असम का बोका चावल अब पश्चिम बंगाल और
बिहार में भी उगाया जा रहा, बढ़ रही इसकी मांग
गुवाहाटी। असम का बोका चाउल अब देश के दूसरे हिस्सों में भी उगाया जा रहा है। इस चावल की खासियत यह है कि इसे गर्म पानी या आंच की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि ठंडे पानी में ही यह चावल खाने लायक भात में तब्दील हो जाता है। चना,मूंग या बादाम अंकुरित होने के बाद जैसा होता है ये चावल भी वैसा ही हो जाता है। कभी चावल की यह खास किस्म सैनिकों के लिए उगाई जाती थी।
वहीं गरीब व वंचित समुदाय के लोग इसका इस्तेमाल करते थे, क्योंकि इसे पकाने का झंझट नहीं होता था और पुराने दौर में खाना पकाने ईंधन (आग) का इंतजाम करना भी मुश्किल होता था। आज यह चावल न सिर्फ असम बल्कि पश्चिम बंगाल और बिहार में भी उगाया जा रहा है।
इसे अब अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नाम से पुकारा जा रहा है।
कभी सैनिक और गरीब लोगों का भोजन
होता था, अब व्यवसायिक खेती हो रही
असम में जहां इसे बोका चाउल boka chaul और असमिया मुलायम चाउल (ओरिजा सैटिवा-oryza sativa) कहा जाता है। वहीं बंगाल में कमल चावल और बिहार में मैजिकल राइस भी कहा जा रहा है। इसकी फसल मूलत: जून में बोई जाती और दिसंबर में काटी जाती है। यह खाने में स्वादिस्ट और अत्यधिक पौष्टिक भी है। बोका चाउल में 10.73 प्रतिशत फाइबर सामग्री और 6.8 प्रतिशत प्रोटीन है। गौहाटी विश्वविद्यालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग के एक अध्ययन में इसका खुलासा हुआ है।
बोका चाउल (चावल) का इतिहास 17 वी सदी से जुड़ा है। इस धान की खेती करने वाले कई किसान कहते हैं कि बोका चावल का प्रयोग पहले सैनिक करते थे, क्योंकि युद्ध के दौरान सैनिकों को खाना पकाने की दिक्कत होती थी। इसलिए वो ठंडे पानी में इसे पका कर खा लेते थे।
पहले माजुली द्वीप पर होती थी खेती, अब देश में हो रहा विस्तार
अभी तक इसकी खेती की शुरूआत असम के ब्रह्मपुत्र नदी (Brahmaputra River) के तट पर माजुली द्वीप (Majuli Island) से मानी जाती है। इसके साथ यही आसाम के नलबारी, बारपेटा, गोलपाड़ा, बक्सा, कामरूप, धुबरी, और कोकराझर ऐसे जिले हैं जहाँ इसकी खेती बहुतायत से होती रही है।
बोका चाउल (चावल) को जीआई टैग के साथ पंजीकृत किया गया है। असम राज्य का अब इस चावल पर जीआई टैग मिलने क़ानूनी अधिकार हो गया है। बोका चाउल को असम के लोग गुड़, दूध, दही, चीनी या अन्य बस्तुओं के साथ खाते हैं। इस चावल का उपयोग स्थानीय पकवानो में भी किया जाता है। यह चावल सामान्य से थोड़ा मोटा होता है जबकि इसका पौधा पांच फीट तक ऊंचा होता है।
पश्चिम बंगाल में भी लोकप्रिय हो रही इसकी
खेती, राज्य सरकार भी कर रही प्रोत्साहित
असम से बोका चावल के धान कुछ किसान बंगाल में लेकर आए थे। अब यहां भी इसकी अच्छी उपज होने लगी है। यहां इसे कमल चावल कहा जाता है।
