अलग पहचान बनाई है दुनिया भर में माटीपुत्रों के शिल्प ने
नई दिल्ली। देश के आदिवासी इलाकों के ये हैंडीक्राफ्ट्स handycraft, बड़े-बड़े शहरों से लेकर विदेशों तक पसंद किए जाते हैं, क्या आप जानते हैं इनके बारे में। जिस तरह देश के हर एक भाग की पहचान वहां की वेशभूषा और खान-पान से होती है, उसी तरह हमारे देश के दूर-दराज़ में बसनेवाली हस्तकलाएं भी वहां की पहचान ही हैं।
सालों पहले गांव और जंगलों के पास बसने वाले लोग आस-पास मिलने वाली चीजों को ही रोज़गार बना लेते थे। प्राकृतिक रूप से जो पास में मिलता था, उसे सुंदर हैंडीक्राफ्ट में बदलकर गांव के लोग आस-पास के शहरों में बेचते थे। धीरे-धीरे ये कलाएं गांव से शहर पहुंची और फिर शहर से विदेशों तक पहुंच गईं।
आज हम बड़ी-बड़ी दुकानों से सुंदर हैंडीक्राफ्ट्स खरीदते हैं, लेकिन हममें से कितने लोग जानते हैं कि ये सुन्दर प्रोडक्ट्स बने कहाँ हैं? तो चलिए आज जानें भारत के दूर-दराज़ इलाकों से आनेवाले मशहूर हैंडीक्राफ्ट्स के बारे में।
कोंडापल्ली खिलौने बनाए जाते हैं पौराणिक किरदारों पर
आंध्र प्रदेश (Andhra Pradesh) के कोंडापल्ली (Kondapalli) में बरसों से पौराणिक किरदारों पर खिलौने बनाए जा रहे हैं। इसी जगह विशेष की वजह से इन्हें कोंडापल्ली खिलौना Kondapall toys कहा जाता है।
इन खिलौनों का इतिहास तकरीबन 400 साल पुराना बताया जाता है, लेकिन खिलौना बनाने की यह संस्कृति पौराणिक काल से ही है। कलाकार इन्हें बनाते और रंग भरते हुए बारीक कारीगरी का इस्तेमाल करते हैं।
तेल्ला पोनिकी पेड़ की लकड़ी से बनने वाले ये खिलौने देश-विदेश तक मशहूर हैं और इन्हें जीआई टैग भी मिला है।
कई धातुओं के मिश्रण से चमक उठती है छत्तीसगढ़ की ढोकरा शिल्प कला
ढोकरा कला, दस्तकारी की एक प्राचीन कला है। छत्तीसगढ़ (chhattisgarh) के बस्तर (Bastar) ज़िले के कोंडागाँव (Kondagoan) के कारीगर ढोकरा मूर्तियों पर काम करते हैं, जिसे पुरानी मोम-कास्टिंग तकनीक से बनाया जाता है और इस कला में तांबा, जस्ता व रांगा (टीन) आदि धातुओं के मिश्रण की ढलाई करके मूर्तियाँ और अन्य सजावटी सामान बनाए जाते हैं।
धातुओं से जानवरों और राजारानी की मूर्तियां आदि बनाई जाती हैं। बड़ी-बड़ी दुकानों में ये आर्ट पीस काफी महंगे मिलते हैं, लेकिन इन्हे बनाने वाले छत्तीसगढ़ के आदिवासी हैं और यही उनका मुख्य व्यवसाय भी है।
माजुली में मुखौटा बनाया जाता है बांस और दूसरे कुदरती सामानों से
असम (Asam) की ब्रह्मपुत्र नदी में बना यह द्वीप यहां बनाए जाने वाले मुखौटों (Mask) के लिए भी मशहूर है। आमतौर पर मिलने वाले मुखौटों की तरह इसमें प्लास्टर ऑफ़ पेरिस का उपयोग नहीं किया जाता, बल्कि बांस और स्थानीय प्राकृतिक चीजों से इसे असम के आदिवासी बनाते हैं।
कारीगर इससे अलग-अलग जानवरों और देवी-देवताओं के मास्क बनाते हैं, जिन्हें स्थानीय नाटक के साथ-साथ कई बड़े-बड़े विदेशी कार्यक्रमों में भी उपयोग में लिया जाता है।
