आज पुण्यतिथि पर विशेष
हिंदी म्यूजिक इंडस्ट्री में जब भी महान गायकों की बात आती है तो उनमें मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, लता मंगेशकर के साथ मन्ना डे का नाम जरूर लिया जाता है।
उनका जन्म 1 मई 1919 में कोलकाता के एक बंगाली परिवार में हुआ था। अपने सिंगिंग करियर में उन्होंने एक से बढ़कर एक सदाबहार गाने गाए हैं।
बॉलीवुड में गाने की शुरुआत उन्होंने 1943 में आई फिल्म ‘तमन्ना’ से की थी। 50 से 70 के दशक के बीच वह उस चौकड़ी का हिस्सा रहे जिन्होंने हिंदी म्यूजिक इंडस्ट्री पर राज किया है। गाने की उनकी अनोखी शैली उन्हें बाकी गायकों से अलग करती थी।
‘लागा चुनरी में दाग’, ‘एक चतुर नार’ ‘बाबू समझो इशारे’ गाने से उनकी गायिकी का अंदाजा लगाया जा सकता है। पांच दशकों के अपने सुरीले करियर में उन्होंने बंगाली, गुजराती, मराठी, मलयालम, कन्नड़ और असमी भाषा में 3500 से ज्यादा गाने गाए।
मुश्किल गानों को गाने में थे माहिर
मन्ना डे ने अपने चाचा कृष्ण चंद्र डे और उस्ताद दाबिर खान से संगीत की तालीम ली थी। शास्त्रीय संगीत पर उनकी मजबूत पकड़ थी। उन्होंने कई सारे क्लासिकल और सेमी क्लासिकल गानों को अपनी आवाज दी है। इसके अलावा उन्होंने फिल्मों के लिए कई मजाकिया अंदाज के गाने भी गाए हैं जिसे आज भी लोग सुनना पसंद करते हैं।
फिल्म पड़ोसन का उनका गाना ‘एक चतुर नार’ आज भी सिंगिंग रियलिटी शो में कंटेस्टेंट गाकर अपनी प्रतिभा साबित करने की कोशिश करते हैं। यह गाना इतना कठिन है कि संगीत जगत से जुड़े लोगों को हैरानी होती है कि इतने मुश्किल गाने को कोई इतनी आसानी से कैसे गा सकता है।
मन्ना डे को मुश्किल गीत गाने में महारथ हासिल थी। कहा जाता है जब कोई गाना मोहम्मद रफी या किशोर कुमार जैसे महान सिंगर नहीं गा पाते थे तो संगीतकार सीधा मन्ना डे का पास अपना गाना लेकर पहुंच जाया करते थे।
रफी भी थे उनके गानों के फैन
मन्ना डे की प्रतिभा का लोहा मोहम्मद रफी जैसे बड़े सिंगर भी मानते थे। रफी खुलेआम उनकी तारीफ किया करते थे। एक बार रफी ने मन्ना डे को लेकर बहुत ही दिलचस्प बात बताई थी।
उन्होंने कहा था कि लोग मेरे गाने सुनते हैं लेकिन मैं सिर्फ मन्ना डे के गाने सुनता हूं। संगीत के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान देने के लिए मन्ना डे को पद्मश्री और पद्म विभूषण से भी नवाजा जा चुका है।
90 के दशक में गानों से बना ली दूरी
अपने सिंगिंग करियर में मन्ना डे ने कई भाषाओं में जबरदस्त गाने गाए हैं। संगीत के क्षेत्र में ऊंचा मुकाम हासिल करने के बाद 90 के दशक में उन्होंने म्यूजिक इंडस्ट्री को अलविदा कह दिया। रफ़ी जितने ही शानदार इस गायक को हमेशा साइडलाइन किया गया
1942 से 1993 तक सक्रिय रहे मन्ना दा
