जनरल पांडे के फौजी साथी भिलाई के कर्नल तम्मैय्या ने याद किया
उनके साथ बिताया चार दशक पुराना दौर, बताई कुछ खास बातें
भिलाई। करीब चार दशक पहले भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) देहरादून (Indian Military Acadamy-IMA) Dehradun के स्वर्ण जयंती समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Prime minister Indira Gandhi) ने सैनिकों को संबोधित करते हुए भारतीय सेना प्रमुख के जो गुण बताए थे, वह आज के हमारे सेना अध्यक्ष जनरल मनोज चंद्रशेखर पांडे (General Manoj Pande) पर बिल्कुल सटीक बैठते हैं।
जनरल पांडे के साथ शुरूआती दौर में युवा अफसर के तौर पर सेना से जुड़े और भिलाई में पले-बढ़े कर्नल के तम्मैया उडुपा (सेवानिवृत्त) (col. K. Thammayya Udupa Ret.) उस भाषण को याद करते हुए कहते हैं-आश्चर्यजनक रूप से तब हमारी प्रधानमंत्री ने जो कहा था, वह सारी बातें हमारे नए सेना अध्यक्ष पर लागू होती है।
कर्नल तम्मैया सवाल करते हुए कहते हैं-10 दिसंबर, 1982 को जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्वर्ण जयंती परेड की सलामी के बाद हमें संबोधित किया था, तो उन्हें नहीं पता था कि वहां खड़े लोगों में से एक नौजवान साढ़े उनचालीस साल बाद देश की सेना का प्रमुख बन जाएगा। क्या श्रीमती गांधी को ऐसा कुछ आभास हुआ था?
गौरतलब है कि देश के नए सेना अध्यक्ष जनरल मनोज चंद्रशेखर पांडे ने अपना कार्यभार 30 अप्रैल 2022 को संभाला है। कर्नल तम्मैया ने इस खास मौके पर ने चार दशक पुराने उस दौर को याद किया जब सेना में उनके बैच के नौजवान अफसरों ने अपनी सेवा की शुरूआत की थी। इसके साथ ही कर्नल तम्मैया (Col.Thammayya) ने भिलाई में बिताए अपने दिन और अपने पिता को भी याद किया। कर्नल तम्मैया ने जो कुछ बताया, सब उन्हीं के शब्दों में-
सैम मानेकशॉ ने ली हमारी पासिंग आउट परेड की सलामी
शुक्रवार 13 जनवरी 1983 को हम 16 नए कमीशंड अधिकारी भारत के विभिन्न हिस्सों से अनिवार्य रूप से कमीशनिंग के पूर्व की 21 दिनों की छुट्टी का लाभ उठाकर बॉम्बे इंजीनियर ग्रुप (बीईजी) और केंद्र किरकी (जिसे अब खड़की के नाम से जाना जाता है) में पहुंचे थे। बमुश्किल एक महीने पहले हम सभी भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) देहरादून में थे।
10 दिसंबर 1982 को आईएमए ने औपचारिक स्थापना के 50 साल पूरे किए थे। उस दिन हमने स्वर्ण जयंती समारोह परेड में सगर्व भाग लिया था। मुख्य अतिथि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। 14 दिन बाद 24 दिसंबर 1982 को फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ (feild marshal sam) हमारी पासिंग आउट परेड की सलामी ले रहे थे। हम में से 484 नौजवान भारतीय सेना में कमीशन किए गए थे।
थका के चूर कर देने वाले प्रशिक्षण में मिलने-जानने का अवसर नहीं मिला
तब आईएमए में एके सिंह, जसपाल रीन, पंकज मित्तल और मैं न केवल एक ही कंपनी से थे, बल्कि एक ही पलटन से थे। हम एक दूसरे को करीब से जानते थे। अजय शर्मा, अरुण शर्मा, आशीष घोष, डी एस दहिया, हरि ईश्वरन, एच एस सिद्धू, मनोज चंद्रशेखर पांडे, एम श्रीनिवासन, राजीव मलिक, आर के शर्मा, सलिल तिवारी और एस गौतम आईएमए में अन्य कंपनियों से थे।
अकादमी में हमारे बेहद व्यस्त व थका के चूर कर देने वाले प्रशिक्षण के दिनों के दौरान इनमें से किसी के साथ बातचीत करने या मिलने जैसी कोई याद मुझे नहीं है। ऐसे में हमारे रेजिमेंटल सेंटर में इस अल्प प्रवास ने हमें एक दूसरे को जानने का अवसर भी प्रदान किया। इसके बाद हम 16 बाम्बे सैपर्स को दिसंबर 1982 बैच के कोर्स के सहभागी कहलाना था।
17 दिन बिताने हम पहुंचे रेजिमेंटल सेंटर
