फ़िल्मी दुनिया में राजेन्द्र कृष्ण वे गीतकार हैं, जिन्होंने हिंदी फ़िल्मों की कहानी, स्क्रिप्ट और संवाद भी लिखे। हर मैदान में वे कामयाब रहे। लेकिन राजेन्द्र कृष्ण के चाहने वालों में उनकी पहचान गीतकार की ही है।
चार दशक तक उनका फ़िल्मों में सिक्का चला। इस दरमियान उन्होंने ऐसे नायाब गीत लिखे, जो आज भी उसी तरह से पसंद किए जाते हैं। उनके लिखे गीतों का कोई जवाब नहीं। वे सचमुच लाजवाब हैं।
गीतकार राजेंद्र कृष्ण और गीतकार राजा मेहदी अली खान ने आजादी के बाद भारतीय हिंदी फिल्म जगत को नायाब गीत दिए। दोनों के गीतों की गूंज देश और दुनिया में रही। संयोग से राजेंद्र कृष्ण की पुण्यतिथि और राजा मेहंदी अली खान की जयंती एक ही दिन 23 सितंबर को है। इस खास मौके पर स्तंभकार मोहम्मद जाहिद की कलम से इन दोनों हस्तियों पर यह खास लेख-
मोहम्मद जाहिद
राजेंद्र कृष्ण का पूरा नाम राजेंद्र कृष्ण दुग्गल था। उनकी पैदाइश 6 जून 1919 को जलालपुर ब्रिटिश भारत में हुई थी। वहीं फिल्म नगरी मुंबई में 23 सितंबर 1987 को उन्होंने आखिरी सांस ली। उन्हें बचपन से ही शेर-ओ-शायरी का जु़नूनी शौक था। अपना शौक पूरा करने के लिए वे स्कूल की किताबों में अदबी रिसालों को छिपाकर पढ़ते।
यह शौक कुछ यूं परवान चढ़ा कि आगे चलकर ख़ुद लिखने भी लगे। पन्द्रह साल की उम्र तक आते-आते उन्होंने मुशायरों में शिरकत करना शुरू कर दिया। जहां उनकी शायरी ख़ूब पसंद भी की गई। शायरी का शौक अपनी जगह और ग़म-ए-रोज़गार का मसला अलग। लिहाज़ा साल 1942 में शिमला की म्युनिसिपल कार्पोरेशन में क्लर्क की छोटी सी नौकरी कर ली।
लेकिन उनका दिल इस नौकरी में बिल्कुल भी नहीं रमता था। नौकरी के साथ-साथ उनका लिखना-पढ़ना और मुशायरों में शिरकत करना जारी रहा। यह वह दौर था, जब सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर मुशायरों-कवि सम्मेलनों की बड़ी धूम थी। इन मुशायरों की मक़बूलियत का आलम यह था कि हज़ारों लोग इनमें अपने मनपसंद शायरों को सुनने के लिए दूर-दूर से आते थे।
शिमला में भी उस वक्त हर साल एक अज़ीमुश्शान ऑल इंडिया मुशायरा होता था, जिसमें मुल्क भर के नामचीन शायर अपना कलाम पढ़ने आया करते थे। साल 1945 का वाक़िया है, मुशायरे में दीगर शोअरा हज़रात के साथ नौजवान राजेंद्र कृष्ण भी शामिल थे। जब उनके पढ़ने की बारी आई, तो उन्होंने अपनी ग़ज़ल का मतला पढ़ा, ‘‘कुछ इस तरह वो मेरे पास आए बैठे हैं/जैसे आग से दामन बचाए बैठे हैं’’।
ग़ज़ल के इस शे’र को ख़ूब वाह-वाही मिली। दाद देने वालों में जनता के साथ-साथ जिगर मुरादाबादी की भी आवाज़ मिली। शायर-ए-आज़म जिगर मुरादाबादी की तारीफ़ से राजेन्द्र कृष्ण को अपनी शायरी पर एतमाद पैदा हुआ और उन्होंने शायरी और लेखन को ही अपना पेशा बनाने का फ़ैसला कर लिया। एक बुलंद इरादे के साथ वे शिमला छोड़, मायानगरी मुंबई में अपनी किस्मत आज़माने जा पहुंचे।
