आज पुण्यतिथि पर विशेष
प्यार करते तो सब हैं, लेकिन सचमुच में प्यार करना और निभाना हर किसी को नहीं आता. प्यार में न्यौछावर हो जाना, मिट जाना, नमक की डली की तरह प्रेम में घुल जाना, एकाकार हो जाना हर किसी को नहीं आता. शशि कपूर को आता था.हर किसी की होती है एक प्रेम कहानी, लेकिन हर कहानी का हीरो शशि कपूर और हिरोइन जेनिफर केंडल नहीं होते…शशि कपूर और जेनिफर केंडल की लव स्टोरी
मनीषा पांडेय
संसार में शायद ही कोई मनुष्य ऐसा हो, जिसने जीवन में कभी प्रेम न किया हो. प्रेम वो तूफान है, जो समंदर के सैलाब, ज्वालामुखी के लावे और बुखार की तरह आता है. जब आता है तो आता ही है. उसके प्रवाह, उसके बल के आगे हर कोई नतमस्तक है.
जब उम्र आती है, जब हॉर्मोन्स शरीर में उबालें मारना शुरू करते हैं तो कोई न कोई तो ऐसा होता है, जिसकी मुहब्बत में दिल गिरफ्तार हो जाता है. इस प्रेम का बहुत सारा श्रेय तो प्रकृति को, हमारी जैविक संरचना को, जीवन की जरूरत को और कुल मिलाकर टेस्टेस्टेरॉन और एजेस्ट्रॉन को जाता है.
इस भरोसे और रास्ते से गुजरी प्रेम कहानियां भी सुंदर ही होती हैं, लेकिन वो ऐसी कहानियां नहीं, जिनके जिक्र भर से आपका सिर आदर और करुणा में झुक जाए. आत्मा पिघलकर नदी बन बह निकले.
क्योंकि प्यार करते तो सब हैं, लेकिन सचमुच में प्यार करना और निभाना हर किसी को नहीं आता. प्यार में न्यौछावर हो जाना, मिट जाना, नमक की डली की तरह प्रेम में घुल जाना, एकाकार हो जाना हर किसी को नहीं आता.शशि कपूर को आता था. संसार की अनगिनत प्रेम कहानियों में ये एक कहानी ऐसी है, जिसकी स्मृति भर से आपका सिर आदर से झुकता है. दुख से कातर हो उठता है.
शशि कपूर की जिंदगी को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है. जेनिफर के साथ और जेनिफर के बाद. जेनिफर के बाद शशि कपूर वो शशि कपूर नहीं रह गए थे, जो वो जेनिफर के साथ थे. मानो उनकी देह और आत्मा का एक हिस्सा हमेशा के लिए उनसे जुदा हो गया और वो फिर कभी संपूर्ण नहीं हो पाए.
जेनिफर की मृत्यु 1984 में हुई थी. उनके जाने के बाद शशि 33 साल जिंदा रहे, लेकिन उस तरह नहीं जैसे वो 1984 के पहले थे. वो पूरी जिंदगी जेनिफर को खोने के दुख से, उस अभाव से उबर नहीं पाए. वो दोबारा कभी वो नहीं हो पाए, जो वो पहले थे.
असीम छाबड़ा ने जो शशि कपूर की जीवनी लिखी है, “शशि कपूर: द हाउसहोल्डर, द स्टार” (Shashi Kapoor: The Householder, the Star) उसमें वो सिमी ग्रेवाल को कोट करते हैं, “जेनिफर ने शशि को जीत लिया था. शशि ने उनके सामने पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया.
शशि के व्यक्तित्व का एक बड़ा हिस्सा जेनिफर में समा गया. वो उसमें ही पूरी तरह विलीन हो गए. जेनिफर के जाने के बाद शशि ने अपने उस खोए हुए हिस्से को पाने के लिए बहुत संघर्ष किया, लेकिन दोबारा कभी नहीं पा सके.
उनके व्यक्तित्व का वह विशाल हिस्सा, जहां अब तक जेनिफर छाई हुई थीं, वो हिस्सा खाली हो गया था. एक कभी न भरा जा सकने वाला अनंत शून्य.
मैं एक बार उनसे लंदन में इस्माइल मर्चेंट के साथ डिनर पर मिली और देखा कि वो लड़खड़ा रहे थे. वह खुद में नहीं थे. शशि कपूर खुद से दूर हो चुके थे. वो दूरी, जो कभी भरी नहीं जा सकी.”
यूट्यूब पर मौजूद शशि कपूर के सारे इंटरव्यू देख लीजिए. 1984 से पहले के और 1984 के बाद के. ऐसा लगता है मानो दो अलग इंसानों को देख रहे हों. वो शोख हंसी, वो आत्मविश्वास, वो संपूर्णता का एहसास, वो भरा हुआ मन और जीवन, जो 1984 के पहले शशि कपूर के चेहरे पर दिखता था, वो उसके बाद पूरी तरह विलुप्त हो गया. शशि कपूर के बच्चों कुणाल और संजना ने अपने पिता के उस दौर को देखा है.