कोर ऑफ इंजीनियर्स के तीन समूहों में से एक बॉम्बे सैपर्स में शामिल किए गए। अब हम में से 16 युवा अफसर अपने रेजिमेंटल सेंटर पर पहुंच गए थे। हमें वहाँ केवल 17 दिन बिताने थे, यानी 30 जनवरी 1983 तक। इसके बाद हमें पुणे के दापोडी में स्थित सैन्य इंजीनियरिंग कॉलेज (कॉलेज ऑफ मिलिटरी इंजीनियरिंग-सीएमई) के लिए आगे बढ़ना था। हमें 31 जनवरी 1983 से 23 जुलाई 1983 तक यंग ऑफिसर्स (इंजीनियर) कोर्स करना था।
हमारे रेजिमेंटल सेंटर में वे 17 दिन मूल रूप से हमें हमारे कोर का अनुभव देने और समूह के इतिहास और इसकी समृद्ध परंपराओं के बारे में जानने में मदद करने के लिए थे। हमसे यह भी अपेक्षा की गई थी कि हमारे कोर में भर्ती होने वाले सैनिकों के बुनियादी प्रशिक्षण की एक झलक मिले कि वे कैसे रहते थे और कैसे प्रशिक्षण लेते थे।
यंग आफिसर्स 76 वें पाठ्यक्रम के सिल्वर ग्रेनेड विजेता रहे मनोज
30 जनवरी 1983 को, शाम को हम 16 लोग बीईजी से निकले और अगले दिन शुरू होने वाले हमारे वाईओ पाठ्यक्रम के लिए सीएमई को रिपोर्ट की। पाँच विदेशी अफसर सहित हमारे पाठ्यक्रम में कुल 63 लोग शामिल थे। पहले दिन से ही मनोज पूरे पाठ्यक्रम में लगातार शानदार रहे। जैसा कि विदित है इंजीनियर पाठ्यक्रम में योग्यता क्रम में प्रथम आने वाले छात्र अधिकारी को ‘सिल्वर ग्रेनेड’ से सम्मानित किया जाता है।
इसलिए कोई हैरानी नहीं कि यंग आफिसर्स (वाईओ) 76 वें पाठ्यक्रम के सिल्वर ग्रेनेड विजेता सिर्फ और सिर्फ मनोज पांडे ही थे। 23 जुलाई 1983 को पाठ्यक्रम समाप्त हो गया और हम सभी अपने-अपने रास्तों में आगे बढ़ गए। इन 39 सालों में मैं मनोज से शायद पांच या छह बार से ज्यादा नहीं मिला हूं।
इनमें से अधिकांश अवसर बेहद संक्षिप्त रहे हैं। मैं राष्ट्रीय रक्षा अकादमी खडकवासला (एनडीए) से नहीं हूं और न ही मैं मनोज के साथ आईएमओ में उसी कंपनी या बटालियन में था। हम दोनों को एक साथ सेवा करने का कभी अवसर नहीं मिला।
अफसर होने की पहचान थे हमारे कंधों के सितारे
अमेरिकी लेखक जेम्स थर्बर की प्रसिद्ध उक्ति है- ‘जब दो लोग मिले तो ‘कंपनी’, चार लोगों का साथ आना ‘पार्टी’ और तीन लोगों का मिलना एक ‘भीड़’ है।’ लेकिन यहाँ हम सब चार गुना चार यानि 16 युवा अफसर थे। नए अफसरों के रूप में ऊंचे मनोबल के साथ सभी नौजवानों के जोश ने हमें बेहद रोमांचित किया।
हमारे कंधों पर सितारे थे जो हमारे अफसर होने की पहचान थे। लेकिन न तो हमारे पास कोई कार्यालय था और न ही हमारे अधीन कोई सेवक था। इस तरह के गर्वोन्मत अवसर के साथ हमें आवंटित किए गए आवास में बहुत ही तूफानी ढंग का कोलाहल मचा हुआ था। इस सारी ‘बकबक’ के बीच दूसरे दिन के काम के खात्मे तक मैंनें अपने पूरे बैच को भली-भांति भांप लिया था।
मुझे याद है हमारे बीच बेहद शांत स्वभाव का एक नौजवान
उस दिन मेरी पहली याद यह है कि हममें से एक सोलहवें भाग के नौजवान (जो अब देश के 29वें सेनाध्यक्ष हैं) का स्वभाव बेहद शांत था। वह जब भी वह बात करते, तो उनका लहजा बेहद नरम होता था, लेकिन नापतौल कर और सटीक बोलते थे। उनके व्यवहार में किसी तरह की चंचलता प्रतीत नहीं होती थी।
उनके व्यक्तित्व का एक महत्वपूर्ण पहलू कुछ दिनों बाद मुझे पता चला। जैसा कि सभी सशस्त्र बलों में परंपरा है, किसी भी इकाई में पोस्टिंग पर रिपोर्ट करने वाले अधिकारियों का औपचारिक रूप से ‘डाइनिंग इन’ पार्टी में अपने आफिसर मेस में स्वागत किया जाता है। यह नए अफसरों के लिए उनके सैन्य करियर का पहला डाइनिंग-इन होता है।
हम सभी को इंतजार था अपनी रेजीमेंट की घोषणा का
उन 17 दिनों में मनोज के चारित्रिक गुण दर्शाने वाली एक और घटना घटी। आज के दौर में सभी सैन्य अधिकारियों का करियर प्रबंधन सेना मुख्यालय में सैन्य सचिव (एमएस) शाखा में केंद्रीकृत है। इसलिए सभी नए कमीशन प्राप्त अधिकारियों की पोस्टिंग भी एमएस शाखा के माध्यम से होती है।
