समय-समय पर बदलते रहा है हमारे तिरंगे का डिजाइन
हर साल राष्ट्रीय पर्व के दौरान यह बहस सरगर्म हो जाती है कि हमारा राष्ट्रीय ध्वज किसने डिजाइन किया? हालांकि इसका सबसे आसान जवाब तो यही है कि-हमारा राष्ट्रीय ध्वज किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि समय,काल व परिस्थिति अनुसार समय-समय पर हुए बदलाव का नतीजा रहा है।

हालांकि सच यह है कि पिंगली वैंकैया का डिजाइन किया राष्ट्रीय ध्वज अपने मध्य में गांधी जी के चरखे का प्रतीक लिए हुए था और अंतिम तौर पर जिस राष्ट्रीय ध्वज को देश ने अपनाया उसमें चरखे की जगह अशोक चक्र से लिया गया चक्र था। इस चक्र के तिरंगे के बीच में स्थापित होने की कहानी भी दिलचस्प है।
तब के वरिष्ठ नौकरशाह बदरुद्दीन तैयबजी और उनकी पत्नी सुरैया तैयबजी ने यह डिजाइन दिया था। शुरू में तैयबजी दंपति द्वारा दिया गया डिजाइन काले चक्र के साथ था, जिसमें महात्मा गांधी ने बदलाव करवाया और इसे काले के बजाए नीला रखवाया।
देश भर में राष्ट्रीय ध्वज डिजाइन करने की बहस के बीच तैयबजी दंपति की इकलौती बेटी लैला तैयबजी ने अब अपनी चुप्पी तोड़ी है। एक राष्ट्रीय पत्रिका में उन्होंने इस पर तफसील से लिखा है कि कैसै उनके माता-पिता ने राष्ट्रीय ध्वज के अंतिम डिजाइन को मूर्त रूप दिया। लैला तैयबजी भारत में पारंपरिक शिल्प के पुनरुद्धार के लिए काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन दस्तकार की संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष हैं।

लैला इस बारे में बताती हैं-बंटवारे से ठीक पहले मेरे पिता बदरुद्दीन तैयबजी संविधान सभा में एक सिविल अफसर थे और मेरी माँ सुरैया तैयबजी लाल किले में स्थापित हो रहे शरणार्थी शिविरों में व्यस्त थीं। इस दौरान चौंकाने वाली बात यह थी कि रिश्तेदारों सहित कितने ही लोगों ने मेरे माता-पिता से पाकिस्तान जाने जोर डाला, लेकिन दोनों ने भारत के बहुसांस्कृतिक व विविध लोकाचार को समर्थन हुए वहां जाने से साफ इनकार कर दिया। यहां तक कि मेरे पिता को प्रतिष्ठित भारतीय सिविल सेवा के हिस्से के रूप में नवगठित पाकिस्तान सरकार में एक शीर्ष भूमिका की पेशकश की गई थी। इसके बावजूद उन्होंने वहां जाने से इनकार कर दिया।
इस दौरान मेरे पिता ने अपने पिता को लिखा-”आपको मुझे यकीन है कि आपको यह सुनकर हैरानी नहीं होगी कि मैंने भारत (हिंदुस्तान) में रहने और पाकिस्तान नहीं जाने का इरादा किया है। मैं मुस्लिम लीग की विचारधारा और मानसिकता का बिल्कुल विरोध करता हूं और यह मेरे सभी आदर्शों और आशाओं के साथ घोर विश्वासघात होता अगर मैं उन्हें उन मोहक पदों के लिए गिर जाता जो वे मुस्लिम अधिकारियों को दे रहे हैं।”

लैला बताती हैं-अचानक, लोगों ने महसूस किया कि हमारा देश कुछ ही महीनों में आजाद होने जा रहा है और हमें एक राष्ट्रीय प्रतीक की आवश्यकता है। तो, जवाहरलाल नेहरू ने मेरे पिता की ओर रुख किया और कहा, ‘बद्र, इस अहम काम के लिए आप पर नजरें टिकी हैं, इस पर जल्द कुछ करें …’ मेरे पिता ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक ध्वज समिति की स्थापना की, और कलाओं से जुड़े स्कूलों से राष्ट्रीय ध्वज के लिए डिजाइन तैयार करने कहा गया। जवाब में सैकड़ों प्रविष्टियां आईं लेकिन, सब काफी अजीब थीं।
उनमें से बहुत से तो ब्रिटेन के राष्ट्रीय प्रतीक से बहुत अधिक प्रभावित नजर आ रहे थे। ज्यादातर में हाथी और बाघ, या हिरण और हंस ने ब्रिटिश ताज के दोनों ओर शेर और गेंडे की जगह ले ली थी। कहीं कहीं तो ताज को ही कमल या कलश या कुछ इसी तरह से बदल दिया गया था।
इस बीच, इसके बारे में ज्यादा सोचे बिना, सभी ने मान लिया था कि पिंगली वेंकैया के डिजाइन पर बना झंडा ही राष्ट्रीय ध्वज होगा, जिसके बीच में गांधीजी का चरखा है। क्योंकि हमारा स्वतंत्रता संग्राम भी इसके बैनर तले ही लड़ा गया था। हालाँकि, आम विरोध यही था कि किसी पार्टी का झंडा एक राष्ट्र का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।
ऐसे में, मेरे माता-पिता को राष्ट्रीय ध्वज को फिर से डिजाइन करने का काम सौंपा गया। इसके बाद उन्होंने उसी अशोक चक्र को लिया और तिरंगे पर चरखे की जगह रख दिया। एक बार जब यह हो गया, तो यह सब बेहद स्वाभाविक और स्पष्ट लग रहा था। मूल रूप से, मेरी मां ने एक काला चक्र चित्रित किया था। इसे देखकर गांधीजी ने इसे बदलने कहा और चक्र नीले रंग का रखने सुझाव दिया। इस तरह मेरी मां के अभिकल्पित राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र नीले रंग का किया गया।

लैला तैयबजी के मुताबिक-वर्षों से, राष्ट्रीय ध्वज की कहानी हर अगस्त में सामने आती है। हालांकि, कोई भी अशोक चक्र प्रतीक के बारे में बात नहीं करता है। कई विरोधाभासी दावे भी किए जाते हैं-जिसमें उस समय दिल्ली में तैनात चीनी राजदूत ने अपनी प्रकाशित डायरियों में लिखा था कि अशोक चक्र को प्रेरणा के रूप में इस्तेमाल करना उनका दिया विचार था।
दुर्भाग्य से उन्होंने विशिष्ट तिथि का उल्लेख करते हुए जवाहरलाल नेहरू को यह सुझाव देने जिस डिनर पार्टी का दावा किया था,आधिकारिक तौर पर इसके पहले ही अशोक चक्र को स्वीकार कर लिया गया था।
लैला बताती हैं-मेरी माँ उस समय 28 बरस की थीं। मेरे पिता और उन्होंने कभी कहीं प्रचारित ही नहीं किया कि उन्होंने राष्ट्रीय प्रतीक ‘डिज़ाइन’ किया है। उन्होंने तो बस देशवासियों को कुछ ऐसा याद दिलाया जो हमेशा से उसकी पहचान का हिस्सा रहा है।

लैला कहती हैं-देश की स्वतंत्रता के साथ जब मैं बड़ी हो रही थी, अशोक और अकबर ‘नए भारत’ के पौराणिक नायक थे। दोनों हमारी एक शानदार मेलजोल वाली अखिल भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते थे। इसी तरह गांधी इसके सम्मानित दार्शनिक संत थे। वहीं बुद्ध, कबीर और गुरु नानक भी हमारे समुदाय का हिस्सा थे। हालाँकि, वर्तमान में ऐसा नहीं हैं।
आज अगर मेरे माता-पिता जीवित होते तो हमारे राष्ट्रीय ध्वज की डिजाइन को लेकर हाल के बरसों में सोशल मीडिया पर इसकी कहानी के कई संस्करणों से हैरान रह जाते। खुद मुझे भी हैरानी हुई कि इस कहानी से अब मेरे पिता को पूरी तरह से बाहर कर दिया गया है। हालांकि यह डिजाइन मेरे माता-पिता का एक संयुक्त प्रयास था। लैला के मुताबिक- मेरे पिता गवाह थे कि पहला राष्ट्रीय ध्वज कनॉट प्लेस में एडी टेलर्स एंड ड्रेपर्स द्वारा मेरी मां की देखरेख में सिलवाया गया, जिसे रायसीना हिल पर फहराया गया।
तिरंगे पर कुछ और तथ्य
अंग्रेज इतिहासकार ने बताई हकीकत
एक अंग्रेज़ इतिहासकार ट्रेवर रोयेल ने अपनी किताब ‘द लास्ट डेज़ ऑफ़ राज’ में लिखा है कि भारत का अंतिम राष्ट्रीय ध्वज सुरैया तैयबजी ने बनाया था। सुरैया से पहले भी बहुत से लोगों ने समय-समय पर ध्वज के डिजाईन दिए थे। इन लोगों में भगिनी निवेदिता, मैडम कामा, एनी बेसेंट, लोकमान्य तिलक और पिंगली वेंकैया जैसे नाम शामिल हैं।
साल 1921 में पहली बार महात्मा गाँधी ने कांग्रेस के सम्मेलन में अपना एक ध्वज बनाने की बात उठाई थी। उसके बाद ही फ़ैसला हुआ कि भारत का अपना एक झंडा, एक ध्वज होगा, जो कि भारत का एक राष्ट्र के तौर पर प्रतिनिधित्व करेगा। उन्होंने कहा,“यह हम सब भारतीयों (हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, यहूदी, पारसी, और वो सभी लोग जिनके लिए भारत उनका घर है) के लिए बहुत जरूरी है कि हमारा अपना एक ध्वज हो, जिसके लिए हम जिए और मर सकें।”
गाँधी जी के इस विचार से प्रभावित होकर बहुत से सेनानी और क्रांतिकारियों ने ध्वज के लिए डिजाईन विकल्प के तौर पर दिए। इनमें से गाँधी जी ने एक झंडे को स्वीकृति दी। इस झंडे को डिजाईन किया था आंध्र प्रदेश के पिंगली वेंकैया ने। इस झंडे में दो रंग- लाल और हरा का इस्तेमाल हुआ था। हालांकि, गाँधी जी के सुझाव पर इसमें सफ़ेद रंग भी जोड़ा गया और साथ ही, चरखे का चिह्न भी इस्तेमाल हुआ।
अंतत: तैयबजी दंपति का डिजाइन किया ध्वज ही हुआ स्वीकार
हालांकि, बाद के वर्षों में इस में और भी बदलाव हुए। और आखिर में, जो तीन रंग का ध्वज जवाहर लाल नेहरू की कार पर लगाया गया, वह सुरैया ने बनाया था। रिपोर्ट के मुताबिक, बदरुद्दीन और सुरैया तैयबजी दंपति ने ही ध्वज में चरखे की जगह अशोक चक्र के चिह्न को इस्तेमाल करने का सुझाव दिया था। सुरैया ने ही इस ध्वज का ग्राफिक खाका तैयार किया। यहाँ तक कि पहला तिरंगा सुरैया ने खुद अपनी देख-रेख में दर्जी से सिलवाया था और इस तिरंगे को नेहरु जी को भेंट किया गया। पहली बार प्रधानमंत्री की कार पर जो तिरंगा लहरा, वह सुरैया ने दिया था।
इस ध्वज को 22 जुलाई 1947 को मंजूरी मिली। हालांकि, उस समय संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज को लेकर जो प्रस्ताव पारित हुआ था, उसमें ना तो पिंगली वेंकैया के नाम का उल्लेख था और ना ही सुरैया तैयबजी का। सुरैया और उनके पति ने भी कभी यह दावा नहीं किया कि राष्ट्रीय ध्वज उन्होंने बनाया है।
वे इस बात का पूरा सम्मान करते थे कि तिरंगे की मूल नींव वेंकैया ने रखी थी। इसलिए आज भी ध्वज के निर्माणकर्ता के नाम पर संशय रहता है। लेकिन इस बात को कोई नहीं नकार सकता कि ये सुरैया का ध्वज को अंतिम रूप देने में कोई योगदान नहीं था।
पर भारत की और भी बहुत-सी महान महिलाओं की तरह इतिहास में सुरैया तैयबजी को भी कोई खास स्थान नहीं मिला। जबकि, कहीं न कहीं सुरैया एक कारण है कि आज केसरिया, सफ़ेद और हरा रंग हमें देशभक्ति की भावना से भर देता है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हम भारत की इस बेटी को सम्मान और सराहना से नवाज़ें।