तकरीबन दो दशक पहले कुणाल कपूर ने एक इंटरव्यू में उस वाकये का जिक्र किया था, जब डेथ बेड पर पड़ी जेनिफर के पास शशि लंदन पहुंचे. जेनिफर को दुनिया भर के डॉक्टरों को दिखाया जा चुका था.
लाखों डॉलर खर्च करने के बाद भी डॉक्टर अपना आखिरी जवाब दे चुके थे. जेनिफर के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी.
शशि उनके सामने तो मजबूत बने खड़े रहे, लेकिन उस कमरे से निकलने के बाद वो बुरी तरह फूट-फूटकर रोए थे, दहाड़ें मारकर. लग रहा था कि शशि की सांस रुक जाएगी. बच्चों ने अपने ताकतवर, सफल, समृद्ध, मजबूत पिता को इतना कमजोर, निरीह और लाचार पहले कभी नहीं देखा था. कुणाल उस समय 25 साल के थे और छोटी बहन संजना सिर्फ 17 साल की.
हिंदी सिनेमा का अपने दौर का सबसे रोमांटिक हीरो, जिसके गालों के डिंपल और कमनीय मुस्कुराहट पर लड़कियां जान छिड़कती थीं, वो जिंदगी से बेजार हो रहा था.
जेनिफर की मृत्यु के बाद बहुत सारे लेखकों, पत्रकारों और संपादकों ने शशि कपूर की प्रेम कहानी जानने की कोशिश की. उस कहानी को किताब में दर्ज करने, लिखने की कोशिश, लेकिन शशि ने इस बारे में कभी बात नहीं की.
असीम छाबड़ा की किताब भी शशि कपूर की जीवनी से ज्यादा उनके सिनेमा का विश्लेषण है, जिसमें उनके दौर के अन्य अभिनेताओं, फिन्म निर्माताओं, कलाकारों, परिवार और मित्रों के उद्धरण तो आते हैं, लेकिन शशि के मुंह से सुनाई उनकी खुद ही कहानी नहीं आती क्योंकि शशि कपूर इस बारे में कभी बात ही नहीं करते.
ये रिश्ता उनके लिए इतना निजी और इतना पवित्र था कि वो इसे किसी के भी साथ बांटने को तैयार नहीं थे. दुनिया के साथ तो कतई नहीं. उनकी अपनी जिंदगी उनके लिए कोई ऐसी महान कहानी नहीं थी, जिसे दुनिया को सुनाना जरूरी था.
जिसे किताब में दर्ज किया जाता, किताब बिकती, लोग उनकी कहानी पर बात करते, उसका जिक्र करते, उस पर टीवी शो और इंटरव्यू होते. शशि इसके लिए कभी तैयार नहीं हुए. ये इतना निजी दुख, इतनी निजी क्षति थी कि संसार और समाज को इसका हिस्सा बनाकर वो इसे धूमिल नहीं करना चाहते थे.
1990 के आसपास के एक इंटरव्यू के दौरान एक विदेशी पत्रकार ने उनसे बार-बार जेनिफर कैंडल के बारे में सवाल पूछने की कोशिश की, उनकी लव स्टोरी के बारे में, लेकिन शशि हर बार पूरी विनम्रता और गरिमा से उस सवाल को टाल गए. उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा, “वो मेरी निजी चीज है. वो बांटने के लिए नहीं.”
एक बार अपने मन में झांककर देखिए, वो क्या है, जो हम कभी किसी से नहीं बांटते. किसी से नहीं कहते. वो सबसे गहरा दुख, सबसे गहरी चोट, सबसे निजी पीड़ा.
19 साल का एक नौजवान लड़का एक थिएटर शो के दौरान 24 साल की लड़की से मिलता है. ये सचमुच पहली ही नजर का प्यार था. शशि कपूर अभी भी बेमकसद, आवारा अपनी मंजिल की तलाश में भटक रहे थे.
27 फरवरी, 1934 को लंदन में जन्मी जेनिफर कैंडल तब तक ब्रिटिश थिएटर की मशहूर और स्थापित अदाकारा बन चुकी थीं. जेनिफर बड़ा नाम था और शशि अब भी गुमनाम. जेनिफर के पिता किसी हाल इस शादी के लिए राजी नहीं थे. वो शशि कपूर के देसी कपड़ों से लेकर उनकी हिंदुस्तानी एक्सेंट वाली अंग्रेजी तक का उनके मुंह पर मजाक उड़ाते. उन्हें लग रहा था कि ये इंडियन गंवार लड़का उनकी अंग्रेज, खूबसूरत और नफीस बेटी के लायक नहीं है.