लेकिन 1982-1983 में, जब हम कमीशन अधिकारी बने, ऐसा नहीं था। एमएस शाखा ने हमें कोर और समूह आवंटित किया। इसके बाद हमारी सेवा के प्रारंभिक वर्षों को समूह द्वारा प्रबंधित किया जाता था। ग्रुप एडजुटेंट पर हममें से प्रत्येक को एक रेजिमेंट आवंटित करने की जिम्मेदारी थी।
इसे उपयुक्त शब्दावली में कहा जाए तो हम में से प्रत्येक को एक इंजीनियर रेजिमेंट में सूचीबद्ध किया जाना था। हम सभी 16 उस रेजिमेंट को जानने के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहे थे जिसे हमें आवंटित किया जाना था। जहां अपना पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद आगे की सेवा के लिए हमारा भविष्य का केंद्र बनने वाला था और वहीं से हमारा करियर एक रुप लेना था।
मुझे भेजा गया 109 इंजीनियर रेजिमेंट
एक शाम लेफ्टिनेंट कर्नल (बाद में कर्नल) विवेक बोपैया ने औपचारिक घोषणा की। जिसमें मुझे 109 इंजीनियर रेजिमेंट आवंटित की गई थी। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। मुझे लगा कि मैंने जैकपॉट जीत लिया है, क्योंकि मेरी रेजिमेंट तब पुणे में ही सीएमई के भीतर स्थित थी।
ठीक उसी समय जब मुझे उस वर्ष जुलाई में औपचारिक रूप से इसमें शामिल होने की उम्मीद थी, यह उत्तर पूर्व में क्षेत्र में एक ऑपरेशन संचालन की भूमिका पर आगे बढ़ने के लिए बिल्कुल तैयार था।
कोर्स के दौरान रेजिमेंट के बगल में होना और कोर्स के अंत में फील्ड में जाना तो मेरे लिए आम के आम और गुठलियों के दाम की तरह दोहरा बोनस जैसा था। सीएमई पुणे में मेरी रेजीमेंट द्वारा खाली की गई जगह पर 110 इंजीनियर रेजीमेंट आने वाली थी जो उस समय फील्ड में थी। तब मनोज को 110 इंजीनियर रेजीमेंट अलॉट की गई थी।
मनोज की फैसला लेने लेने की काबिलियत से हम पहली बार रूबरू हुए
हमारी सेना में अफसरों का एक बड़ा हिस्सा पुणे में तैनात होने से खुश होता है। क्योंकि पुणे भारत की सबसे अच्छी सैन्य छावनियों में से एक है। जो कोई भी सीएमई पुणे गया है, वह इस बात की तस्दीक जरूर करेगा कि सीएमई के रूप में कोई भी सैन्य प्रशिक्षण प्रतिष्ठान इतनी अच्छी तरह से व्यवस्थित या इस रूप में नहीं है।
फिर भी, यहाँ भेजे जाने के फैसले के बावजूद सेकंड लेफ्टिनेंट मनोज बेहद निराश थे। सेना में उनकी सेवा के 10 दिन भी नहीं हुए थे, तब उन्हें 110 आवंटित किया गया था। ऐसे में मनोज ने अपनी पीड़ा बताई। तब कर्नल बोपैया ने उन्हें धैर्यपूर्वक सुना।
मनोज का तर्क बिलकुल सही था। उन्होंने हाल ही में एनडीए में कैडेट के रूप में पुणे में तीन साल बिताए थे। यह तय था कि वह पुणे में अपना पाठ्यक्रम पूरा करने के लिए और छह महीने बिताने वाले थे। वह अपना पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद पुणे में इस रेजिमेंट में शामिल होंगे और दो से तीन साल के लिए पुणे में यूनिट में रहेंगे।
फिर उन्हें सीएमई में ही तीन वर्षीय बीटेक डिग्री कोर्स में भाग लेने के लिए नामांकित किया जाएगा। इस प्रकार, अपने कमीशन के समय से अपने डिग्री कोर्स के अंत तक, लगभग साढ़े पांच से छह साल की अवधि के लिए वह पुणे में ही रहेंगे।
ऐसे में उन्होंने अनुरोध किया कि डिग्री कोर्स के लिए अनिवार्य रूप से सीएमई पुणे आने से पहले उन्हें फील्ड क्षेत्र में किसी भी इकाई में तैनात किया जाए, ताकि फील्ड का अनुभव मिल सके। हममें से कुछ लोगों को हैरानी हुई। हम लोगों को लग रहा था कि कर्नल बोपैया पीछे नहीं हटेंगे लेकिन मनोज अपने मिशन में सफल हुए। इस तरह उन्हें 267 इंजीनियर रेजीमेंट आवंटित की गई जो उस समय एक फील्ड एरिया में थी। यह मामला मनोज के फैसला लेने की काबिलियत के बारे में बताता है।
