मामाजी के नाम से मशहूर वरिष्ठ हस्ती मेहरा का निधन
भारतीय सिनेमा में कपूर परिवार का योगदान सबसे अहम रहा है। मूक फिल्मों से बोलती फिल्मों तक कपूर खानदान छाया रहा। इस परिवार का एक अहम हिस्सा थे विश्व मेहरा उर्फ मामाजी। रिश्ते में राज कपूर के मामा विश्व मेहरा अब हमारे बीच नहीं रहे। आरके स्टूडियो का निर्माण और राज कपूर के फिल्म करियर में विश्व मेहरा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक तरह से आरके स्टूडियो के लिए वह आधार स्तंभ थे। उनके निधन उपरांत वरिष्ठ पत्रकार पवन कु्मार का यह आलेख।
पवन कुमार
सिनेमा ने मेरे मन के कैनवास पर जो पहली तस्वीर उकेरी थी वह थी तीसरी क़सम के कोचवान हीरामन उर्फ़ राज कपूर साहब की।अपनी शैशवावस्था में अपने कस्बे के तम्बूनुमा सिनेमाघर में अपनी माँ की गोद में बैठकर मैंने अपने जीवन की यह पहली फ़िल्म देखी थी।इश्क़ हो या सिनेमा,पहली चीज़ बड़ी तास्सुरी होती है।हीरामन मेरे बालमन पर लंबे समय तक हावी रहा।
मेरे रास्ते से जब भी कोई बैलगाड़ी गुज़रती, बैलों की घण्टियों के लयात्मक ताल से ताल मिला मैं भी हीरामन की खोज में बैलगाड़ी के पीछे पीछे भागा करता।तब स्वतः बैलगाड़ी के पीछे भागते बच्चों पर फिल्माया फ़िल्म तीसरी क़सम का गाना ‘लाली लाली डोलिया’ मेरे कानों में बज उठता।
दुनियावी हथकंडों से दूर सीधा सच्चा हीरामन ,जिसने फ़िल्म तीसरी क़सम में बैलों को हांका था,बाल्यकाल में मेरे मन को हाँकता रहा।मैं जब भी पथभ्रष्ट होता वह मुझे हाँक कर सीधे सच्चे रास्ते पर ले आता।
बड़ी इच्छा थी हीरामन से मिलने की।इच्छा और प्रबल हो गयी जब मुझे पता चला कि फ़िल्म तीसरी क़सम की शूटिंग मेरे बचपन के पालने अररिया में और समीपवर्ती इलाके में हुई थी। ध्यातव्य है कि फ़िल्म तीसरी क़सम मेरे इलाके के ख्यातिलब्ध लेखक स्वर्गीय फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी ‘मारे गए गुलफ़ाम’का सेल्युलाइड रूपांतरण थी।
उम्र के साथ हुए बौद्धिक-वर्धन के कारण उस वक़्त तक मुझे यह पता चल चुका था कि पर्दे पर दिखने वाले किरदारों का पर्दे से इतर भी एक अलग नाम,एक अलग अस्तित्व होता है और इसलिए मेरी इच्छा के दूसरे सिरे पर तब तक हीरामन की जगह राजकपूर साहब बैठ गए थे।
सालों साल तक मेरी आँखें राजकपूर साहब से मिलने के सपनों से कुलबुलाती रहीं। मेरा दुर्भाग्य कि मैं उनकी सरगर्मियों की साक्ष्य रही जगहों पे तब जा पाया जब वे पंच तत्वों में विलीन हो चुके थे।
कल मैं उनके बेटे रंधीर कपूर जी से मिला।मैंने उन्हें छुआ।मैंने उनके वजूद में महसूस किया उसी रक्त का स्पंदन जो कभी राजकपूर साहब की रगों में भी बहा करता था।
सिनेमा से प्रेम करने वाले सिनेमा का जिक्र करते वक़्त यूं ही एक साँस में सिनेमा के साथ कपूर ख़ानदान का नाम लिया नहीं करते।आज जो भारतीय सिनेमा की भव्य अट्टालिका खड़ी है उसे बनाते वक़्त,उसके गारे में कपूर ख़ानदान के कई लोगों का पसीना सना था।
यह ख़ानदान सिनेमा की ख़िदमत और हम दर्शकों का मनोरजंन तब से कर रहा है जब सिनेमा के बोल भी नहीं फूटे थे। इस खानदान के पृथ्वीराज कपूर साहब को सन 1931 की पहली बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ का शदीद हिस्सा बनने का गौरव प्राप्त है।
