आज जयंती-अपने किरदार की वजह से फिल्म जगत
में अलग पहचान बनाई थी सदाशिव अमरापुरकर ने
महाराष्ट्र के अहमदनगर में 2 जनवरी 1956 को पैदा हुए अमरापुरकर शुरू से ही रंगमंच से जुड़े थे। 80 के दशक में उन्होंने बॉलिवुड में एंट्री की और कई मराठी फिल्मों में भी काम किया। उनकी करबी 250 फिल्मों में से अर्ध सत्य, सड़क, हुकूमत, आंखें और इश्क काफी कामयाब रही हैं। उनकी आखिरी फिल्म बॉम्बे टॉकीज थी।
स्कूल और कॉलेज के दिनों से अभिनय से पहला प्यार रखने वाले सदाशिव अमरापुर को फिल्मों में पहला मौका निर्देशक गोविंद निहलानी ने अर्द्धसत्य में दिया। वह इंडियन नेशनल थियेटर से जुड़े थे और इसी संस्था के एक नाटक ‘हैंड्स अप’ में इंस्पेक्टर की भूमिका निभा रहे थे।
यहीं निहलानी ने उन्हें देखा और अपनी फिल्म के लिए रोल ऑफर किया। सदाशिव अमरापुर को लगा था कि निहलानी उन्हें इंस्पैक्टर की भूमिका देंगे, लेकिन यहां उन्हें मिला विलेन का रोल। निहलानी ने उन्हें अंडरवर्ल्ड के डॉन का रोल दिए।
उन्होंने यह रोल इसने प्रभावपूर्ण ढंग से निभाया कि फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अर्द्धसत्य के लिए उन्हें फिल्म फेयर द्वारा सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का अवार्ड दिया गया। इसके बाद सदाशिव अमरापुरकर लगातार आगे बढ़ते गए।
उन्होंने अपने कैरियर में 300 से ज्यादा हिंदी, मराठी, बंगाली, उड़िया और हरियाणवी फिल्मों में काम किया। फिल्म सड़क में महारानी का किरदार इसकी रिलीज से पहले ही चर्चित होने लगा था। वह खुद बताते हैं “ये जो किरदार है, अनोखा है। आधा मर्द है, आधा औरत है।
यह कोठे चलाने वाला इंसान है। एक तरफ उसे औरतों जैसा रहन-सहन उसे अच्छा लगता है। कभी-कभी वह कोठे वाली औरतों को बुला कर उनके हाथों से साड़ी पहन कर, तैयार होकर अपनी फोटो खिंचाता है।
दूसरी तरफ बात यह भी है कि वह औरतों की तरह दिखता नहीं है, उनके जैसी खूबसूरती और नजाकत उसके पास नहीं है।Sadashiv Amrapurkar became an identity with Ardha-Satya then did not look back
ऐसे में वह औरतों से नफरत भी करता है। ठीक वैसे जैसे वह मर्दों से नफरत करता है। उसके साथ-साथ फिल्म में उसका भविष्य भी फिल्म में दिखाया गया है।
दरवाजे पर एक बूढ़ा आदमी जो सदा कोठे के दरवाजे पर बैठा रहता है। कभी वह इस कोठे को चलाया करता था। यह आदमी उसे खिलाता है, पिलाता है और उसका ध्यान रखता है। वह जानता है कि मेरा भी भविष्य यही होने वाला है।
ये है तो विलेन, लेकिन इसे एक स्त्री का शेड दिया गया है। इस तरह का किरदार मैंने बहुत साल पहले कॉलेज में एक मराठी नाटक में किया था। जिसमें मैं एक गंधर्व के रोल में था।
पुराने जमाने में मराठी में थियेटर में महिलाओं के किरदार पुरुष निभाते थे। यह ऐसे ही व्यक्ति की कहानी थी। इसलिए महारानी का रोल मेरे लिए कोई नया चैलेंज नहीं है।
हां, इसके मन की उमड़-घुमड़ कमाल है। यह मर्द भी है और औरत भी लेकिन उसे किस रोल में लोगों सामने आना चाहिए, इसके लिए वह टॉस करता है।
उसके पास देवी का एक मुकुट है, जिसके सामने वह टॉस करके तय करता है कि उसे स्त्री के रूप में रहना चाहिए या पुरुष के रूप में। अपने अन्य फैसले भी वह टॉस करके लेता है। सिर्फ ऐसा नहीं कह सकते कि यह एक पुरुष ऐक्टर द्वारा निभाया स्त्री का कैरेक्टर है। असल में यह काफी जटिल है।
फिल्मों में यूं तो हीरो-हीरोइन की जोड़ी हुआ करती है, लेकिन कई बार हीरो और विलेन भी पर्दे पर एक-दूसरे के साथ खूब जमते हैं। ऐसा ही कुछ मामला धर्मेंद्र और सदाशिव अमरापुरकर का था। वैसे तो सदाशिव ने कैरियर उन दिनों में शुरू किया जब धर्मेंद्र शिखर को पार कर चुके थे, लेकिन धर्मेंद्र को उनका अंदाज इतना पसंद आया कि सदाशिव अपने अपोजिट उनके पसंदीदा विलेन हो गए। जानकार कहते हैं कि धर्मेंद्र उन्हें अपने लिए ‘लकी’ मानने लगे थे।
यही कारण है कि सदाशिव अमरापुरकर उनके साथ दो-चार नहीं बल्कि ग्यारह फिल्मों में नजर आए। दोनों ने संग में जो फिल्में की उनमें शामिल हैः रिटर्न ऑफ ज्वैलथीफ (1996), फूलन हसीना रामकली (1993), कोहराम (1991), दुश्मन देवता (1991), फरिश्ते (1991), वीरू दादा (1990), नाकाबंदी (1990), ऐलान-ए-जंग (1989), पाप को जला कर राख कर दूंगा (1988), खतरों के खिलाड़ी (1988), हुकूमत (1987)।
फिल्मों में बेहतरीन अभिनय करने वाले और सबसे अधिक विलन की भूमिका से सब के दिलों में अपनी जगह बनाने वाले सदाशिव अमरापुरकर का 3 नवंबर 2014 को फेफड़ों में संक्रमण की बीमारी के चलते निधन हो गया था।