मनोज ने अपनी मर्जी से हमेशा चुनौतीपूर्ण रास्ता चुना, इसलिए आज बने जनरल
जितना मैनें देखा है, अपने सैन्य करियर के शुरुआती दिनों से ही मनोज अपने विषय के प्रति पूरी तरह केंद्रित-समर्पित रहे और उन्होंने अपनी मर्जी से हमेशा चुनौतीपूर्ण रास्ता चुना। वर्षों बाद जब समय आया, तो उन्होंने कोर से जनरल कैडर जाने की चुनौती को स्वीकार कर लिया।
जिसके कारण आज उन्हें सेना प्रमुख होने का प्रतिष्ठित अवसर मिला। यह एक ऐसी सड़क है जिस पर चलते हुए उनसे पहले कोई भी इंजीनियर इस पद तक नहीं पहुंच पाया है।
इस धारणा को तोड़ने श्रेय हमेशा मनोज को ही रहेगा। मुझे उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में उन्होंने जिस पथ का नेतृत्व किया है, वह अधिक से अधिक सैपर अफसरों को सेना प्रमुख बनने के सपने को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करेगा।
जनरल पांडे की शख्सियत से यह सीख सकते हैं आप
मैं उन अफसरों की उस उच्च श्रेणी में नहीं हूं जो मनोज (और उनके परिवार) को खुद से बेहतर जानने का दावा कर सकते हैं। जो आपको बता सकते हैं कि उनकी पसंदीदा फिल्म कौन सी है, या उनके पसंदीदा व्यंजन कौन से हैं इत्यादि। सच तो यह है कि मैं मनोज का करीबी होने का दावा भी नहीं कर सकता।
लेकिन एक कोर्स मेट के रूप में और उन 16 में से एक के रूप में और जिन्होंने बॉम्बे सैपर्स के आकाश के इस सितारे के साथ वक्त गुजारा है, उनकी असाधारण प्रतिभा और गंभीरता को देखकर मेरा दिल हमेशा गर्व से भर जाता है। उनकी प्रतिबद्धता और उनका समर्पण, उनकी मेहनत और उनका तकनीकी व सामरिक ज्ञान सब कुछ अद्भुत है। यह देखना बेहद सुखद है कि वह आज कहां है।
दूसरी बात, उनके व्यक्तित्व की। जनरल मनोज पांडे से आप निश्चित रूप से जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू सीख सकते हैं-किसी को बहुत अधिक बोलने की, या ज़ोर से बोलने की, या ऊँची आवाज़ में बोलने की जरूरत नहीं है। आप नरम और कम बोलने वाले हो सकते हैं, लेकिन आपके पास गहराई होनी चाहिए। ज्ञान की जबरदस्त गहराई और आप जो कहते हैं और करते हैं उसमें जबरदस्त आत्मविश्वास होना चाहिए।
हमारा पहला डाइनिंग-इन और आफिसर्स मेस में लगे पंखे से जुड़ी कुछ बातें
खड़की में बॉम्बे इंजीनियर ग्रुप (बीईजी) में ऑफिसर्स मेस अद्भुत है। यहां लगे ईंट-पत्थरों सहित हर जगह भव्यता और विशिष्टता की छाप दिखाई देती है। इसमें वर्षों की वीरता से भरी समृद्ध विरासत और राष्ट्रसेवा का इतिहास भी जोड़ सकते हैं।
बॉम्बे सैपर्स एकमात्र इंजीनियर समूह है जिसमें विक्टोरिया क्रॉस (सेकंड लेफ्टिनेंट और बाद में लेफ्टिनेंट जनरल) प्रेमिंद्र सिंह भगत, परम वीर चक्र (सेकंड लेफ्टिनेंट और बाद में मेजर) रामा राघोबा राणे और अशोक चक्र नायब सूबेदार गुरनाम सिंह (मरणोपरांत) शामिल हैं।
बीईजी ऑफिसर्स मेस में प्रवेश करने वाला कोई भी नया कमीशन अधिकारी इस तरह की दुर्जेय विरासत को जीने के विचार से बेहद प्रभावित होता है। उस शाम हम बीईजी में कमांडेंट ब्रिगेडियर (बाद में लेफ्टिनेंट जनरल) एम एस गोसाईं और उसके सभी अफसरों के मेहमान थे।
डायनिंग हॉल में हम बैठे तो मेरी नजर उपर गई
तब पूरा माहौल हमें बहुत सहज महसूस करा रहा था। हम सभी बॉम्बे सैपर्स के परिवार का हिस्सा हैं, यह महसूस कराने हमें वहां स्पेशल ट्रीटमेंट (विशिष्ट व्यवहार) मिल रहा था। फिर रात के खाने के समय हम विशाल मुख्य डाइनिंग हॉल में दाखिल हुए। यहां बेहतरीन कटलरी और क्रॉकरी रखी गई थी।
बैठने की योजना के अनुसार जैसे ही हम अपनी सीटों पर जम गए, कुछ ऐसा हुआ जो मेरे लिए नया था। मैंने चुपके से ऊपर देखा जब यह असामान्य आवाजें आना शुरू हुई और देखा कि डाइनिंग हॉल की छत से रस्सियों का एक जाल था, जो क्षैतिज रूप से एक लंबा लकड़ी का खंभा लटका हुआ था। इस पोल के निचले हिस्से में हुक लगे हुए थे। इन कांटों से एक अति सुंदर सिला हुआ कपड़ा लंबवत लटका हुआ था।