फ़िल्मी दुनिया में काम पाने के लिए राजेन्द्र कृष्ण को ज़्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी। उन्हें सबसे पहले फ़िल्म ‘जनता’ की पटकथा लिखने को मिली। यह फ़िल्म साल 1947 में रिलीज हुई। उसी साल उनकी एक और फिल्म ‘जंज़ीर’ आई, जिसमें उन्होंने दो गीत लिखे। लेकिन उन्हें असल पहचान मिली फ़िल्म ‘प्यार की जीत’ से।
साल 1948 में आई इस फ़िल्म में संगीतकार हुस्नलाल भगतराम का संगीत निर्देशन में उन्होंने चार गीत लिखे। फ़िल्म के सारे गाने ही सुपर हिट हुए। ख़ास तौर पर अदाकारा सुरैया की सुरीली आवाज़ से राजेन्द्र कृष्ण के गाने ‘तेरे नैनों ने चोरी किया मेरा छोटा सा जिया परदेसिया’ में जादू जगा दिया। गाना पूरे देश में ख़ूब मक़बूल हुआ। साल 1948 में ही राजेन्द्र कृष्ण ने एक और गीत ऐसा लिखा, जिससे वे फ़िल्मी दुनिया में हमेशा के लिए अमर हो गए। 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हुई। बापू की इस हत्या से पूरा देश ग़मगीन हो गया।
राजेन्द्र कृष्ण भी उनमें से एक थे। बापू के जानिब अपने जज़्बात को उन्होंने एक जज़्बाती गीत ‘सुनो सुनो ऐ दुनियावालों बापू की ये अमर कहानी’ में ढाला। तक़रीबन तेरह मिनिट के इस लंबे गीत में महात्मा गांधी का पूरा ज़िंदगीनामा है। मोहम्मद रफी की दर्द भरी आवाज़ ने इस गाने को नई ऊंचाईयां पहुंचा दी। आज भी ये गीत जब कहीं बजता है, तो देशवासियों की आंखें नम हो जाती हैं।
हिंदी फिल्मों में राजेन्द्र कृष्ण के गीतों की कामयाबी का सिलसिला एक बार शुरू हुआ, तो उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक के बाद एक उनकी ऐसी कई फ़िल्में आईं, जिनके गीतों ने ऑल इंडिया में धूम मचा दी। साल 1949 में फिल्म ‘बड़ी बहन’ में उन्हें एक बार फिर संगीतकार हुस्नलाल भगतराम के संगीत निर्देशन में गीत लिखने का मौक़ा मिला। इस फ़िल्म के भी सभी गाने हिट हुए। ख़ास तौर पर ‘चुप-चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है, पहली मुलाक़ात है ये पहली मुलाक़ात है’ और ‘चले जाना नहीं..’ इन गानों ने नौजवानों को अपना दीवाना बना लिया।
सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर की आवाज़ ने इन गीतों में वह कशिश पैदा कर दी, जो आज भी दिल पर असर करती है। फ़िल्म ‘बहार’ (साल-1951) में शमशाद बेगम का गाया गीत ‘सैंया दिल में आना रे, ओ आके फिर न जाना रे’ भी ख़ूब मक़बूल हुआ। इन गानों ने राजेन्द्र कृष्ण को फ़िल्मों में गीतकार के तौर पर स्थापित कर दिया। साल 1953 में फ़िल्म ‘अनारकली’ और साल 1954 में आई ‘नागिन’ में उनके लिखे सभी गाने सुपर हिट साबित हुए। इन गानों की कामयाबी ने राजेन्द्र कृष्ण के नाम को देश के घर-घर तक पहुंचा दिया।
