90 वर्ष की हुईं इतिहासकार प्रोफेसर रोमिला थापर
सरला माहेश्वरी
हमारे समय की सुप्रसिद्ध इतिहासकार, इतिहास लेखन की वैज्ञानिक परम्परा को आगे बढ़ाने वाली रोमिला थापर का एक दिसंबर गुरुवार को 91वाँ जन्मदिन है। आज उनके जन्मदिन पर उन्हें बधाई और शुभकामनाएँ देते हुए उनकी पुस्तक ‘शकुंतला : टेक्सट्स, रीडिंग्स, हिस्ट्रीज’ पर बात करते हुए शकुन्तला की कहानी के बदलते रूप के आइने में औरत की बदलती हुई स्थिति को समझते हैं।
अभी कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था। इस फैसले से ईसाई औरत को भी अपनी संतान के परिचय के साथ उसके पिता का नाम लिखने की जरूरत नहीं रही। और इसप्रकार भारत में अब संतान के नाम के साथ उसके पिता का नाम लिखने की अनिवार्यता पूरी तरह से खत्म हो गई।
कुछ साल ही हुए हैं, जो स्त्री बिना विवाह किये किसी पुरुष के साथ रहती है, उसे भी कानूनन वे सारे अधिकार मिल गये जो किसी भी पत्नी के अधिकार होते हैं। इस प्रकार, स्त्री-पुरुष के सह-जीवन में से विवाह नामक बंधन की अनिवार्यता को कानूनन हमेशा के लिये खत्म कर दिया गया।
चंद रोज पहले अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को वैद्यता दी है। पश्चिम के कई देशों में इसके पहले ही इसे कानूनी स्वीकृति मिल चुकी थी। इन फैसलों ने वह जमीन तैयार कर दी है जिसपर विवाह लिंग के संदर्भ से पूरी तरह मुक्त हो जाता है। विवाह का लिंग से कोई मतलब नहीं है, यह एक युगल के साथ रह कर निश्चित सामाजिक दायित्वों के निर्वाह की वचनबद्धता है।
इधर के सालों में हमारे देश तथा दुनिया में स्त्री-पुरुष संबंधों के मामले में कानून के स्तर पर लिये जा रहे ऐसे तमाम फैसले इतने बड़े और क्रांतिकारी हैं कि इनके बारे में सोच कर विस्मय से आंख फटी की फटी रह जाती है।
हमें याद आती है प्रो. रोमिला थापर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘शकुंतला : टेक्सट्स, रीडिंग्स, हिस्ट्रीज’ की। हजारों वर्षों के भारतीय वांग्मय के एक केंद्रीय नारी चरित्र शकुंतला पर केंद्रित पुस्तक।
प्रो. थापर ने इस पुस्तक में भारी जतन के साथ पिछले अढ़ाई हजार सालों में शकुंतला के नये-नये आख्यानों पर बदलते हुए समय की छाप का अपना एक आख्यान रचा है। वैदिक साहित्य में जिस शकुंतला का सिर्फ नामोल्लेख मिलता है, महाभारत के आदि पर्व में वह चक्रवर्ती राजा दुष्यंत से गंधर्व विवाह करके अपने पुत्र भरत के अधिकार के लिये लड़ने वाली वनबाला की कहानी की नायिका बन कर सामने आती है। आकाशवाणी की मदद से भरत को उसका अधिकार दिलाती है।
वही नायिका कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में एक लज्जावती, संकोची और शीलवान चरित्र है जिसके पुत्र को अधिकार मिलता है मछली के पेट से मिली दुष्यंत की अंगूठी के जरिये। ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ राजदरबार में मनोरंजन के लिये लिखा गया, श्रेष्ठ साहित्यिक उपादानों से भरपूर एक नाटक था।
इसीलिये उस पर आगे भी सैकड़ों सालों तक चर्चा होती रही, नाट्य शास्त्र से लेकर अभिनव गुप्त और आनंद वर्धन के सैद्धांतिक ग्रंथों के केंद्र में वह कृति रही। लेकिन एक नारी शकुंतला की सामाजिक स्थिति कभी कोई चर्चा का विषय नहीं बन पाई। मुगलों के काल में ब्रजभाषा में उसके रूपांतरण में शकुंतला घर-दुआर की एक औरत नजर आती है, तो उसके उर्दू रूप पर लैला-मजनू की कहानी की पारसी दास्तान शैली छायी रहती है।
अठारहवी सदी के शुरू में पश्चिम में भारत-विद्या के सबसे अग्रणी अंग्रेज विलियम जोन्स ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ का पहले लैटिन और फिर अंग्रेजी में अनुवाद किया तो पश्चिम की दुनिया इसे लेकर इतनी उत्साहित होगयी कि जैसे उन्होंने भारत की भौतिक संपदा की तरह ही उसकी सांस्कृतिक संपदा का भी खजाना हथिया लिया हो।
लेकिन परवर्ती दिनों में भारत की जनता के साथ अंग्रेजों के बढ़ते द्वंद्व की पृष्ठभूमि में शकुंतला पश्चिमवालों को गंवारू और चरित्रहीन लगने लगी और ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’ एक अश्लील कृति। और तो और, रवीन्द्रनाथ भी गंधर्व विवाह करने वाली और अपने पुत्र के लिये अधिकारों की मांग करने वाली शकुंतला को अपनी सहानुभूति नहीं दे पाये थे।
रोमिला थापर ने अपनी पुस्तक में पूरे विस्तार और प्रामाणिकता के साथ शकुंतला के आख्यानों की यह कहानी कही है। इन सभी कथा-रूपों पर किस प्रकार सूक्ष्म रूप से उनके युग की छाप रही है, इसका भी उन्होंने जिक्र किया है। इसी के आधार पर उन्होंने इतिहास और साहित्य के बीच के सूक्ष्म रिश्तों की बात भी की है।
हालाँकि कि हजारों सालों में बार-बार रची जाने वाली शकुंतला की इस कहानी में पितृसत्ता में किसी भी प्रकार की दरार का प्रो. थापर के पूरे आख्यान से कोई संकेत नहीं मिल पाता है। इसकी तुलना में, हाल के सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और दुनिया के पैमाने पर बदल रहे स्त्री-पुरुष संबंधों के परिदृश्य से साफ लगता है कि जो चीजें सहस्त्रों वर्षों से अटल बनी रही हैं, स्थायी तौर पर हमारे सामाजिक जीवन को जकड़े रही हैं, वे अब आगे और नहीं चल पा रही है। आज तेजी के साथ सबकुछ उलट-पुलट रहा है। पितृसत्ता की दीवारों में दरारें पैदा करने वाले इन परिवर्तनों को समझना रोचक और ज़रूरी भी।