यह पुराने जमाने का लकड़ी और कपड़े का एक पंखा था। ऑफिसर्स मेस बीईजी और सेंटर, खड़की में डाइनिंग हॉल, भारत में एकमात्र ऑफिसर मेस है, जिसमें डाइनिंग टेबल के ठीक ऊपर पंखा होता है। शुरुआती दिनों में जब बिजली नहीं होती थी, तो पंखा बाहर बैठे पुरुषों द्वारा संचालित किया जाता था। अब यह एक इलेक्ट्रिक मोटर के माध्यम से है।
मेरा खाना बे मजा कर दिया उस ‘आवाज’ ने, कई सवाल उठे मेरे मन में
उस दौरान जिस आवाज ने मेरा ध्यान खींच, वह कुछ उलझी हुई रस्सियां थी। जो खंबे को घुमाने के लिए एक अच्छी तरह से समन्वित तरीके से चलती थी। इस प्रकार कपड़ा एक लय के साथ मेज पर बैठे लोगों को पंखे का प्रभाव प्रदान करता था। यह तब तक हवा देता रहा जब तक हम अपना भोजन कर रहे थे। यह पंखा रात के खाने के बाद कमांडेंट के पारंपरिक टोस्ट के लिए उठने से ठीक पहले रुक गया। दरअसल, इस आवाज ने मेरा रात का खाना लगभग बे मजा कर दिया था।
मैं एक गैर-सैन्य पृष्ठभूमि से था और पहले कभी किसी सैन्य अधिकारी की मेस में नहीं गया था। यहाँ यह अजीब माहौल/जुगाड़ था जिसके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। यहां जुगाड़ से वह हो रहा था, जिसकी एक बिजली के छत के पंखे से उम्मीद की जाती है। लेकिन यह जुगाड़ क्या इसे गति दे रहा था?
रात के खाने के दौरान मैं खुद से पूछता रहा, ये सभी रस्सियाँ कहाँ जा रही हैं? यह कैसे चलता है, क्योंकि कहीं भी बिजली का कनेक्शन नहीं है? और फिर मेरे दिमाग में सहसा यह दर्दनाक बात आई कि क्या ये रस्सियाँ दीवार के पीछे कहीं जाती हैं जहाँ कुछ इंसान इन्हें हाथ से खींच रहे हैं? वहां क्या मुझे कुछ अभागे लोगों के दर्शन होंगे, जो हमारे आराम की खातिर वहाँ पंखा झलने के लिए लगभग दास की तरह काम कर रहे होंगे? मैं यह सोचकर खुद को दुखी महसूस करने लगा।
तब एक अफसर के जवाब ने मुझे और मनोज को राहत दी
रात्रिभोज समाप्त हो गया और औपचारिक तौर पर विदा लेने के बाद हम तीन और चार के छोटे समूहों में अपने आवास पर वापस जा रहे थे। मनोज चंद्रशेखर पांडे और मैं ऐसे ही एक समूह में थे। मेरा जहन अभी भी उन पंखा झलने वाले गुलामों के बारे में सोच रहा था। तब मैनें मनोज से उसी विषय पर बात की और अपने उस दर्द को जाहिर किया जिस बारे में मैं सोच रहा था कि हमारे आराम के लिए ऐसा कुछ गुलामों को करना पड़ता है।
तब हम में से एक अफसर ने हालात को भांप लिया। उन्होंने कहा कि हम बिना कारण ही भावुक हो रहे थे। उन्होंने समझाया कि बिजली के आने से पहले ऑफिसर्स मेस का निर्माण किया गया था। हमने अभी-अभी जो देखा वह बिजली से पहले के समय में लगाया गया पंख था। इसका जिसका मकसद डाइनिंग हॉल को ठंडा रखना था। उन्होंने कहा कि हाँ, उन दिनों पंखा वास्तव में उन गुलाम पुरुषों द्वारा चलाया जाता था जो बाहर तैनात रहते थे। यह लोग इस पंखे को एक लय की गति प्रदान करने के लिए अपने पैरों से पैडल मारते थे।
वे ब्रिटिश शासन के दिन थे और शासक ऐसा कुछ भी करके बच सकते थे। लेकिन अब उस तरह से इंसानों से काम नहीं लिया जाता बल्कि उनकी जगह एक इलेक्ट्रिक मोटर काम कर रही थी। मनोज और मेरे लिए यह बहुत बड़ी राहत थी। मुझे याद है कि तब मनोज ने कहा था, कुछ इंसानों द्वारा हमारे आराम की खातिर ऐसा करने का खयाल मुझ पर भी भारी पड़ रहा था। मनोज की यही विशेषता है जिसकी वजह से वह हमेशा इंसानों के लिए अपने दिल में करुणा के साथ नेतृत्वकर्ता (लीडर) रहे हैं।
एक जनरल का वर्णन करते हुए क्या कहा था प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने..?
