आज 11 जुलाई कथाकार भीष्म साहनी की पुण्यतिथि
मोहम्मद जाहिद
प्रगतिशील और प्रतिबद्ध रचनाकार भीष्म साहनी का स्मरण, हिंदी की एक शानदार और पाएदार परम्परा को याद करना है। भीष्म साहनी की रचनाशीलता मुख़्तसर नहीं है, बल्कि इसका दायरा काफी वसीअ (विस्तृत) है।
उपन्यास, कहानियां, नाटक, आत्मकथा, लेख और कला की तमाम दीगर विधाओं में उन्होंने अपनी कलम निरंतर चलाई। उनके उपन्यास-‘तमस’, ‘झरोखे’, ‘मय्यादास की माड़ी’ और ‘नीलू, नीलिमा नीलोफ़र’। कहानी संग्रह-‘भाग्यरेखा’, ‘निशाचर’, ‘पाली’, ‘डायन’, ‘शोभायात्रा’, ‘वांडचू’, ‘पटरियां’, ‘भटकती राख’, ‘पहला पाठ’।
नाटक-‘कबिरा खड़ा बाज़ार में’, ‘हानूश’, ‘माधवी’, ‘मुआवज़े’। आत्मकथा-‘आज के अतीत’ को भला कौन भूल सकता है ? साल 1953 में भीष्म साहनी का पहला कहानी संग्रह ‘भाग्यरेखा’ प्रकाशित हुआ और इसके तीन साल बाद 1956 में दूसरा, ‘पहला पाठ’।
भीष्म साहनी Bhishma Sahni हमेशा मक़सदी अदब के कायल रहे। कहानी की शैली-शिल्प और भाषा से ज़्यादा उनका ध्यान इसके उद्देश्य पर रहता था। कहानी के मुतअल्लिक उनका नज़रिया था,‘‘कहानी में कहानीपन हो, उसमें ज़िंदगी की सच्चाई झलके, वह विश्वसनीय हो, उसमें कुछ भी आरोपित न हो, और वह जीवन की वास्तविकता पर खरी उतरे।’’
वहीं कहानी की भाषा के बारे में भीष्म साहनी का ख़याल था कि जहां ज़रूरी लगे वहां हिंदी की सहोदर भाषाओं और बोलियों का इस्तेमाल करना चाहिए। उनके मुताबिक ‘‘उत्तर भारत की भाषाएं एक-दूसरी से इतनी मिलती-जुलती हैं कि एक के प्रयोग से दूसरी भाषा बिगड़ती नहीं, बल्कि समृद्ध होती है।’’
यही वजह है कि भीष्म साहनी की सारी कहानियां हमें ज़िंदगी के करीब लगती हैं। उनमें कुछ भी अपनी ओर से थोपा हुआ नहीं लगता। उनकी कहानी-उपन्यास की भाषा से भी पाठक भावनात्मक तौर पर जुड़ जाते हैं। जिसमें वे पंजाबी शब्दों, वाक्यांशों के इस्तेमाल से बचते नहीं हैं। हिंदी, उर्दू के ज़्यादातर बड़े रचनाकारों ने अपने कथा साहित्य में इस परंपरा का निर्वाह किया है। फिर वे रेणु हों, चाहे राही, विजयदान देथा, यशपाल, कृष्णा सोबती, मोहन राकेश, कृष्ण बलदेव वैद।
साल 1957 से लेकर साल 1963 तक भीष्म साहनी मास्कों में विदेशी भाषा प्रकाशन गृह में अनुवादक के तौर पर कार्यरत रहे। इस दौरान उन्होंने करीब दो दर्ज़न किताबों जिसमें टॉल्सटॉय के उपन्यास भी शामिल हैं, का हिंदी में अनुवाद किया।
अनुवाद को भीष्म साहनी एक कला मानते थे, अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में इस विधा के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘‘अनुवाद कार्य भी एक कला है, पाठक को जो रस कहानी-उपन्यास को मूल भाषा में पढ़ने पर मिले, वैसा ही रस अनुवाद में भी मिले। तभी अनुवाद को सफल और सार्थक अनुवाद माना जाएगा।
शाब्दिक अनुवाद-जिसे मक्खी पर मक्खी बैठाना कहा जाता है, साहित्यिक कृतियों के लिए नहीं चल सकता।’’ अध्यापन और अनुवाद के अलावा भीष्म साहनी ने दो साल ‘नई कहानियां’ नामक पत्रिका का संपादन भी किया। उनका जुड़ाव प्रगतिशील लेखक संघ से तो था ही, ‘अफ्रो-एशियाई लेखक संघ’ से भी वे जुड़े रहे।
इस संगठन की पत्रिका ‘लोटस’ के कुछ अंकों का संपादन उन्होंने किया। ‘अफ्रो-एशियाई लेखक संघ’ से जुड़कर भीष्म साहनी दुनिया के कई मशहूर लेखकों मसलन फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश, दक्षिण अफ्रीका के एलेक्स ला गूमा, अंगोला के आगस्टीनो नेटो और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के संपर्क में आए।