फ़िल्म ‘अनारकली’ में यूं तो उनके अलावा तीन और गीतकारों जांनिसार अख़्तर, हसरत जयपुरी, शैलेन्द्र ने गीत लिखे थे, लेकिन राजेन्द्र कृष्ण के लिखे सभी गीत बेहद पसंद किए गए। ‘ज़िंदगी प्यार की दो-चार घड़ी होती है..’, ‘जाग दर्दे-ए इश्क जाग’, ‘ये ज़िंदगी उसी की है’ और ‘मोहब्बत में ऐसे क़दम डगमगाए’ उनके लिखे गीतों को हेमंत कुमार और लता मंगेशकर की जादुई आवाज़ ने नई बुलंदियों पर पहुंचा दिया। इसी फ़िल्म से उनकी जोड़ी संगीतकार सी. रामचंद्रा के साथ बनी। इस जोड़ी ने आगे चलकर कई सुपर हिट फ़िल्में ‘पतंगा’, ‘अलबेला’, ‘पहली झलक’, ‘आज़ाद’ आदि दीं। इन फ़िल्मों में लता मंगेशकर द्वारा गाये गए गीत खूब लोकप्रिय हुए।
फ़िल्म ‘नागिन’ की कामयाबी के पीछे भी राजेन्द्र कृष्ण के गीतों का बड़ा योगदान था। इस फ़िल्म में उन्होंने एक से बढ़कर एक गीत ‘मन डोले, तन डोले, मेरे दिल का गया क़रार रे’, ‘मेरा दिल ये पुकारे आजा’, ‘जादूगर सैयां छोड़ मोरी बैयां’ लिखे। संगीतकार हेमंत कुमार के शानदार संगीत और लता मंगेशकर की आवाज़ ने इन गीतों को जो ज़िंदगी दी, वह आज भी इसके चाहने वालों के दिलों में धड़कन की तरह धड़कते हैं। सरल, सहज ज़बान में लिखे राजेन्द्र कृष्ण के गीत लोगों के दिलों में बहुत ज़ल्द ही अंदर तक उतर जाते थे।
जहां उन्हें मौक़ा मिलता, उम्दा शायरी भी करते। संगीतकार मदन मोहन के लिए उन्होंने जो गाने लिखे, वह अलग ही नज़र आते हैं। मिसाल के तौर पर फ़िल्म ‘अदालत’ में राजेन्द्र कृष्ण ने एक से बढ़कर एक बेमिसाल ग़ज़लें ‘उनको ये शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहते’, ‘जाना था हमसे दूर बहाने बना लिये’ और ‘यूं हसरतों के दाग़ मुहब्बत में धो लिये’ लिखीं। अपनी मख़मली आवाज़ से पहचाने जाने वाले सिंगर तलत महमूद के जो सुपर हिट गीत हैं, उनमें से ज़्यादातर राजेन्द्र कृष्ण के लिखे हुए हैं। यकीं न हो तो ख़ुद ही देखिए ‘ये हवा ये रात ये चांदनी तेरी इक अदा पे निसार है’ (फ़िल्म-संगदिल), ‘हमसे आया न गया, तुमसे बुलाया न गया’ (फ़िल्म-देख कबीरा रोया), ‘आंसू समझ के क्यूं मुझे आँख से तुमने गिरा दिया’ (फ़िल्म-छाया), ‘फिर वही शाम वही ग़म वही तनहाई है’, ‘मैं तेरी नज़र का सुरूर हूं, तुझे याद हो के न याद हो’ (फ़िल्म-जहाँआरा)।
फ़िल्म की हर सिचुएशन पर राजेन्द्र कृष्ण को गीत लिखने की महारत हासिल थी। ज़िंदगी के हर रंग और हर भाव पर उन्होंने गीत लिखे। ये सभी गीत सुपर हिट हुए। उनके सुपर हिट गीतों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है, जो कभी भुलाए नहीं जाएंगे। ‘चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना’ (फ़िल्म-भाभी), ‘जहां डाल डाल पर सोने की चिड़ियां करती हैं बसेरा’ (फ़िल्म- सिकन्दर-ए-आज़म)। राजेन्द्र कृष्ण ने फ़िल्मों में कई कॉमेडी और अनूठे गीत भी रचे। जो अपनी ज़बान और अलबेले अंदाज की वजह से अलग ही पहचाने जाते हैं।