10 दिसंबर, 1982 को भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) की स्वर्ण जयंती परेड की सलामी लेने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हमें संबोधित करते हुए जो कहा था, वह आज भी मुझे नहीं भूलता।
श्रीमती गांधी ने तब अपने संबोधन में कहा था-”सैन्य नेतृत्व अनिवार्य रूप से किसी लीडर के व्यक्तित्व और चरित्र का दर्पण है, जो अपने जवानों के साथ सबसे प्राचीन, सबसे प्राकृतिक और सभी मानवीय संबंधों में से एक का प्रतिनिधित्व करता है।
अधिकांश सेना प्रमुख अन्य नेतृत्वकर्ताओं की तरह विचारशील लोग रहे हैं, जो अपनी समझ के कारण इतिहास को बदलने में सक्षम हैं। जैसा कि आधुनिक रक्षा समग्र है, आधुनिक अधिकारियों को उन सभी से परिचित होना चाहिए जो किसी राष्ट्र को प्रभावित करते हैं, जो इसे मजबूत करता है और इसका मनोबल बढ़ाता है। उन्हें मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र और प्रौद्योगिकी को जानना चाहिए, जो कि सैन्य विज्ञान से कमतर नहीं है। उन्हें विचारों और प्रौद्योगिकियों में बदलाव के साथ बने रहना चाहिए क्योंकि बदलाव और हमेशा तेजी से होने वाला बदलाव ही जीवन का एकमात्र परिवर्तन हीन तथ्य है।
प्रभावी नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण आवश्यक है, लेकिन एक आंतरिक गुण व शक्ति से परिपूर्ण व्यक्तित्व और दूरदृष्टि भी होनी चाहिए।” अब साढ़े उनचालीस साल बाद, हमारे पास एक सेना प्रमुख है जो मैं कह सकता हूं कि इंदिरा गांधी के आधुनिक सैन्य अफसर और एक जनरल के वर्णन के अनुरूप है। जनरल मनोज चंद्रशेखर पांडे, हमें आप पर बहुत गर्व है और हम आपको शुभकामनाएं देते हैं।
जनरल थिम्मैय्या और नेताजी से मुझे मिली सेना में आने की प्रेरणा
बचपन में जब मैं कहता था कि मेरा नाम तमैय्या है, तो भिलाई स्टील प्लांट में अप्पा (पिताजी) के कुछ सहयोगी कहते थे तम्मैया मत कहो, जनरल थिम्मैया कहो, क्योंकि जनरल जनरल कोडेडेरा सुबय्या थिमय्या (मई 1957-मई 1961) हमारे सेना प्रमुख थे। तब मुझे बेहद गर्व का एहसास होता था कि अप्पा के साथी एक बहुत ही सम्मानित शख्सियत के बारे में बात कर रहे हैं। मुझे उनके बारे में जानने की जिज्ञासा थी। फिर मुझे पता चला कि जनरल थिमैय्या हमारी भारतीय सेना के प्रमुख रहे हैं। शायद यही पहली प्रेरणा थी।
अगली वजह मैं बताऊं तो क्लास-1 से ही मुझे मेरे माता-पिता ने वाद-विवाद व भाषण सहित अन्य गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। जिससे मेरी प्रस्तुतियों के चलते मुझे शिक्षकों के साथ-साथ सहपाठियों के बीच भी एक अच्छे वक्ता के रूप में देखा जाने लगा। बचपन में जोश, जज्बे और देशभक्ति से भरपूर सभी भाषण मेरे पिता द्वारा मेरे लिए लिखे गए थे। इनमें मुझे नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी एक लाइन बेहद पसंद थी-बहादुर सैनिक, आज आपने शपथ ली है कि आप अपनी आखिरी सांस तक दुश्मन से लड़ेंगे..।
इससे भारतीय सेना के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता गया। एक और बात बताऊं तो, 1971 भारत-पाक युद्ध के दौरान मार्च-अप्रैल-मई 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में चल रही गतिविधियों को बेहद गंभीरता से समझने की कोशिश की। जहां हमारे देश की शानदार जीत हुई थी। इस समय तक मुझे पता चल गया था कि एनडीए नाम की कोई चीज होती है, अधिकारी कैसे बने और वह सब। इस समय तक मैंने सशस्त्र बलों में शामिल होने का मन बना लिया था।