अनेक अफ्रो-एशियाई देशों की यात्राएं कीं। उनको करीब से देखा-जाना। साहित्य, नाटक और संस्कृति के क्षेत्र में भीष्म साहनी के अविस्मरणीय योगदानों को देखते हुए उन्हें कई सम्मानों से नवाजा गया। साल 1975 में उपन्यास ‘तमस’ Tamas पर उन्हें ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार मिला। हिंदी अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान, तो साहित्य अकादमी ने उन्हें अपना महत्तर सदस्य बनाकर नवाज़ा।
भीष्म साहनी के लेखन का सम्मान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुआ। साल 1980 में उन्हें ‘अफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन’ का ‘लोटस अवार्ड’, तो साल 1983 में सोवियत सरकार ने अपने प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड’ से नवाज़ा। यही नहीं साल 1998 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ अलंकरण से विभूषित किया।
भीष्म साहनी ने अपनी ज़्यादातर कहानियां मध्य वर्ग के ऊपर लिखी हैं। मध्य वर्ग के सुख-दुःख, आशा-निराशा, पराजय-अपराजय उनकी कहानियों में खुलकर लक्षित हुई हैं। ‘चीफ की दावत’, ‘वांड्चू’, ‘ख़ून का रिश्ता’, ‘चाचा मंगलसेन’, ‘सागमीट’ जैसी उनकी कई कहानियां, हिंदी कथा साहित्य में ख़ास मुक़ाम हासिल कर चुकी हैं।
कहानी ‘चीफ़ की दावत’ साल 1956 में साहित्य की लघु पत्रिका ‘कहानी’ में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी को प्रकाशित हुए छह दशक से ज़्यादा हो गए, लेकिन यह कहानी आज भी मध्य वर्ग की सोच की नुमाइंदगी करती है। इस वर्ग की सोच में आज भी कोई ज़्यादा बड़ा फर्क नहीं आया है। भारत के बंटवारे पर हिंदी में जो सर्वक्षेष्ठ कहानियां लिखी गई हैं, उनमें से ज़्यादातर भीष्म साहनी की हैं।
उन्होंने और उनके परिवार ने ख़ुद बंटवारे के दुःख-दर्द झेले थे, यही वजह है कि उनकी कहानियों में बंटवारे के दृश्य प्रमाणिकता के साथ आएं हैं। कहानी ‘आवाजें’, ‘पाली’, ‘निमित्त’, ‘मैं भी दिया जलाऊंगा, मां’ और ‘अमृतसर आ गया है’ के अलावा उनका उपन्यास ‘तमस’ बंटवारे और उसके बाद के सामाजिक, राजनीतिक हालात को बड़े ही बेबाकी से बयां करता है। उपन्यास ‘तमस’ बंटवारे की पृष्ठभूमि, उस वक़्त के साम्प्रदायिक उन्माद और इस सबके बीच पिसते आम आदमी के दर्द को बयां करता है।
उनके उपन्यास ‘तमस’ के ऊपर जब निर्देशक गोविंद निहलानी ने ‘तमस’ शीर्षक से ही टेली सीरियल बनाया, तो इसे उपन्यास से भी ज़्यादा ख्याति मिली। इसकी मक़बूलियत का आलम यह था कि पूरे देश में लोग इस नाटक के प्रसारण का इंतज़ार करते। सीरियल को चाहने वाले थे, तो कुछ मुट्ठी भर कट्टरपंथी इस सीरियल के ख़िलाफ़ भी थे। उन्होंने सीरियल को लेकर देश भर में धरने-प्रदर्शन किए। यहां तक कि दूरदर्शन के दिल्ली स्थित केन्द्र पर हमला भी किया। लेकिन जितना इस सीरियल का विरोध हुआ, यह उतना ही लोकप्रिय होता चला गया।
‘झरोखे’ भीष्म साहनी Bhisham sahni का पहला उपन्यास था, जो उन्होंने सोवियत संघ से लौटकर लिखा था। इसके बाद उनका उपन्यास ‘कड़ियां’ आया। इन दोनों उपन्यासों को सम्पादक धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ में धारावाहिक रूप से छापा।