मिसाल के तौर पर उनके लिखे गए इन गीतों पर एक नज़र डालिए ‘शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो’ (फ़िल्म-अलबेला), ‘मेरे पिया गये रंगून, वहां से किया है टेलिफ़ून’ (फ़िल्म-पतंगा),‘इक चतुर नार करके सिंगार’ (फ़िल्म-पड़ोसन), ‘ईना मीना डीका’ (फ़िल्म-आशा)।
गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने तक़रीबन 300 फ़िल्मों के लिए एक हज़ार से ज़्यादा गीत लिखे। सौ से ज़्यादा फ़िल्मों की कहानी, संवाद और पटकथा लिखीं। जिसमें उनके द्वारा लिखी कुछ प्रमुख फ़िल्में ‘पड़ोसन’, ‘छाया’, ‘प्यार का सपना’, ‘मनमौजी’, ‘धर्माधिकारी’, ‘मां-बाप’, ‘साधु और शैतान’ हैं। एक वक़्त ऐसा भी था, जब राजेन्द्र कृष्ण उन्हीं फ़िल्मों में गीत लिखते थे, जिसमें उनके संवाद और पटकथा होती थी। अपने फ़िल्मी लेखन के बारे में राजेन्द्र कृष्ण की एक इंटरव्यू में कैफ़ियत थी, ‘‘आम तौर पर एक फ़िल्म में छः या सात गीत होते हैं।
जिसमें रोमांटिक सिचुएशन ज़्यादा होती है। उसमें तो कोई पैग़ाम नहीं दिया जा सकता। मगर क्योंकि मैं स्क्रिप्ट राइटर भी हूं, संवाद भी लिखता हूं तो इसलिये कोई न कोई सिचुएशन ऐसी निकाल लेता हूं जिसमें देशभक्ति, भजन, या समाजवाद की बात हो या ग़ज़ल हो जाए।’’ बहरहाल, राजेन्द्र कृष्ण को जब भी मौका मिला, उन्होंने अपने गीतों और संवादों से देशवासियों को सरल शब्दों में एक संदेश दिया। सीधे-सच्चे लफ़्ज़ और सादा अंदाज़ में वे ऐसे गीत लिखते थे, जो दिलों में गहरे तक उतर जाते थे। अपने शानदार गीतों के लिए राजेन्द्र कृष्ण कई पुरस्कारों और सम्मान से भी नवाज़े गए। साल 1965 में उन्हें ‘तुम्ही मेरे मंदिर, तुम्ही मेरी पूजा’ (फ़िल्म-ख़ानदान) गीत के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला।
शायर-नग़मा निगार राजा मेहदी अली ख़ान ने बीसवीं सदी की चौथी दहाई से अपना अदबी सफ़र शुरू किया, जो तीन दहाईयों तक जारी रहा। वे इस दरमियान न सिर्फ मज़ाहिया शायरी का बड़ा नाम रहे, बल्कि फिल्मों में उन्होंने जो गीत-ग़ज़ल लिखीं, वे बेमिसाल हैं।
दोनों ही काम साथ-साथ चलते रहे। एक तरफ मज़ाहिया शायरी थी, जिसमें उन्हें तंज़-ओ-मिज़ाह से काम लेना पड़ता था, तो दूसरी ओर फिल्मी गीत थे, जिसमें रूमानी शायरी लिखना पड़ती थी।
फिल्म की सिचुएशन के हिसाब से हीरो-हीरोईन के जज़्बात को नग़मों में ढालना पड़ता था। दोनों ही काम वे इस हुनरमंदी से करते कि मालूम ही नहीं चलता था यह तख़्लीक़, एक ही शख़्स की है।मज़ाहिया शायरी में काफी नाम-शोहरत हासिल की।
