेहद रोचक ढंग से आलेख, संगीत संयोजन एवं निर्देशन का दायित्व निभाने वाले भूपेंद्र साहू ने दर्शकों ने प्रस्तुत किया। कलाकारों ने अपने सधे हुए अभिनय से कहानी को आगे बढ़ाने में योगदान दिया।
निर्देशक साहू ने बताई नाट्य रूपांतर की वजह
शुरूआत में कला अकादमी के अध्यक्ष योगेंद्र त्रिपाठी ने निर्देशक भूपेंद्र साहू का सम्मान किया। भूपेंद्र साहू ने दर्शकों के सम्मुख अपनी बात रखते हुए बताया कि ‘भरथरी’ हमारी पुरातन परंपरा से चली आ रही है।
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सूरुज बाई खांडे जैसी सिद्धहस्त कलाकार की वजह से छत्तीसगढ़ में इस गायन स्वरूप में प्रदर्शित करने की शैली देश व दुनिया में गई। लेकिन गायन स्वरूप में कई बार श्रोता पूरी कहानी से खुद को जोड़ नहीं पाता, इसलिए उन्होंने इसे नाट्य स्वरूप में सामने लाने का प्रयास किया।
भूपेंद्र साहू ने बताया कि उन्हें भारत भवन भोपाल में रहने के दौरान कुछ किताबें पढ़ने का मौका मिला था, जिसके बाद भरथरी की कथा पर उनकी रूचि बढ़ी। इसके बाद उन्होंने सुरूज बाई खांडे के वीडियो-ऑडियो से इस कहानी को और समझने की कोशिश की।
भूपेंद्र ने दर्शकों को बताया कि उनके पिता और नाचा के कलाकार जीवनलाल साहू ने 1923 में प्रकाशित किताब दी थी, जिसमें छत्तीसगढ़ के संस्कृति कर्म पर महत्वपूर्ण जानकारी थी। इसके बाद उन्होंने इस पर काम शुरू किया और अब नतीजा दर्शकों के सामने है।
भूपेंद्र साहू ने बताया कि बिलासपुर के पहले इसका मंचन मुक्ताकाशी मंच संस्कृति विभाग रायपुर, इंदिरा कला संगीत विश्वविद्याल खैरागढ़ और गरियाबंद में किया जा चुका है। जिसमें दर्शकों ने उत्साहजनक प्रतिक्रिया दी।
दांपत्य की विरह वेदना के करुण स्वर सुनाई दिए प्रस्तुति में
लोकगाथा भरथरी में दांपत्य की विरह वेदना के करुण स्वर शामिल थे वहीं दूसरी ओर त्याग, तपस्या और संकल्प का भाव भी था। इस गाथा को मंच पर जीवंत करने में राजा भरथरी बने मिथुन ,रानी फुलवा (भरथरी की मां) बनीं भावना वाघमारे, भगवान गोरखनाथ बनें चंद्रहास बघेल, रानी सामदेयी (भरथरी की पत्नी) बनीं योगिता मढ़रिया, रानी रूपदेई (भरथरी की साली) बनीं जागेश्वरी मेश्राम/नीलम साहू, चंपा चेरी की भूमिका में तनु/नीलम साहू, काला मिरगा/सेउक की भूमिका में दीपक कुमार ध्रुव, मिरगिन के तौर पर तनु, निधि, नीलम, योगिता, सिंधु व जागेश्वरी, कथावाचक (बबा) बने त्रेता चंद्राकर, नाती बनें उत्तम साहू, गायन स्वर में राजेंद्र साहू, गंगा प्रसाद साहू, योगिता मढ़रिया, सिंधु सोन और वाद्य वृंद में भारत बघेल, सौरभ साहू, शिवम सेन, चंद्रभूषण साहू व गीतेश पटेल का योगदान रहा।
भारत भवन से फिल्मों तक में सक्रिय हैं भूपेंद्र
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के बारूका ग्राम में जाना भूपेंद्र साहू रंगमंडल भारत भवन भोपाल में बतौर कलाकार 13 वर्षों तक दूसरे देश के प्रसिद्ध रंग निर्देशकों एवं रंग विशेषज्ञों के साथ रंग कर्म कर चुके हैं। छत्तीसगढ़ी फिल्मों में बतौर गीत-संगीत संयोजन, पटकथा लेखन एवं निर्देशन का दायित्व संभाल चुके हैं।
जिसमें ‘मया देदे मया ले ले’, ‘परदेसी के मया’, ‘बैरी सजन’, ‘दइहान’ और ‘तोर मया के मारे’ आदि शामिल है। भूपेंद्र ने छत्तीसगढ़ के साथ-साथ महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश में लगभग 15 सौ से अधिक मंचीय प्रस्तुतियां दी है।
श्राप से मुक्ति के लिए राजा भरथरी को अपनी
पत्नी को मां कह कर मांगनी पड़ी भिक्षा
पत्नी को मां कह कर मांगनी पड़ी भिक्षा
गढ़ उज्जैनी नगर की महारानी फुलवा को उम्र के लगभग आखिरी पड़ाव में वरदानी पुत्र भरथरी प्राप्त होता है। जिसे अल्प आयु में ही बैरागी जीवन की नीति तय रहती है।
किशोरावस्था में ही भरथरी काले हिरण का शिकार करके शापित हो जाता है। भरथरी इस श्राप से मुक्ति हेतु गुरु गोरखनाथ के पास पहुंचता है। गुरु उसे कठोर साधना पश्चात श्राप से मुक्ति की बात कहते हैं साथ ही घर लौट कर गृहस्थ जीवन व्यतीत करने की बात कहते हैं।
महारानी फुलवा अपने पुत्र के भाग्य में निश्चित प्रारब्ध को जानते हुए भी हृदय पर पत्थर रख भरथरी का विवाह संपन्न कराती है।
दांपत्य जीवन की पहली ही रात घटित एक अप्रत्याशित घटना से भरथरी व्यथित होता है और सोने के पलंग के टूटने और उस पर पत्नी रानी सामने खिलखिला कर हंस देने पर राजा भरथरी भेद जानने को व्याकुल हो जाता है। भेद जानने के क्रम में राजा भरथरी अपनी पत्नी की बहन रूप देई के साथ सात जन्मों तक भटकता है।
अंततः रहस्य से पर्दा हटता है तब मालूम होता है कि उसकी पत्नी रानी सामदेई पिछले जन्म की उसकी मां है। सच्चाई जान लेने पर राजा भरथरी सर्वस्व त्याग कर गुरु गोरखनाथ की शरण में चला जाता है। इस सच को स्वीकारने के लिए गुरु गोरखनाथ भरथरी के समक्ष एक शर्त रखते हैं कि वह अपनी पत्नी को मां कह कर भिक्षा मांगे और उसकी पत्नी उसे बेटा कह कर भिक्षा दे।