इस ख़ानदान ने दर्शकों का सिर्फ़ मनबहलाव नहीं किया बल्कि दर्शकों को बेदार भी किया,उनमें कई सामाजिक अलख भी जगाई।इनकी एक फ़िल्म प्रेमरोग ने विधवा विवाह की जायज़ वकालत की तो इनकी अन्य फ़िल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ ने कई दुर्दांत डाकुओं के हाथों से संहारक हथियार छुड़वा दिये। आवारा, जागते रहो, जैसी कई बेमिसाल फ़िल्मों के ज़रिए कपूर लगातार अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन करते रहे।
इस ख़ानदान के सिनेमाई करिश्मों से अभिभूत मैं,यूं तो कपूर खानदान के दो मजबूत स्तम्भ पृथ्वीराज कपूर साहब और राज कपूर साहब की जीवनी कब का कलमबद्ध कर चुका हूँ पर उसमें जो लिखा था,वह एक दूरस्थ आकलन था,सेकंड हैंड अनुभव था….पर कल मैं इस परिवार को बग़ैर कोई वाया मीडिया,अपने निज संवेदक के ज़रिए भरपूर महसूस आया।
अब मैं यकीनी तौर पर कह सकता हूँ कि उनके दरवाज़े पर विन्रमता दरबानी करती है।उनकी दरो-दीवार से मुरव्वत झांकती है।उनकी कुर्सियों पर पुरखों की अज़मत बैठी है….और परिवार का सिनेमाप्रेम तो वहाँ के चप्पे चप्पे से झलकता है।
अगर लेखक को आदमशनासी में वाक़ई माहिरी होती है,अगर उसे भूत सा परकाया में प्रवेश करना आता है,अगर कपूर ख़ानदान के हर कपूर के तन और मन का नक्श रंधीर कपूर जी में अब भी साबितो सालिम बचा है तो इस लेखक के इस अवलोकन पर यकीन कीजिये कि यह परिवार शर्तिया महान है।
रणधीर साहब से बातचीत के दौरान मैंने महसूस किया,उनमें राजकपूर साहब का भोलापन भी था और ऋषिकपूर जी का चुहलपन भी…और बात जब सिर्द्धान्तों की हुईउनके व्यक्तित्व से पृथ्वीराज कपूर जी की पाषाणी दृढ़ता भी कौंध उठी।
शाइस्ता मुस्कान से लबरेज़ उनके चेहरे पर बीच बीच में चिम्पू(राजीव कपूर जी)और चिंटू(ऋषि कपूर जी),की हालिया मौत की सफ़ेद शफ़्फ़ाक़ उदासी भी कौंधी…राजकपूर जी द्वारा बड़े जतन और लगन से बनाये आर.के.स्टूडियो के एक हिस्से के जलने और स्टूडियो के बिकने की मायूसी भी अयाँ हुई।
मेरा कलेजा चाक हुआ जा रहा था जब वे बता रहे थे कि कैसे आर.के. स्टूडियो की आग में फ़िल्म श्री ४२० की ट्रेन जल गयी,फ़िल्म आवारा का पियानो जल गया,कई पोस्टर्स,भारतीय सिनेमा को समृद्ध बनाने वाले कई गर्वीले सुविनियर्स जल गए।
उन्होंने आर के स्टूडियो की मशहूर होली को अनायास रोक देने की वैध वजहें भी बतायीं। उन्होंने तुर्श,तुन्द,मीठी,नमकीन कई बातें,अपने कई अनुभव बताए।उनके हर कहन में बेबाकपन था,सादादिली थी,भरपूर ईमानदारी थी।
वे निडर थे,तभी तो उन्होनें हमें आर. के. फ़िल्म्स के सबसे बुज़ुर्ग सदस्य 94 साल के विश्वा मेहरा उर्फ़ मामा जी Vishwa Mehra aka Mama Ji के हवाले कर दिया।
मैंने बुज़ुर्गों को अपने परिवार के गुडी गुडी वाले इमेज का नास पीटते कई दफ़ा देखा है। इसी वजह से कई परिवार वाले अपने घर के बुज़ुर्गों को उस वक़्त और उस जगह से दूर रखते हैं जब/जहाँ पॉलिटिकली करेक्ट बोले जाने की या स्थापित झूठे इमेज को जोहने की आवश्यकता हो।
पर यहाँ रणधीर साहब ने मुझे एक ऐसे बुज़ुर्ग के हवाले कर दिया था जिनकी बेबाकी अलग ही स्तर पर थी। विश्वा साहब ने कपूर ख़ानदान के बारे में कई रोचक बातें बतायीं। उनमें से कुछ बातें कई बनावटी लोगों को भयभीत कर दे पर रणधीर साहब बगल वाले कमरे में निडर,लापरवाह होकर बैठे रहे।
विश्वा साहब की बोली सारी बेबाक बातें उनके कानों में पड़ रही थीं,पर वे इस सबसे बेरब्त अपना काम करते रहे।ऐसा निडर तो एक सच्चा आदमी ही हो सकता है,न?