राजा मेहदी अली ख़ान का क़लम से तआल्लुक एक सहाफ़ी (पत्रकार) के तौर पर शुरू हुआ। 23 सितंबर 1915 को ब्रिटिश भारत के झेलम में उनका जन्म हुआ था। अपने मामू के अख़बार ‘ज़मींदार’ के अलावा बच्चों की एक पत्रिका ‘फ़ूल’ में उन्होंने जर्नलिस्ट की हैसियत से काम किया। राजा मेहदी अली ख़ान की पहली मज़ाहिया नज़्म, उस दौर के मशहूर रिसाले ‘अदबी दुनिया’ में शाया हुई। जो ख़ूब पसंद की गई।
इसके बाद वे पाबंदगी से मज़ाहिया शायरी करने लगे। साल 1942 में राजा मेहदी अली ख़ान दिल्ली चले आए और वहां ऑल इंडिया रेडियो में स्टाफ आर्टिस्ट के तौर पर जुड़ गए। वहीं उनकी मुलाक़ात हुई, मशहूर उर्दू अफ़साना निगार सआदत हसन मंटो से। मंटो से उनकी अच्छी दोस्ती हो गई, जो आख़िरी वक़्त तक क़ाइम रही।
ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी में न तो मंटो ज़्यादा दिन तक टिके और न ही राजा मेहदी अली ख़ान। पहले मंटो, यह नौकरी और शहर छोड़कर मुंबई चले गए, फिर उसके बाद उन्होंने राजा मेहदी अली ख़ान को भी वहां बुला लिया। मंटो फिल्मिस्तान स्टूडियो से जुड़े हुए थे और अदाकार अशोक कुमार उनके गहरे दोस्त थे।
अशोक कुमार से कहकर, उन्होंने राजा मेहदी अली ख़ान को भी काम दिलवा दिया। ‘आठ दिन’ वह फिल्म थी, जिससे राजा मेहदी अली ख़ान ने फिल्मों में शुरुआत की। ‘आठ दिन’ की स्क्रिप्ट लिखने के साथ-साथ उन्होंने और मंटो ने इस फिल्म में अदाकारी भी की।
राजा मेहदी अली ख़ान बुनियादी तौर पर शायर थे और ज़ल्द ही उन्हें अपना मनचाहा काम मिल गया। फिल्मिस्तान स्टूडियो के मालिक एस. मुखर्जी ने जब फिल्म ‘दो भाई’ बनाना शुरू की, तो इस फिल्म के गीत लिखने के लिए, उन्होंने राजा मेहदी अली ख़ान को साइन कर लिया। इस तरह फिल्मों में गीतकार के तौर पर उनकी नई शुरुआत हुई, जिसे उन्होंने आख़िरी दम तक नहीं छोड़ा।
साल 1946 में रिलीज हुई ‘दो भाई’ में राजा मेहदी अली ख़ान ने मौसिकार एसडी बर्मन के संगीत निर्देशन में दो गाने ’मेरा सुंदर सपना बीत गया’ और ‘याद करोगे, याद करोगे इक दिन हमको..’ लिखे। इन गीतों को आवाज़ दी गीता राय (दत्त) ने। दोनों ही गाने सुपर हिट साबित हुए और इसके बाद राजा मेहदी अली ख़ान ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
फिल्म ‘दो भाई’ की रिलीज के एक साल बाद ही, साल 1947 में मुल्क आज़ाद हो गया, लेकिन हमें यह आज़ादी बंटवारे के तौर पर मिली। मुल्क में हिंदू-मुस्लिम फ़साद भड़क उठे।
नफ़रत और हिंसा के माहौल के बीच मुल्क हिंदुस्तान और पाकिस्तान के नाम से तक़सीम हो गया। लाखों हिंदू और मुसलमान एक इलाके से दूसरे इलाके में हिज़रत करने लगे। ज़ाहिर है, राजा मेहदी अली ख़ान के सामने भी अपना मादरे-वतन चुनने का मुश्किल वक़्त आ गया।