इसकी लोकप्रियता का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि इन मुखौटों को देश के अलावा, विदेशों के भी कई संग्रहालयों में रखा गया है।
धान की भूसी से तैयार ओडिशा का पैडी क्राफ्ट जमा रहा अपनी धाक
ओडिशा (Odisha)में धान की खेती सबसे ज्यादा की जाती है, ऐसे में धान से निकलने वाली भूसी से मूर्तियां बनाकर यहां के आदिवसियों ने अपने रोजगार का एक जरिया बनाया था। इस पैडी क्राफ्ट (Paddy Craft) को ‘धान मूर्ति’ भी कहा जाता है। यह कला ओडिशा की धान शिल्प के रूप में देश भर में मशहूर है।
इन सुंदर मूर्तियों को बनाने के काम में राज्य के बालासर और बोलांगीर सहित कई जिले के आदिवासी लोग सालों से लगे हैं। इसके पीछे सालों का इतिहास है कि कैसे यह कला गांव से निकलकर शहरों में गई और शहरों से विदेशों तक।
पैडी क्राफ्ट हर एक हैंडी क्राफ्ट मेले में दिख ही जाते हैं। ओडिशा घूमने गया हर एक इंसान एक धान मूर्ति लिए बिना वापस नहीं आता।
‘पकी हुई धरती’ की छाप है बंगाल की टेराकोटा मूर्तियों में
पश्चिम बंगाल (West Bengal)कई अनूठी कलाओं और शिल्पों के लिए प्रसिद्ध है, जो इसकी संस्कृति को एक विशिष्ट पहचान देते हैं। टेराकोटा (Teracota) शब्द लैटिन शब्द “टेरा कोक्टा” से लिया गया है, जिसका अर्थ ‘पकी हुई धरती’ होता है। यह मिट्टी को सुंदर डिजाइनों में आकार देने और फिर उन्हें उच्च तापमान पर पकाने की कला है।
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद, बीरभाम, जेसोर, हुगली और दीघा शहरों में कई टेराकोटा आर्टिस्ट हैं। इसकी शुरुआत की बात करें, तो 16वीं शताब्दी में, इसे भी भगवान की मूर्तियां बनाने के रूप में शुरू किया गया था।
बाद में, इससे सजावटी सामान और अब तो टेराकोटा ज्वेलरी भी काफी लोकप्रिय है। विदशों में भी लोग ऑनलाइन ऑर्डर करके इन बेहतरीन टेराकोटा प्रोडक्ट्स को मंगवाते हैं।
असम की बांस और बेंत संस्कृति की धूम मची है देश व दुनिया में
आज हर जगह ईको-फ्रेंडली प्रोडक्ट्स के लिए लोग बांस (Bamboo)का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन सालों से हमारे देश के कई इलाको में बांस से बने कई तरह के प्रोडक्ट्स बनाए जा रहे हैं।
असम की पहचान जापी टोपी (Japi cap) को बांस से ही नक्काशी करके बनाया जाता है। असम सहित नार्थ ईस्ट के कई राज्यों में बांस की वस्तुओं का चलन काफी ज्यादा है। बांस के पतले-पतले वायर बनाकर इससे टोपी, बास्केट यहां तक कि घर भी बनाए जा रहे हैं।
असम के 26 जिलों में 400 से भी ज्यादा गावों में बांस से चीजें बनाई जाती हैं और देश-विदेश में भेजी जाती हैं। यह, यहां का मुख्य कुटीर उद्योग भी है।
यानी यह कहना गलत नहीं होगा कि बड़े शहरों में या किसी ईको-फ्रेंडली दुकान में मिलने वाले बांस के प्रोडक्ट्स असम के किसी गांव में ही बने होंगे। इसके अलावा भी कई ऐसे छोटे-छोटे क्राफ्ट हैं, जिससे स्थानीय लोग अपना रोजगार चला रहे हैं और सालों पुरानी धरोहरों को भी बचा रहे हैं।