भिलाई में स्कूली शिक्षा के वो दिन,आज भी नहीं भूल सकता
तब शुरूआती दौर में भिलाई स्टील प्लांट की टाउनशिनप के आवासों में ही नर्सरी (प्री-प्रायमरी) स्कूल संचालित होते थे। मुझे सेक्टर-4 की स्ट्रीट-15 के एक ऐसे ही प्री-प्रायमरी स्कूल में दाखिल कराया गया। श्रीमती बहल हमारी शिक्षिका थी। इसके बाद क्लास 1 से 4 तक की पढ़ाई मैनें इंग्लिश प्रायमरी स्कूल सेक्टर-9 में पूरी की। जहां मिस सहाय हमारी क्लास टीचर थी। वहीं श्रीमती सहाय हमारी एचएम थी।
उनके पति याकूब मसीह सहाय तब हाई स्कूल सेक्टर-1 में प्रिंसिपल थे। यहां सेक्टर-9 प्रायमरी स्कूल में क्लास-2 और 3 में मिस अकीला और क्लास-4 में मिस मैरी ग्यों क्लास टीचर थीं। इसी दौरान सेक्टर-1 से 6 तक में रहने वाले बच्चों के लिए सेक्टर-3 में नया इंग्लिश प्रायमरी स्कूल खोला गया। जहां से मैनें क्लास-5 की पढ़ाई की। यहां कुमुदिनी डोनाल्ड हेनरी हमारी क्लास टीचर थीं।
इसके बाद क्लास-6 से 9 तक की पढ़ाई मैनें हायर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-7 से पूरी की। जहां मेजर मिश्रा हमारे प्रिंसिपल थे और उनके बाद एलआर पुराणिक प्रिंसिपल हुए। यहां से क्लास-10 और 11 की पढ़ाई मैनें हायर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-10 से की, जहां एएस रिजवी हमारे प्रिंसिपल थे। स्कूल के यह दिन जीवन में कभी भुलाए नहीं जा सकते।
भिलाई की स्कूली शिक्षा के बाद मैनें केआरईसी (अब एनआईटीके) सुरथकल से बीटेक (इलेक्ट्रिकल) किया। दिसंबर 1982 में मुझे कोर ऑफ इंजीनियर्स (द बॉम्बे सैपर्स) में कमीशन दिया गया था। जहां मैनें रैपिड इंजीनियर रेजिमेंट की कमान संभाली। सेना में शामिल होना भी कई रोचक अनुभवों के बाद हुआ।
बीटेक के बाद आईएमए गया, मौजूदा सेना अध्यक्ष से दो साल वरिष्ठ
मैंने बीटेक करने के बाद फौज ज्वाइन की। भले ही मैंने एनडीए और साक्षात्कार के लिए यूपीएससी द्वारा आयोजित लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन मैं रीढ़ की हड्डी की विकृति (लम्बर स्कोलियोसिस) की वजह से चिकित्सकीय रूप से अयोग्य पाया गया था। यह एक बहुत ही छोटी सी विकृति थी।
हालांकि, मेडिकल बोर्ड द्वारा मेरी अस्वीकृति के बाद भिलाई में आर्थोपेडिक सर्जन ने मुझे यह कहकर मेरा मनोबल बढ़ाया कि फिजियोथेरेपी अभ्यास से इसे ठीक किया जा सकता है। इसलिए, अनिच्छा से मैं बी टेक कोर्स में शामिल हो गया लेकिन ईमानदारी से निर्धारित फिजियोथेरेपी अभ्यास भी करता रहा। जब तक मैंने अपना बीटेक पूरा किया, तब तक मेरी तकलीफ में कुछ सुधार भी हुआ। इसके बाद जब मैंने दोबारा आवेदन किया, तो मैं चिकित्सकीय रूप से फिट पाया गया था।
इस तरह मैंने बी टेक के बाद अपने प्रशिक्षण के लिए भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) देहरादून में प्रवेश लिया।
राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) के माध्यम से सेना में प्रवेश के लिए स्कूली शिक्षा के बाद तीन साल का कोर्स होता है। इसके बाद आईएमए में एक साल देना होता है। लेकिन मेरी तरह तमाम तकनीकी स्नातकों के लिए नियम यह है कि अपने तीन वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम के उपरांत एक साल के प्रशिक्षण के लिए सीधे भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) में प्रवेश ले सकते हैं।