उनके पुश्तैनी घर-द्वार, रिश्तेदार-नातेदार, दोस्त अहबाब सब पाकिस्तान में थे। लेकिन उन्होंने वहां न जाते हुए, हिंदुस्तान में ही रहने का फ़ैसला किया। ऐसे माहौल में जब चारों और मार-काट मची हुई थी और एक-दूसरे को शक, अविश्वास की नज़रों से देखा जा रहा था, राजा मेहदी अली ख़ान का हिंदुस्तान में ही रहने का फ़ैसला, वाक़ई काबिले तारीफ़ था। खैर, यह संगीन दिन भी गुज़रे।
साल 1948 में राजा मेहदी अली ख़ान को फिल्मिस्तान की ही एक और फिल्म ‘शहीद’ में संगीतकार ग़ुलाम हैदर के संगीत निर्देशन में गीत लिखने का मौका मिला। इस फिल्म में उन्होंने चार गीत लिखे। जिसमें ‘वतन की राह में, वतन के नौजवान’ और ‘आजा बेदर्दी बालमा’ की खूब धूम रही। जिसमें ‘वतन की राह में, वतन के नौजवान’ ऐसा गीत है, जो आज भी राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि के मौके पर हर जगह बजाया जाता है।
राजा मेहदी अली ख़ान का फिल्मों में कामयाबी का सिलसिला एक बार जो शुरू हुआ, तो यह फिर नहीं थमा। उस दौर का शायद ही कोई बड़ा मौसिकार और सिंगर था, जिसके साथ उन्होंने काम नहीं किया हो। लेकिन उनकी सबसे अच्छी जोड़ी मौसिकार मदन मोहन और ओ.पी. नैयर के साथ बनी।
राजा मेहदी अली ख़ान ने साल 1951 से लेकर 1966 तक यानी पूरे डेढ़ दशक, मदन मोहन के लिए एक से बढ़कर एक गीत लिखे। इस जोड़ी के सदाबहार गानों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। जिसमें से कुछ गाने ऐसे हैं, जो आज भी उसी शिद्दत से याद किए जाते हैं। इन गानों को सुनते ही श्रोता, खुद भी इनके साथ गुनगुनाने लगते हैं। ‘आपकी नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे’, ‘है इसी में प्यार की आबरू वह जफ़ा करें मैं वफ़ा करूं’ (फिल्म अनपढ़, साल 1962), ‘मैं निग़ाहें तेरे चेहरे से हटाऊं कैसे..’, ‘अगर मुझसे मुहब्बत है मुझे सब अपने ग़म दे दो’ (फिल्म आपकी परछाईयां, साल 1964), ‘जो हमने दास्तां अपनी सुनाई, आप क्यों रोए’, ‘लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो..’ (फिल्म वो कौन थी, साल 1964), ‘आख़िरी गीत मुहब्बत का सुना लूं…’ (फिल्म नीला आकाश, साल 1965), ‘तू जहां-जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा’, ‘नैनो में बदरा छाए, बिजली-सी चमकी हाय’, ‘झुमका गिरा रे, बरेली के बाजार में…’ (फिल्म मेरा साया, साल 1966)। इन गीतों में से ज्यादातर गीत सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने गाए हैं। यह गीत न सिर्फ राजा मेहदी अली ख़ान और मदन मोहन के सर्वश्रेष्ठ गीत हैं, बल्कि लता मंगेशकर के भी सर्वश्रेष्ठ गीतों में शुमार किए जाते हैं।
साल 1960 से लेकर 1966 तक का दौर राजा मेहदी अली ख़ान का फिल्मों में सुनहरा दौर था। जिसमें उन्होंने अपने चाहने वालों को शानदार नग़मों की सौगात दी। ‘मेरा साया’ उनकी आख़िरी फिल्म थी, जिसके सारे के सारे गाने सुपर हिट साबित हुए। राजा मेहदी अली ख़ान एक हरफ़नमौला अदीब थे, जिन्होंने अदब के अलग-अलग हलकों में एक जैसी महारत से काम किया।