‘मय्यादास की माड़ी’ भीष्म साहनी का एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है। इस उपन्यास में उन्होंने बड़े ही विस्तार से यह बात बतलाई है कि किस तरह देश में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की स्थापना हुई। देशी शासक और सेनापति यदि विश्वासघात नहीं करते, तो देश कभी गुलाम नहीं होता। भीष्म साहनी का रंगमंच से भी शुरू से ही नाता रहा। इप्टा की स्थापना से ही वे अपने बड़े भाई बलराज साहनी के साथ इससे जुड़ गए थे। उन्होंने इप्टा के लिए न सिर्फ नाटक लिखे, अभिनय किया बल्कि कुछ नाटकों मसलन ‘भूतगाड़ी’, ‘कुर्सी’ का निर्देशन भी किया। कहानी और उपन्यास की तरह भीष्म साहनी के नाटक भी काफ़ी चर्चित रहे।
लेकिन उनके नाटक की शुरुआत बड़ी ठंडी रही। जब उन्होंने अपना पहला नाटक ‘हानूश’ लिखा, तो इसे अपने बड़े भाई बलराज साहनी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक इब्राहीम अलकाज़ी को दिखाया। लेकिन दोनों ने ही इस नाटक में न तो कोई दिलचस्पी ली और न उनका उत्साह बढ़ाया। बाद में इस नाटक को निर्देशक राजिंदरनाथ ने खेला।
नाटक खूब पसंद किया गया। ‘हानूश’ की कामयाबी के बाद भीष्म साहनी ने ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ लिखा, जिसे एमके रैना ने निर्देशित किया। इस नाटक ने ‘हानूश’ की सफलता की कहानी दोहराई। एमके रैना के नाट्य ग्रुप ने इस नाटक को दस साल तक लगातार खेला और आज भी जब इस नाटक का प्रदर्शन होता है, तो इसे दर्शक देखने के लिए टूट पड़ते हैं।
‘माधवी’, ‘आलमगीर’, ‘रंग दे बसंती चोला’ और ‘मुआवज़े’ भीष्म साहनी के दीगर चर्चित नाटक हैं। उनके सभी नाटकों में वैचारिक प्रतिबद्धता और समाज के प्रति दायित्व साफ़ नज़र आता है। नाटक ‘तमस’ हो या ‘हानूश’ या फिर ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ इन सभी नाटकों में एक बात समान है, यह नाटक धर्म और राजनीति के भयानक गठजोड़ पर प्रहार करते हैं।
उनके कई नाटकों में स्त्री विमर्श भी है। नाटक ‘माधवी’ और ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ स्त्रीवादी नज़रिए से लिखे गए हैं। नाटक के बारे में भीष्म साहनी की मान्यता थी, ‘‘नाटक में कही बात, अधिक लोगों तक पहुंचती है। दर्शकों के भीतर गहरे उतरती है। साहित्य से आगे सामान्यजनों तक बात पहुंचती है।’’
नाट्य लेखन के जरिए समाज को उन्होंने हमेशा एक संदेश दिया। प्रेमचंद की तरह भीष्म साहनी का भी यह मानना था कि लेखक राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है और अपनी इस बात को वे एक इंटरव्यू में इस तरह से सही ठहराते हैं,‘‘लेखक का संवेदन अपने समय के यथार्थ को महसूस करना और आंकना है।
अंर्तद्वंद्व और अन्तर्विरोध के प्रति सचेत होना है। इसी दृष्टि से उसकी पकड़ समाज के भीतर चलने वाले संघर्ष पर ज्यादा मजबूत होती है। और परिवर्तन की दिशा का भी भास होने लगता है। इसी के बल पर वह राजनीति से आगे होता है और पीछे नहीं।’’
भीष्म साहनी को एक लंबी उम्र मिली और उन्होंने अपनी इस उम्र का सार्थक इस्तेमाल किया। ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों तक वे सक्रिय रहे। बीमारी, शारीरिक दुर्बलता के बावजूद उन्होंने अपना लिखना-पढ़ना नहीं छोड़ा। वे सचमुच एक कर्मयोगी थे। 11 जुलाई, 2003 को भीष्म साहनी हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गए।