हमें ऐसा लगता है कि शशि कपूर पृथ्वीराज कपूर के बेटे थे तो बड़े ऐशो-आराम और शानो-शौकत में पले होंगे. लेकिन ऐसा नहीं था. शशि की जेब में उस वक्त पैसे नहीं होते थे. जेनिफर की जेब में भी नहीं.
उनकी बेटी संजना कहती हैं- “जब मेरे पैरेंट्स डेट कर रहे थे तो उनकी आर्थिक हालत कोई बहुत अच्छी नहीं थी. वो कम सोते थे, कम खाते थे और सड़कों पर साथ भटकते हुए इस तलाश में रहते कि कोई कुछ सस्ता खाना मिल जाए. वो इस कोशिश में रहते कि एक सस्ता पराठा खरीदकर आधा-आधा खा लें.
उसी समय जब वो किसी महंगे रेस्त्रां के सामने से गुजरते तो देखते कि मेरे नाना जेफ्री कैंडल उस रेस्त्रां में महंगा भोज कर रहे हैं. उनके सामने ढेर सारे पकवान और बियर है.
लेकिन पिता उस रेस्त्रां में जा नहीं सकते थे. नाना उनके बॉस थे और पिता उनके मामूली कर्मचारी. वो अपने बॉस की बेटी को डेट कर रहे थे. उनके पास और कोई रास्ता नहीं था, सिवा इसके कि वो तूफान में कूद पड़ें.”
जब जेनिफर के पिता इस शादी के लिए नहीं मानें तो उन्होंने अपने पिता का घर और उनका खड़ा किया हुआ विशाल साम्राज्य छोड़ने का फैसला कर लिया. दोनों ने भागकर शादी कर ली. शशि तब 20 साल के थे और जेनिफर 25 की.
सबसे सुंदर बात ये है कि दोनों को कच्ची उमर में लिए गए अपने उस फैसले पर कभी अफसोस नहीं हुआ. उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, कभी उनका प्यार कमजोर नहीं पड़ा. जेनिफर की मौत के बाद भी शशि कपूर का कभी किसी और स्त्री के साथ अफेयर, प्रेम कुछ नहीं हुआ. वो अपनी मृत पत्नी की स्मृति के प्रति हमेशा निष्ठावान बने रहे.
कपूर खानदान की परछाई को छोड़ शशि ने
बनाई अलग पहचान, किरदारों को जीया
हिंदी सिनेमा के सदाबहार अभिनेता अभिनेता शशि कपूर पर कपूर खानदान की मुहर जरूर लगी थी लेकिन उन्होंने पिता पृथ्वीराज कपूर और बड़े भाईयों राज व शम्मी से हट कर अलग पहचान बनाई। 18 मार्च 1938 को जन्में शशि कपूर ने एक अभिनेता और निर्माता के तौर पर करीब 6 दशक तक सक्रियता बरती।
उन्हें 2011 में पद्मभूषण और 2015 में दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित किया गया। 4 दिसंबर 2017 को 79 की उम्र में शशि ने आखिरी सांस ली। शशि की पुण्यतिथि पर जानते हैं उनके कुछ बेहतरीन किरदारों के बारे में।
किरदार : राजा-फिल्म : जब जब फूल खिले (1965)
कश्मीर की हसीन वादियों में फिल्माई गई यह फिल्म शशि कपूर के लिए उनके करियर की पहली सबसे बड़ी हिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में शशि कपूर एक गरीब आदमी राजा के किरदार में नजर आए।
अमीर घराने की लड़की रीता खन्ना (नंदा) जब कश्मीर घूमने आती है, तो राजा उससे प्यार करने लगता है। बाद में आमिर खान की करिश्मा कपूर के साथ आई फिल्म ‘राजा हिंदुस्तानी’ भी इसी कहानी से प्रेरित है।
किरदार : विजय शर्मा-फिल्म : चोर मचाए शोर (1974)
अशोक रॉय के निर्देशन में बनी इस फिल्म में विजय शर्मा (शशि कपूर) एक इंजीनियर है, और वह एक अमीर पिता की लड़की रेखा (मुमताज) से प्यार करता है।
रेखा के पिता इस रिश्ते के लिए राजी नहीं होते, क्योंकि विजय अमीर नहीं है। उसे झूठे इल्जाम में फंसाकर जेल में कैद करवा दिया जाता है।
किरदार : रवि वर्मा-फिल्म : दीवार (1975)
‘मेरे पास मां है’ ये संवाद खुद में ही पूरा है। शशि कपूर के मुंह से फिल्म दीवार में ये जैसे प्रवाह में निकला, वैसे ही लोगों के जेहन में समा गया।