उनकी विन्रमता का उदाहरण देखिये कि बाहर जाने के उपक्रम में वे काफ़ी देर तक उस गलियारे के मुहाने में खड़े रहे जहाँ मेरी और मामाजी की ऑन कैमरा बातें चल रही थीं।वे वहाँ से नहीं गुज़रे क्योंकि वे हमारी बातचीत को बाधित नहीं करना चाहते थे।
उनके ऑफिस में मैंने और भी कई बुज़ुर्ग देखे।बुज़ुर्गों का दिखना इस बात का द्योतक है कि कपूर एक बार जो किसी को अपना यारबाज़ हाथ दे देते हैं तो आख़िर तक निभाते हैं।
Marked in blue 2nd from right standing is my father Surinder Kapoor, Sitting below him is Vishwa mehra (Mamaji) on extreme left Seated Raj & Shammi Uncle. #GoldenMemories pic.twitter.com/cdQUAvktlN
— Boney Kapoor (@BoneyKapoor) April 3, 2021
कपूर परिवार ने अपने ऑफिस में काम करने वाले बुज़ुर्गों को न केवल पूरी तवज्जो दे रखी थी,बल्कि उन्हें एक बेटोक स्पेस भी दे रखा था,जिसमें बुढ़ापा जनित बेतरतीबियों के लिए भी सम्मान था।
बुज़ुर्ग मुंह से पान का अर्क चू रहा था और टपकन निर्विकार भाव से साफ किये जा रहे थे।ख़ुदआलम में खोये एक बुज़ुर्ग जब-तब कुछ बुदबुदाकर शूटिंग में निर्दोष ख़लल पैदा कर रहे थे,पर उन्हें कोई रोक नहीं रहा था।
मैं ऐसे ख़लल से अमूमन चिढ़ जाता हूँ पर उस वक़्त मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था।कपूर परिवार द्वारा बनाए उस माहौल पर फ़ख़्र हो रहा था ,जहाँ बुज़ुर्गों के लिए सम्मान था।जहाँ अदने से अदना मुलाज़िम भी परिवार के सदस्य की भांति मान पा रहा था।
मामाजी उम्र के इस पड़ाव पर उत्पादकता के दृष्टिकोण से कितने उपयोगी हैं,मुझे पक्के तौर पर नहीं पता पर यह मैं यकीनी तौर पर कह सकता हूँ कि उन्हें हर क्षण महत्वपूर्ण महसूस कराया जाता रहा है।तभी तो वे चौरानवे बसंत देख पाए हैं और अब भी जीवेषणा से भरे हैं।
मामा जी भी अपनी ज़िंदगी में कपूर परिवार की सम्बलदायी भूमिका को भली भांति समझते हैं। तभी तो हालिया दिवंगत हुए चिंटू और चिम्पू की बातें याद कर वे भर्रा कर रो पड़े। मामाजी तब बेसाख़्ता हंस पड़े जब उनके मोबाइल में कौंधे क्रिकेट अलर्ट ने उन्हें बताया कि भारत टेस्ट मैच की जीत की दहलीज़ पर आ खड़ा हुआ है।
शरीर से निशक्त पर मन से मज़बूत मामा जी हमारे साथ वह छड़ी टेकते हुए बाहर आए जिसे लंदन में राजकपूर साहब ने अपने चोटग्रस्त पैर के इलाज़ के दौरान ख़रीदी थी।
चौरानवे साल के ये युवक टैक्सी से जाने पर आमादा थे पर हमारी लगातार गुज़ारिशों ने उन्हें हमारे साथ कार में बैठने के लिए मना लिया। सौ से ऊपर फ़िल्मों में काम करने वाले विश्वा मेहरा साहब को जब हमने उनके घर छोड़ा तो उन्होंने बताया कि चूंकि लेट हो चुका है वे कुछ कतिपय दिनों की तरह आज अपने हाथों से खाना न बनाकर होटल में खाएंगे। जी हाँ,अकेले रहने वाले ये ख़ुद्दार बुज़ुर्ग ऑफिस में काम भी करते हैं और अपने लिए खाना भी बनाते हैं।
ये ख़ुद्दारी ,ये कर्मठता कहाँ से आई,जब टटोला तो याद आया बातचीत के दौरान रणधीर साहब ने जिक्र किया था कि कैसे पृथ्वीराज कपूर ने रोते हुए नन्हे डब्बू (रंधीर कपूर) के सामने राजकपूर से कुछ ऐसा कहा था-
‘राज तुमने बच्चों को अपने नाम की बैसाखी दी तो वे लंगड़े हो जाएँगे।उन्हें विसंगतियों से अपने बूते जूझने देना।’
विश्वा साहब से जब हमने विदा ली,उस वक़्त रात के क़रीबन दस बज चुके थे।भूख हमें भी लग गयी थी पर सिर्फ़ हमारे पेट को।हमारा मन तो इन लाजवाब लोगों से मिलकर कब का तृप्त हो चुका था।
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