ख़ास तौर से मज़ाहिया शायरी में उनकी, दूसरी मिसाल नहीं मिलती। ‘ज़मींदार’ अख़बार में उनकी मज़ाहिया नज़्में लगातार छपीं। मज़ाहिया नज़्मों में राजा मेहदी अली ख़ान कमाल करते थे। उनमें हास्य बोध ग़ज़ब का था। अदबी एतबार से भी उन्होंने कभी इन नज़्मों का मेयार नहीं गिरने दिया। अपनी एक लंबी नज़्म में तो उन्होंने उर्दू अदब के तमाम बड़े अदीबों के नाम का इस्तेमाल कर, एक ऐसी नज़्म रची कि ये अदीब भी इसे पढ़कर मुस्कराए बिना नहीं रहे।
नज़्म इस तरह से है, ‘तुम्हारी उल्फ़त में हारमोनियम पे ‘मीर’ की ग़ज़लें गा रहा हूँ/बहत्तर इन में छुपे हैं नश्तर जो सब के सब आज़मा रहा हूँ/…लिहाफ़ ‘इस्मत’ का ओढ़ कर तुम फ़साने ‘मंटो’ के पढ़ रही हो/ पहन के ‘बेदी’ का गर्म कोट आज तुम से आँखें मिला रहा हूँ/….फ़साना-ए-इश्क़ मुख़्तसर है क़सम ख़ुदा की न बोर होना/’फ़िराक़-गोरखपुरी’ की ग़ज़लें नहीं मैं तुम को सुना रहा हूँ ।'(‘तुम्हारी उल्फ़त में हारमोनियम पे ‘मीर’ की ग़ज़लें गा रहा हूँ)
राजा मेहदी अली ख़ान का पहला शे’री मजमूआ ‘मिज़राब’ था, तो वहीं साल 1962 में उनकी मज़ाहिया शायरी की दूसरी और आख़िरी किताब ‘अंदाज़—ए—बयां और’ प्रकाशित हुई। ‘चांद का ग़ुनाह’ उनकी एक दीगर किताब है। फिल्मी नग़मों, मज़ाहिया शायरी के अलावा राजा मेहदी अली ख़ान ने अफ़साने भी लिखे, जो उस दौर के मशहूर रिसाले ‘बीसवीं सदी’, ‘ख़िलौना’ और ‘शमा’ में शाया हुए।
राजा मेहदी अली ख़ान की नज़्मों में तंज़ो मिज़ाह (हास्य-व्यंग्य) तो था ही, उन्होंने तंज़ो मिज़ाह के मज़ामीन भी लिखे, जो कि उस वक्त ‘बीसवीं सदी’ पत्रिका में नियमित प्रकाशित होते थे। अपने दोस्तों को उन्होंने जो ख़ुतूत लिखे, वे भी त़ंज़ो मिज़ाह के शानदार नमूने हैं। इन ख़तों में भी उनका हास्य-व्यंग्य देखते ही बनता है।
शायर-नग़मा निगार राजा मेहदी अली ख़ान ने अपने बीस साल के फिल्मी करियर में तकरीबन 72 फिल्मों के लिए 300 से ज्यादा गीत लिखे। जिसमें ज़्यादातर गीत अपनी बेहतरीन शायरी की बदौलत देश-दुनिया में मक़बूल हुए।
उन्हें बहुत छोटी उम्र मिली। फिल्मी दुनिया में जब वे अपने उरूज पर थे, तभी क़ुदरत ने उन्हें हमसे छीन लिया। यदि उन्हें ज़िंदगी के कुछ साल और मिलते, तो वे अपने नग़मों से हमें और भी मालामाल करते। 29 जुलाई 1966 को महज 38 साल की उम्र में यह बेमिसाल शायर-नग़्मा निगार इस जहाने फ़ानी से हमेशा के लिए रुख़सत हो गया।
मशहूर अफ़साना निगार कृश्न चंदर ने राजा मेहदी अली ख़ान की मौत पर उन्हें याद करते हुए क्या ख़ूब लिखा था,‘‘राजा मेहदी अली ख़ान एक बच्चा था और जब भी किसी बच्चे को मौत हमारे बीच से उठाकर ले जाती है, तो इस कायनात की मासूमियत में कहीं न कहीं कोई कमी ज़रूर रह जाती है।’’