इसलिए भले ही जनरल पांडे और मैनें जनवरी 1982 में भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) में एक साथ प्रवेश लिया और हम दिसंबर 1982 में एक साथ पास आउट हुए फिर भी मैं एक तकनीकी स्नातक होने के नाते पूर्व-तारीख की वरिष्ठता के आधार पर उनसे दो साल वरिष्ठ हूं।
हम रहते थे सेक्टर-4 में, स्मृति नगर में पहला आवास भी हमारा था
जब अप्पा (पिताजी) 1957 में सोवियत रूस से तकनीकी प्रशिक्षण लेकर लौटे तो सेक्टर-1 में कुछ आवास बन गए थे और विवाहित इंजीनियरों को आवंटित किए जा रहे थे। अप्पा को सेक्टर-1 की स्ट्रीट-4 में एक आवास आवंटित हुआ। जिसका क्वार्टर नंबर मुझे याद नहीं। मैं तब बहुत छोटा था, इसलिए उस घर की भी मुझे याद नहीं है। इसी दौरान सेक्टर-4 में आवास तैयार हो रहे थे। तब टाइप-4 का आवास अप्पा को अलॉट हुआ।
हम सेक्टर-4 के स्ट्रीट-20 में 2 ए में रहते थे। जहां अप्पा की भिलाई की पूरी सेवा अक्टूबर 1981 तक हम रहे। इसके बाद अप्पा का तबादला कुल्टी आयरन वर्क्स हो गया। भिलाई में रहते अप्पा ने स्मृति नगर में प्लॉट खरीद लिया था। जब कुल्टी से वह रिटायर हुए तो उन्होंने भिलाई इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन (बीईसी) ज्वाइन कर ली।
तब वैशाली नगर में बीईसी की तरफ से उन्हें आवास दिया गया था। इसी दौरान हमारा स्मृति नगर का मकान भी बन गया। शायद वह स्मृति नगर कालोनी का पहला मकान था। वहां 1991 तक रहे और उसके बाद कर्नाटक लौट गए।
शुरूआती दौर के इंजीनियर थे मेरे पिता
मेरे अप्पा के. गुरुराजा उडुपा ने 2 अगस्त 1956 को भिलाई स्टील प्रोजेक्ट से अपनी सेवा की शुरूआत की थी। भिलाई से तत्कालीन सोवियत संघ जाकर तकनीकी प्रशिक्षण लेने वाले पहले बैच के वह सदस्य थे। जो 4 सितंबर 1956 को भिलाई से रवाना हुआ। तब के सोवियत संघ में आज के यूक्रेन वाले हिस्से के अज्वस्ताल स्टील प्लांट में अप्पा के समूह को रोलिंग, फाउंड्री एंड पैटर्न का तकनीकी प्रशिक्षण दिया गया।
वहां से लौटने पर उन्हें भिलाई में फाउंड्री एंड पैटर्न शॉप में पदस्थ किया गया। जहां वे जूनियर इंजीनियर, असिस्टेंट फोरमैन, फोरमैन, असिस्टेंट जनरल फोरमैन और जनरल फोरमैन के पद तक पहुंचे। यहां से उन्हें इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी कुल्टी में सुप्रिंटेंडेंट (प्रोडक्ट डेवलपमेंट) बना कर भेजा गया।
जहां से वह 1986 को सेवा निवृत्त हुए। 18 मई 2916 को इंदौर में उनका निधन हुआ और उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप उनकी पार्थिव काया एमजीएम मेडिकल कॉलेज इंदौर के सुपुर्द कर दी गई। अप्पा ने ‘द आटोबायोग्राफी ऑफ एन आयरन एंड स्टील इंजीनियर’ नाम से किताब लिखी थी। जिसमें उन्होंने भिलाई के शुरूआती दौर, रूस में भिलाई के इंजीनियरों के तकनीकी प्रशिक्षण से लेकर भिलाई के अपने करियर और निजी जीवन का उल्लेख किया है।
अब उडूपी मेरा घर, भिलाई को याद कर लिखता रहता हूं
मैनें अप्रैल 2007 में भारतीय सेना से समय से पहले सेवानिवृत्ति ले ली। सेवानिवृत्ति के बाद मैनें भारतीय प्रबंधन संस्थान-इंदौर में अपनी सेवाएं दी। वर्तमान में मैं उडुपी-मणिपाल (कर्नाटक) में रह रहा हूं और भिलाई में बिताए अपने दिनों सहित सम-सामयिक विषयों पर राष्ट्रीय समाचार पत्रों व कई प्रतिष्ठित वेबसाइट पर लगातार लिखता रहता हूं। ktudupa@gmail.com पर मुझसे संपर्क किया जा सकता है।
फोटो साभार:-कर्नल तम्मैया, सूबेदार मेजर बी एस कदम और सोशल मीडिया