यह पूर्व और पश्चिम जैसे नजर आने वाले दो भाइयों की कहानी है, जिसे सलीम-जावेद की लीजेंड जोड़ी ने लिखा है। शशि कपूर का किरदार इंस्पेक्टर रवि वर्मा का है, जिसे वक्त आने पर अपने भाई को ही गोली मारनी पड़ती।
किरदार : विजय खन्ना-फिल्म : कभी कभी (1976)
यश चोपड़ा के निर्देशन में बनी इस फिल्म में शशि कपूर और अमिताभ बच्चन एक फिर साथ नजर आए। यहां इन दोनों का नाता सिर्फ इतना होता है कि अमित मल्होत्रा के रूप में अमिताभ बच्चन पूजा (राखी) से प्यार करते हैं।
पूजा की शादी उसके घरवाले विजय खन्ना (शशि कपूर) से कर देते हैं। शशि कपूर का अभिनय इस फिल्म में देखते ही बनता है।
किरदार : जावेद खान-फिल्म : जुनून (1978)
इस फिल्म में जावेद खान के रूप में शशि कपूर एक कबूतर पालक के रूप में नजर आए। अंग्रेजी सरकार जब भारत को कब्जाना शुरू करती है तो उसमें कुछ घटनाओं के बाद जावेद का दिमाग बदल जाता है।
वह रुथ (नफीसा अली) और उसके परिवार को बंदी बना लेता है। जावेद का किरदार बहुत महत्वाकांक्षी किस्म का है। इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया।
किरदार : राजीव-फिल्म : सत्यम शिवम सुंदरम (1978)
शोमैन राज कपूर के निर्देशन में बनी इस फिल्म में शशि कपूर ने एक इंजीनियर का किरदार निभाया है। एक हैंडसम इंजीनियर राजीव गांव में आता है। उसके पास वहां के बांध को सही करने का जिम्मा होता है।
वह गांव की लड़की रूपा (जीनत अमान) पर मोहित हो जाता है, जिसे वह गाना गाते हुए देखता है। इस फिल्म में राजीव रूपा से उसके शारीरिक अवगुणों को नजरअंदाज करते हुए प्यार करता है। यही इस फिल्म का संदेश भी है।
किरदार : शेखर गुप्ता-फिल्म : त्रिशूल (1978)
यह फिल्म तीन लोगों की कहानी के इर्द गिर्द घूमती है, जिनका आपस में बाप बेटे का रिश्ता है। शेखर के रूप में शशि कपूर ने एक ऐसे बेटे का किरदार निभाया है।
वह अपने पिता की कमियों को जानने के बाद पल भर में ही उनसे दूरियां बना लेता है। सही होने पर भी शेखर अपने सौतेले भाई विजय (अमिताभ बच्चन) का साथ भी पूरी तरह नहीं दे पाता।
किरदार : करण सिंह-फिल्म : कलयुग (1980)
श्याम बेनेगल के निर्देशन में बनी इस फिल्म को महाकाव्य महाभारत का कलयुगी वर्जन माना जाता है। कहानी जरूर अलग थी, लेकिन किरदारों का गठन लगभग वैसे ही किया गया।
शशि कपूर ने इसमें करण का किरदार निभाया, जो एक अनाथ होता है। ठीक महाभारत की तरह ही यहां भी करण को मजबूरन बुराई का हाथ पकड़कर आगे बढ़ना पड़ता है।
किरदार : राजा-फिल्म : नमक हलाल (1982)
राजा (शशि कपूर) एक होटल का मालिक है, जिसे वह अपनी मां के साथ मिलकर चलाता है। उसके होटल को हथियाने के लिए राजा को मारने आई नर्तकी निशा (परवीन बॉबी) से वह प्यार करने लगता है।
निशा भी राजा से प्यार करने लगती है, इसलिए वह उसे मार नहीं पाती। राजा बहुत ही होशियार और मजाकिया किस्म का किरदार है। वह हर किसी पर भरोसा नहीं करता और आने वाले खतरे को पहले ही भांप लेता है।
किरदार : विकास पांडे-फिल्म : न्यू डेल्ही टाइम्स (1986)
रमेश शर्मा के निर्देशन में बनी इस फिल्म में शशि कपूर के पत्रकार विकास पांडे के किरदार में नजर आए। विकास एक साहसी और क्रांतिकारी पत्रकार है, जो अपने घर को छोड़कर दिल्ली में आकर पत्रकारिता करने लगता है।
इसी नौकरी के दरमियान अपनी जान की परवाह न करते हुए विकास मीडिया और राजनेताओं के काले रिश्तों को उजागर करता है। इस फिल्म में शानदार अभिनय के लिए शशि कपूर को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया।