बदलाव के 75 साल में चित्तूर के
लोगों ने खुद को साबित किया
हैदराबाद। आंध्र प्रदेश के थावनमपल्ले मंडल का अरगोंडा गाँव अपने आम की किस्मों, बंगनपल्ले, नीलम, इमाम पसंद, तोतापुरी,Banganapalle, Neelam, Imam Pasand, Totapuri के लिए मशहूर है। लेकिन कुछ दशक पहले तक यहां के किसान धान और उसके बाद गन्ना उगाने के लिए जाने जाते थे। यह बदलाव यहां कैसे हुआ? इसके पीछे भी रोचक तथ्य है। बयासी वर्षीय श्रीरामुलु रेड्डी अपनी बचपन की यादों में खो गए, वह अपने भाइयों के साथ जिस खेत में खेला करते थे, आज वो चारों तरफ से घिर गया है।
आंध्र प्रदेश Andhra Pradesh के चित्तूर जिले Chittoor District के थावनमपल्ले मंडल के अरगोंडा गाँव में मौजूद 100 एकड़ खेत में बने घर के बरामदे में सामने कुर्सी पर बैठे बुजुर्ग ने बताया, ”इस खेत के पास एक झील थी जिसमें मेरे पिता ने हमें तैरना सिखाया था और यहां कुछ पेड़ थे जिसपर लड़कियां झूला डालती थीं।”
श्रीरामुलु के पास 15 अगस्त 1947 की यादें हैं। थावनमपल्ले Thaavanampalle के एक स्कूल ने अपने बच्चों को बताया कि उस दिन से, भारत एक स्वतंत्र देश है। सात साल के श्रीरामुलु, अपने बड़े भाई और अपने दोस्तों के साथ महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर लहराते हुए सड़कों पर दौड़ पड़े। वे नारियल, आंवला और नीम के पेड़ों से लदे अपने पुश्तैनी खेत की तरफ भागे, 82 वर्षीय बुजुर्ग ने याद ताजा कर दी। वे पेड़ अब खत्म हो चुके हैं और उनकी जगह पर आम के बागान लग गए हैं।
1940 के दशक में जहां पर धान की खेती होती थी, अब वहां आम के पेड़ हैं, जिनकी छाया गर्मी की धूप से राहत देते हैं। हालांकि, अरगोंडा गाँव Aragonda Village का बदलता हुआ कृषि परिदृश्य– धान से गन्ने तक और अब आम के बागान– यह याद दिलाता है कि जलवायु परिवर्तन और अनिश्चित बारिश पैटर्न Climate change and erratic rain patterns किसानों को कैसे प्रभावित कर रहा है। थावनमपल्ले मंडल का अरगोंडा गाँव आज अपने आमों के लिए मशहूर हैं।
यह मंडल चित्तूर जिले में है, जो विजयनगर और विशाखापट्टनम के साथ, आंध्र प्रदेश को उत्तर प्रदेश के बाद भारत का दूसरा सबसे बड़ा आम उत्पादक राज्य बनाने के लिए जिम्मेदार है। बंगनपल्ले, नीलम, इमाम पसंद, तोतापुरी- हर गर्मी में यहां 8 से 10 प्रकार के आम होते हैं। हर आम का अपना अलग स्वाद होता है।
तोतापुरी का पल्प बनाना आसान है, इमाम पसंद सबसे टेस्टी है, और नातू मवादिकाया का अचार सबसे अच्छा होता है। लेकिन पीला आम अरगोंडा की पहचान बनने से बहुत पहले, ये गाँव गुड़ के लिए मशहूर था।
अरगोंडा का लगभग हर आम का खेत कभी गन्ने का खेत हुआ करता था, और उससे पहले धान का खेत। यह बदलाव इस बात का निशानी है कि कैसे जलवायु परिवर्तन और दूसरे कारक सीधे तौर पर किसानों के विकास और हमारे खाने को प्रभावित करते हैं।
पहले धान फिर गन्ना और अब आम 67 वर्षीय बाबू रेड्डी ने बताया, ”मुझे याद है कि मेरे बचपन में सात साल तक सूखा पड़ा था। बाबू रेड्डी अपनी पत्नी चित्तम्मा के साथ उन आमों की तरह पीले रंग से रंगे अपने घर में रहते हैं जो उनके 10 एकड़ के फार्म में फलते हैं।”
अरगोंडा के दूसरे लोगों की तरह, वह भी आम की पैदावार से पहले गन्ना उगाते थे। उन्होंने बताया कि 60 और 70 के दशक में पड़े सूखे ने अरगोंडा को सूखे क्षेत्र में बदल दिया, जिसे हम आज भी जानते हैं।
जबकि इलाके में मशहूर है कि चित्तूर में वर्षा का स्तर दशकों से धीरे धीरे कम हो रहा है, लेकिन इसका समर्थन करने वाले मौसमी आंकड़े काफी कम हैं। आंध्र प्रदेश में वर्षा भिन्नता पर भारत मौसम विज्ञान विभाग की तरफ से 2020 में किए गए एक अध्ययन में 1989 से 2018 तक के 30 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है।
हालांकि आईएमडी ने कहा है कि मुकम्मल तौर पर राज्य के लिए सालाना बारिश किसी भी सांख्यिकी के एतबार से किसी अहम रुझान का संकेत नहीं देती है, पता चला है कि आंध्र प्रदेश के सभी जिलों के ज्यादातर स्टेशनों ने सूखे दिनों में बढ़ोतरी का रुझान दिखाया। बाबू रेड्डी ने बताया, ”हर एतबार से, भूजल का स्तर गिर रहा है,1972 से अब तक, हमने अपनी जमीन पर 10 बोरवेल खोदे हैं।”
हैदराबाद स्थित कंसोर्टियम ऑफ इंडियन फार्मर्स एसोसिएशन Consortium of Indian Farmers Association के महासचिव पी चेंगल रेड्डी General Secretary P Chengal Reddy ने बताया कि गन्ने के खेतों में गिरावट जलवायु के परिणाम के साथ साथ बाजार का भी परिणाम है।
चेंगल रेड्डी ने बताया, ”चित्तूर चीनी कारखानों का केंद्र हुआ करता था। लेकिन जब से पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) के लिए चीनी की खरीद शुरू हुई, तब से मार्केट मूल्य कंट्रोल होना शुरू हो गया, जबकि डीजल, कीटनाशक और इसके उत्पादन में इस्तेमाल की जाने वाली हर चीज की कीमत वही रही।”
उन्होंने आगे बताया, ”किसानों को कम कीमत पर चीनी बेचने के लिए मजबूर किया गया, जिससे मुनाफा घट गया। आखिरकार, वर्ष 2000 के दशक तक इस जिले का चीनी उद्योग बर्बाद हो गया।” श्रीरामुलु के बचपन में फसल चक्र अधिक लोकप्रिय था। उन्होने बताया, “उन दिनों, अगर हम एक साल धान उगाते थे, तो हम दूसरे साल गन्ना और तीसरे साल रागी उगाते थे। वह स्टेशन मिट्टी के लिए अच्छी थी।”
वह अपने 10 एकड़ के खेत में आम की खेती करते हैं। तीन एकड़ खेत के मालिक के. रमेश कुमार ने बताया, “धान या रागी उगाने के लिए खुले मैदान की जरूरत होती है जहां बहुत सारी सूरज की रौशनी हो। इसलिए आम के मौसमी होने के बावजूद भी इसके साथ कुछ और नहीं उगा सकता। समय के आधार पर खेत के अलग अलग हिस्सों पर पेड़ों की छाया और दिन और सूरज की रोशनी के कोण की वजह से अच्छी उपज नहीं होगी।
सिर्फ एक विकल्प आम अरगोंडा के किसानों के लिए आम के बाग लगाना एक मात्र विकल्प बन गया है। रमेश ने अपने खेत में नीलम के पेड़ों में से एक पेड़ को देखा और महसूस किया कि इस गर्मी में भी यह उतना नहीं गिरा जितना एक भारी लदा हुआ पेड़ गिरता है। यह उसके कुछ पड़ोसियों से कुछ बेहतर हो सकता है।
उन्होंने बताया कि सामने वाले घर के लोग जो अभी भी धान उगा रहे थे, उन्हें पिछले दो सालों में 40 रुपये तक के नुकसान का सामना करना पड़ा है, मुख्य तौर पर गैर मुनासिब मौसमी घटनाओं की वजह से जैसे बेमौसम बारिश, जिसके नतीजे में नवंबर 2021 में इस क्षेत्र में बाढ़ देखी गई। फिर भी उनके जैसे छोटे किसानों को स्थानीय कारखानों और राजनेताओं के साथ मिल काम करने वाले लोगों की तरफ से निर्धारित कीमतों का हुक्म दिया जाता है।
थोक बाजारों की नीलामियों में बंगनपल्ली 40 रुपये प्रति किलो और इमाम पसंद 110 रुपये प्रति किलो बिकता है। अपने 3 एकड़ के आम की बाग में के रमेश कुमार। पिछले साल उन्हें तोतापुरमी आमों को 6 रुपये प्रति किलो के सस्ते दाम पर बेचना पड़ा था। फोटो: राजू पाटिल अपने 3 एकड़ के आम की बाग में के रमेश कुमार। पिछले साल उन्हें तोतापुरमी आमों को 6 रुपये प्रति किलो के सस्ते दाम पर बेचना पड़ा था।
रमेश ने बताया, ”पिछले साल, हमें उम्मीद थी कि तोतापुरी के कम से कम 12 रुपये प्रति किलो बिकेंगे। कृषि कारखाने पल्प के लिए तोतापुरी खरीदते हैं। कुछ राजनेताओं के साथ, वे हर हफ्ते कीमत घटाते रहे यहाँ तक कि यह 6 रुपये प्रति किलो तक आ गया। फसल के मौसम के दौरान हम कुछ कह या कर नहीं सकते थे। दूसरा विकल्प यह होता कि आम को गिरने और सड़ने दिया जाए।”
चित्तूर में खेती का भविष्य लेकिन आम भी लंबे समय तक किसान के लिए टिकाऊ नहीं हो सकता है। फल की मौसमी प्रकृति का मतलब है कि आवश्यक श्रम अनियमित और बेकार है। जलवायु परिवर्तन और गिरते भूजल से फसल की पैदावार प्रभावित होती है। जिससे खेती की लागत बढ़ जाती है। हकीकत में, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के 2020 के आंकड़ों के मुताबिक, कर्ज की वजह से किसानों की आत्महत्या दर्ज की गई है, किसानों के आत्महत्याओं की तीसरी सबसे बड़ी तादाद आंध्र प्रदेश में है। छोटी जोत वाले लोग खुद को बनाए रखने में सक्षम नहीं हो सकते हैं।
वे खेती छोड़ सकते हैं, और बेंगलुरु और चेन्नई जैसे महानगरीय शहरों में प्रवास कर सकते हैं, जहाँ अब बेहतर सड़कों और पुलों की वजह से पहुंचना आसान है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी, छोटे व्यवसायों, अस्पतालों और कॉलेजों की स्थापना के साथ, रोजी रोटी कमाने के लिए खेती के अलावा रोजगार के अधिक आकर्षक विकल्प हैं। श्रीरामुलु, जिन्होंने आठ दशकों तक की खेती देखी है, ने ऊंची आवाज में कहा-अगले 10 वर्षों में मिट्टी कैसी होगी? तब हम क्या उगा सकेंगे?
लेखिका श्वेता अकुंडी writer Shweta Akundi अपोलो फाउंडेशन Apollo Foundation में कंटेंट राइटर content writer हैं, जहां वह आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के गाँवों पर आर्टिकल लिखती हैं। वह द हिंदू की पूर्व पत्रकार हैं। अंग्रेजी से अनुवाद: मोहम्मद अब्दुल्ला सिद्दीकी Mohd Abdullah Siddiqui