पश्चिम बंगाल सरकार ने इसके व्यवसायिक उत्पादन को प्रोत्साहित करने की घोषणा की है। कमल चावल की ख़ास बात यह है कि इसे उगाने के लिए सिर्फ जैविक खाद का इस्तेमाल किया जाता है। अभी नदिया जिले में इसका प्रयोग 10 हेक्टेयर में किया जा रहा है। इसके अलावा बंगाल के वर्द्धमान समेत कुछ और जिलों में भी किसान इसकी खेती कर रहे हैं।
राज्य के कृषि मंत्री आशीष बनर्जी वर्द्धमान ने कहा है कि प. बंगाल सरकार इसके व्यवसायिक उत्पादन पर जोर दे रही है। नदिया जिले में कमल धान की खेती को प्रोत्साहित कर रहे सहायक कृषि निदेशक अनुपम पाल ने बताया कि नदिया में दस हेक्टेयर में प्रयोग के तौर पर इसकी खेती की गई है। इसके अच्छे परिणाम मिले हैं।
धान से चावल निकालना भी काफी सरल है। धान को उबालकर धूप में सुखा लें। फिर कूटकर चावल अलग कर लें। लिहाजा, किसानों के लिए यह हर तरह से फायदे का सौदा साबित हो रहा है।
सहायक निदेशक अनुपम पाल कहते हैं कि कमल चावल काफी पौष्टिक है। कमल धान की खेती करने वाले वीरभूम के लावपुर के किसान अतुल गोराई ने कहा कि दो वर्ष से कमल धान की खेती कर रहे हैं। अगले वर्ष से इसकी ज्यादा खेती करेंगे।
बिहार में प्रयोग के तौर पर शुरू की गई
खेती, लोग मानते हैं मैजिकल राइस
बिहार के लोग इसे मैजिकल राइस की संज्ञा देते हैं। बगहा में हरपुर सोहसा निवासी विजय गिरी (Vijay Giri, a resident of Harpur Sohsa in Bagaha, Bihar) ने इस जादुई धान की खेती करके एक नई पहल की शुरुआत की है। लेकिन, विजय गिरी ने इसकी शुरुआत हरपुर सोहसा के अपने गांव में कर दी।
विजय गिरी पिछले साल पश्चिम बंगाल के कृषि मेला में गए थे। जहां उन्हें इस जादुई धान के बारे में पता लगा। विजय गिरी ने इसके बीज लाकर शुरू में एक एकड़ जमीन पर इसकी शुरुआत की। इस दौरान जादुई धान ने अपना जादू दिखाया और अच्छी पैदावार हो गई। खास बात है कि इसमें रासायनिक खाद की भी जरूरत नहीं पड़ी।
रिपोर्ट के मुताबिक़, इसकी खेती में लागत भी बहुत नहीं लगती है। इसमें रसायनिक खाद की भी जरूरत नहीं पड़ती है। 150 से 160 दिन में ये तैयार हो जाता है। मार्केट में इसकी कीमत भी अच्छी मिल जाती है। इसे 40 से 60 रुपये प्रति किलो बेचा जाता है। गिरी इसके प्रचार-प्रसार पर भी काम कर रहे हैं। उनका मानना है कि इसकी जितनी पैदावार होगी, किसानों को उतना फायदा होगा।
बिहार में विजय गिरी की सफलता के बाद फुलवारी शरीफ प्रखंड के सिमरा गांव निवासी (Resident of Simra village of Phulwari Sharif block) उज्ज्वल कुमार Ujjwal Kumar भी इसकी फसल ले रहे हैं। इसी तरह सामाजिक संस्था ‘आवाज एक पहल’ ने इस चावल की खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बिहार के अलग-अलग जिलों में किसानों को मुफ्त में बीज देना शुरू किया है।
संस्था के सदस्य लव कुश और वीरू का कहना है कि बाढ़ प्रभावित इलाकों के लिए यह चावल वरदान साबित हो सकता है। बिहार में हर साल बाढ़ आती हैं और उसमें फंसे लोग सिर्फ रूखे सूखे अनाज खाकर अपना पेट भरते हैं। ऐसे में अगर उनके पास यह जादुई चावल की उपलब्धता होगी तो उनका भरपूर पोषण हो सकेगा।