प्रबोध चंद्र डे उर्फ़ मन्ना डे ने अपने चाचा कृष्ण चंद्र डे से संगीत का ककहरा सीखा। इसके अलावा उस्ताद दबीर ख़ान से भी उन्होंने तालीम हासिल की।
1942 में वो अपने चाचा के साथ मुंबई आ गए. वहां पर उन्होंने फिल्मों में असिस्टेंट म्यूजिक डायरेक्टर के तौर पर काम करना शुरू किया. गायक के तौर पर उन्हें पहला ब्रेक भी के सी डे ने ही दिया. ‘तमन्ना’ फिल्म में उनसे एक गाना गंवाया, ‘जागो आई उषा’. इस तरह शुरू हुआ सुर-साधना का सफ़र 2013 में उनकी मौत तक अनवरत जारी रहा।
यूं तो 24 अक्टूबर, 2013 में अपनी मौत से कुछ वक़्त पहले तक मन्ना डे प्राइवेट महफ़िलों में गाते रहें, लेकिन सिनेमा के लिए आख़िरी बार उन्होंने 2006 की फिल्म ‘उमर’ के लिए गाया। गाने के बोल थे-‘दुनिया वालों को नहीं कुछ भी ख़बर, कहे प्यार करने की है ये कोई उमर हम कहे दिल से दिल मिले जो अगर, तब है प्यार करने की हर एक उमर’
हालांकि इस बारे में एक बेहद दिलचस्प बात है। खुद मन्ना डे हिंदी सिनेमा के लिए अपना आख़िरी गाना 1991 में आई फिल्म ‘प्रहार’ का गीत ‘हमारी ही मुट्ठी में आकाश सारा’ को मानते हैं। ये गाना उनके दिल के बहुत करीब था। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत से सजा ये गाना हौसले की, आत्मनिर्भरता की बेहद ज़रूरी खुराक प्रदान करता है। कई स्कूलों में सुबह की प्रार्थना के वक़्त इस गाने को गाया जाता रहा है।
हिंदी संगीत की दुनिया के साइडट्रैक पर ही गाड़ी चलाते रहे मन्ना दा
फ़िल्मी हलकों में ये चर्चा हमेशा से रही है कि मन्ना डे को कभी भी पहली पंक्ति का गायक होने का सम्मान नहीं मिला। जिस दौर में मन्ना डे की गायकी उरूज़ पर थी, वो एक अजीब दौर था। हर प्रमुख संगीतकार का कोई न कोई प्रिय गायक हुआ करता था।
रफ़ी, किशोर और मुकेश जैसे लिजेंडरी गायकों के रहते मन्ना डे के हिस्से वही गाने आए, जो किसी साइड हीरो, कॉमेडियन, साधु, भिखारी वगैरह पर फिल्माए जाने हो। लेकिन इससे क्या होता है?
फिल्म कुछ हफ़्तों का अफेयर होता है, गीत हमेशा रहता है। आज कई गाने महज़ उनकी गायकी की वजह से सुने जाते हैं, बगैर इस बात को याद भी किए कि किस पर फिल्माए गए थे।
‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ की अपील महज़ मन्ना डे की रूहानी आवाज़ की वजह से
‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ गीत एक अंजान से कलाकार पर फिल्माया गया था। बावजूद इसके इस गाने की अपील महज़ मन्ना डे की रूहानी आवाज़ की वजह से है। बार-बार सुना जाता है ये गीत। खुद रफ़ी मन्ना डे के दीवाने थे. पब्लिकली कहा करते थे, ‘दुनिया मेरे गाने सुनती है, लेकिन मैं सिर्फ मन्ना डे को सुनता हूं।’
‘ऐ मेरे प्यारे वतन’ से जुड़ा एक और किस्सा याद आता है। इसे रिकॉर्ड करने के बाद साउंड रिकॉर्डिस्ट ने मन्ना डे से कहा कि आज तुम्हारी आवाज़ में कोई दम ही नहीं है। क्या हो गया है!
