रायपुर। नया साल बस अब से चंद घंटे दूर है, लोग अभी से जश्न के मूड में आ चुके हैं. नए साल का खुमार दो-तीन दिन ही नहीं बल्कि सप्ताह भर तक रहेगा. ऐसे में हो सकता है आपका मन करे कि प्रदेश के सबसे पुराने पर्यटन स्थलों में से एक तांदुला बांध घूमकर आ जाएं तो सावधान हो जाए. आपको थोड़ी नहीं बल्कि बहुत निराशा हाथ लगेगी.
स्थानीय प्रशासन ने लोगों की बांध में तीज-त्योहार और छुट्टियों में बड़ी संख्या में लोगों की आमद को देखते हुए प्राइवेट पार्टी को सारी चीजें ठेके पर दे दी है. प्राइवेट रिसॉर्ट, प्राइवेट वाटर पार्क, प्राइवेट होटल, प्राइवेट बोटिंग… बस प्रशासन तांदुला बांध को प्राइवेट नहीं कर पाए. अधिकारियों का बस चलता तो उसको भी प्राइवेट कर देते, लेकिन क्या करें, इसलिए मजबूरी है.
आप अगर परिवार के साथ जा रहे हैं और प्राइवेट रिसॉर्ट में ठहरने की सोचेंगे तो मुश्किल होगा, क्योंकि बजट पुरी और विशाखापट्टनम जैसे प्रसिद्ध स्थलों के सामान्य होटलों के किराए से भी ज्यादा देना पड़ेगा. वाटर पार्क का मजा लेना चाह रहे हों तो उसके लिए रायपुर या आपके शहर के आस-पास स्थित वाटर पार्क से ज्यादा पैसा ढिला करना पड़ जाएगा.
अगर आप बोटिंग का मजा लेना चाह रहे हों तो उसके लिए भी आपके साथ कितने लोग हैं, और कितने लोग बोटिंग की जिद कर रहे हैं, इसका देखना पड़ जाएगा, क्योंकि 100-50 रुपए का मामला नहीं है. और अगर खाने-पीने की व्यवस्था वहां अच्छी सोचकर बिना कुछ लिए घर से निकल रहे हैं तो भी सावधान हो जाइए. पीने की नहीं खाने की ही व्यवस्था है, लेकिन वह भी आपको भारी पड़ सकती है. आपको सरकारी नारा भी याद आ सकता है कि बच्चे दो ही अच्छे.
यह बात हवा-हवाई नहीं है, हकीकत है, जिसे तांदुला बांध जाने वाले बयां करते हैं. दुर्ग से तांदुला बांध की सैर करने पहुंचे शर्मा परिवार बताते हैं कि बच्चों को मिनी गोवा जा रहे हैं कहकर आए थे, लेकिन यहां तो गोवा का कहीं कोई लुक नजर नहीं आया. बांध के इर्द-गिर्द कायदे से बैठने के लिए भी जगह नहीं है. होटल के सामने का हरे-भरे मैदान में बैठकर खाना खा सकते हैं, लेकिन सैर-सपाटे के लिए या बांध का नजारा देखने के लिए क्या करें.
पेशे से व्यवसायी प्रद्मुन शर्मा बताते हैं कि बांध के समीप बस एक जगह बस तंबू तान दिया गया है, जिसमें गिनती के छह लोग ही बैठ सकते हैं. बाकी लोग घूमते रहते हैं. बोटिंग का किराया पर हेड 200 रुपए है. वाटर पार्क में पर हेड 500 रुपए चार्ज कर रहे हैं. होटल भी खर्चीला है. भला हो पत्नी का, जो घर से थोड़ा-बहुत बनाकर ले आई थी. उसी को खाकर, थोड़ा बांध को देखकर दोबारा कभी नहीं आने का प्रण लेते हुए अब रवानगी डाल रहे हैं.
यह दर्द अकेले प्रद्मुन शर्मा या उनके परिवार का नहीं, बल्कि तांदुला बाँध आने वाले तमाम सामान्य परिवार के लोगों का है. प्रशासन चाहता तो वाकई में इसी मिनी गोवा बना सकता था, लेकिन लाचारी कहें, मजबूरी कहें, या निकम्मापन, जो तांदुला को निजी बांध की व्यवस्था को निजी हाथों में सौंपकर बैठ गया है. कभी कोई जिम्मेदार अधिकारी यहां झांकने तक नहीं आता है. अगर आता तो ऐसी अव्यवस्था देखने को नहीं मिलती.