प्रोड्यूसर बिमल रॉय को समझाना पड़ा कि ये गाना इसी तरह गाया जाना था। ये एक कमरे में फिल्माया जाना है, जहां चंद लोग हैं सिर्फ। इस लिहाज़ से ये ‘गाना’ नहीं ‘गुनगुनाना’ है। वाकई ये गुनगुनाना ही था जो आज तक लोगों के दिल के करीब है।
स्पेशलिस्ट होना श्राप ज़्यादा होता है और वरदान कम
भारतीय संगीत इंडस्ट्री इतनी ज़्यादा लकीर की फकीर है कि इसका दंश बड़े से बड़े आर्टिस्ट तक के हिस्से आया है. मन्ना डे से ज़्यादा बड़ी मिसाल और क्या होगी! मन्ना डे शास्त्रीय संगीत में पारंगत थे। क्लिष्ट बंदिशों को भी हंसते-खेलते निभा लेते थे. ‘बरसात की एक रात’ फिल्म की बेहद मशहूर क़व्वाली ‘ये इश्क इश्क है’ को याद कीजिए।
उसके कई हिस्से इतने मुश्किल थे कि उसे किसी साधारण गायक द्वारा निभा पाना मुमकिन ही नहीं था। मन्ना डे ने उसे इतनी सहजता से निभाया है कि लगता ही नहीं कोई एक्स्ट्रा एफर्ट लगा होगा। उनकी यही सहजता उनके लिए नेगेटिव पॉइंट बन गई। उनको टाइपकास्ट किया गया।
हमारे यहां यही होता आया है। किसी चीज़ में स्पेशलिस्ट होने के अपने नुकसान हैं। लोग आपसे उसी तरह का काम करवाना चाहते हैं, जिनमें आप माहिर हैं। और फिर दूसरी तरह के काम के लिए आपको अनफिट करार दिया जाता है। पहली बात तो फिर भी किसी हद तक ठीक है, लेकिन दूसरी तो सरासर अन्याय है।
‘एक चतुर नार‘ में महमूद की नहीं हार थी मन्ना डे की
मन्ना डे का हुनर उन्हें एक हद में महदूद करने का हथियार बन गया। हल्के-फुल्के गानों के लिए उन्हें लेना बंद ही कर दिया फिल्म इंडस्ट्री ने। जबकि उनका गाया ‘ऐ भाई ज़रा देख के चलो’ जैसा गाना बंपर हिट रहा था।
उनके मिलने वाली दोयम दर्जे की ट्रीटमेंट का एक उदाहरण ‘पड़ोसन’ का गाना ‘एक चतुर नार‘ भी है। इसमें मन्ना डे ने वो वाला हिस्सा गाया जो महमूद पर फिल्माया गया। जिनकी किशोर कुमार की आवाज़ में गा रहे सुनील दत्त से जुगलबंदी होती है और अंत में वो हार जाते हैं।
वो महमूद की नहीं मन्ना डे की हार थी। मन्ना डे को खुद भी ऐसा ही लगता था। वो हार प्रतीक थी उस पराजय की जो मन्ना डे जैसे कलाकार की हमेशा होती रही। कभी किशोर से, कभी रफ़ी से तो कभी किसी और से।
पद्म सम्मान मिला, पत्नी के जाने के बाद घर कर गई थी निराशा
बहरहाल समय हर काबिल कलाकार को उसकी जगह ज़रूर देता है। मन्ना डे अपनी सक्रियता के दौर में चाहे जिस तरह चलते रहे हों, बाद में उनके काम को जम के सराहा गय। भारत सरकार ने उनको दो-दो पद्म अवॉर्ड दिए।
1971 में पद्मश्री और 2005 में पद्मभूषण। 2007 में उनको दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड भी मिला जोकि हिंदी सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान है। हिंदी और बांग्ला के अलावा उन्होंने लगभग हर प्रमुख भारतीय भाषा में गाने गाए. 3000 से ज़्यादा गीतों को अपनी आवाज़ दी।
अपने अंतिम दिनों में मन्ना डे बेंगलुरु अपनी बेटी के यहां शिफ्ट हो गए थे। कहते हैं कि 2012 में अपनी पत्नी सुलोचना के निधन के बाद उनकी जीने की इच्छा ही ख़त्म हो गई थी। ज़्यादा जिए भी नहीं वो उसके बाद। 24 अक्टूबर 2013 को उन्होंने दुनिया छोड़ दी।
जाते-जाते उनके गाए 7 शानदार नगीने याद कर लिए जाए
1. कसमे-वादे, प्यार-वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या!
फिल्म ‘उपकार‘ का गीत प्राण पर फिल्माया हुआ। अपनी ज़िंदगी के तमाम-उतार चढ़ाव देख चुके शख्स के अनुभवी बोल। इंदीवर ने जितनी ज़िम्मेदारी से इसे लिखा है, उतनी ही ज़िम्मेदारी से मन्ना डे ने गाया भी है। इस गाने में एक दर्द भरी सदा है जो तड़पाकर रख देती है सुनने वाले को।
2. ज़िंदगी कैसी है पहेली
मन्ना डे के उन चुनिंदा गीतों में से एक जो किसी फिल्म के मुख्य किरदार पर फिल्माया गया। ‘आनंद’ फिल्म में राजेश खन्ना का समंदर किनारे चलते जाना और ये गीत गाते जाना हिंदी गीतों के उन चुनिंदा विजुअल्स में से है, जो बिना कोई प्रयास किए याद रहते हैं। जीवन का फलसफा है ये गीत।
3. तू प्यार का सागर है
भक्ति को एक नया आयाम देता ये गीत 1955 की फिल्म ‘सीमा’ में था। शैलेंद्र ने जितने सहज-सुंदर बोल लिखे, उतनी ही आसान धुन बनाई शंकर-जयकिशन ने। आज भी इस गीत को भगवान की आरती की तरह गाया जाता है। बहुत ही आला।
4. लागा चुनरी में दाग
मन्ना डे की उच्च कोटि की क्लासिकल गायकी का शानदार नमूना। जितनी मुरकियां, आलाप उन्होंने इसमें लिए हैं, वो उनके गले की पहुंच का, सुरों के पक्केपन का पुख्ता सबूत है। इस गीत को बार-बार लूप पर डाल के सुना जा सकता है। फिल्म थी 1955 की ‘दिल ही तो है’। ये शानदार गीत लिखा था लफ़्ज़ों के जादूगर साहिर ने और संगीत था रोशन का।
5. सुर ना सजे
एक गायक के लिए सबसे बड़ी त्रासदी तब होती है, जब उसका संगीत उसका साथ छोड़ देता है। यही व्यथा इस गीत के शब्द-शब्द से टपकती है। एक नाकाम गायक की पीड़ा को इतनी उत्कटता से मन्ना डे के अलावा और कोई पेश कर भी नहीं सकता था। फिल्म थी ‘बसंत बहार’। ये भी शैलेंद्र और शंकर-जयकिशन की तिकड़ी का ही शाहकार था।
6. यारी है ईमान मेरा
अपने यार विजय (अमिताभ) से अपनी दोस्ती का खुल के इज़हार करता शेर ख़ान (प्राण) किस सिनेमाप्रेमी को याद न होगा! ‘ज़ंजीर’ का ये बेमिसाल गाना न जाने कितनी दोस्तियों का एंथम है। अपने यार को खुश देखने के लिए एक शख्स जतन कर रहा है। उसकी आवाज़ की खनक, वो जोश, वो ख़ुलूस सब कुछ मन्ना डे की आवाज़ में मौजूद है। “तेरा ममनून हूं, तूने निभाया यारानातेरी हंसी है आज सबसे बड़ा नज़राना”
7. ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं
आख़िर में वो गीत जो अपनी जवानी जी कर आगे बढ़ चुके लेकिन मुहब्बत को उम्र का मोहताज न मानने वाले तमाम लोगों के लिए वरदान है। ये गाना कील ठोक के बताता है कि इश्क़ किसी ख़ास उम्र में होने वाली घटना नहीं, बल्कि उम्र भर साथ चलने वाला जज़्बा है। यही गीत मन्ना डे साहब की गायकी में मौजूद विविधता का भी नमूना है। खुद सुन लीजिए। फिर से एक बार। क्योंकि आपने सुना न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता।
हिंदी संगीत जगत हमेशा-हमेशा मन्ना डे का ऋणी रहेगा।