भारतीय संगीत जगत की अद्वितीय हस्ती
सलील चौधरी की आज पुण्यतिथि पर विशेष
आलेख/मनोहर महाजन
” असम की हरीतिमा लिए चाय बागानों में चहचहाते पक्षियों के कलरव को बांसुरी की धुन पर साधते और वहां की मंद मंद समीर की थापों पर साथ मोज़ार्ट की सिंफनियों को गुनगुनाते सलिल चौधरी ने बचपन से जवानी में क़दम रखा और ऐसे संगीत का सृजन किया जिसमे सर्वहारा का दर्द और आम आदमी के रोज़मर्रा जीवन की जद्दोजहद शामिल थी।
सलिल चौधरी का जन्म 19 नवम्बर, 1923 को सोनारपुर पश्चिम बंगाल में हुआ था। वहीं सलिल दा का निधन 5 सितंबर 1995 को कोलकाता में हुआ। उनके पिता ज्ञानेन्द्र चंद्र चौधरी असम में डॉक्टर थे.सलिल चौधरी का अधिकतर बचपन असम में ही बीता था। बचपन के दिनों से ही उनका रुझान संगीत की ओर था और वह संगीतकार बनना चाहते थे। हालांकि उन्होंने किसी उस्ताद से संगीत की पारंपरिक शिक्षा नहीं ली थी।
बड़े भाई ऑर्केस्ट्रा में थे, यहीं से बढ़ा संगीत के प्रति रुझान
हाँ, सलिल चौधरी के बडे़ भाई एक ऑर्केस्ट्रा मे काम किया करते थे। उनके साथ के कारण ही सलिल दा हर तरह के वाद्य यंत्रों से भली-भांति परिचत हो गए थे। कुछ समय के बाद वह शिक्षा प्राप्त करने के लिए बंगाल आ गए। सलिल चौधरी ने अपनी स्नातक की शिक्षा कोलकाता के मशहूर ‘बंगावासी कॉलेज’ से पूरी की थी।
सलिल चौधरी के कई परिचय हो सकते हैं। महान संगीतकार, लेखक, गीतकार और फ़िल्म समीक्षक.एक परिचय और है जिसके साये में उनके ये सारे हुनर परवान चढ़े. वह है -‘साम्यवाद के प्रति उनका रुझान। उन्होंने साम्यवाद को न सिर्फ़ अपने संगीत में ढाला,उसे जिया भी.उनकी लिखी कहानियों,लेखों और जीवन शैली में भी ये परिलक्षित होता है।
सिर्फ बंगाल ही नहीं पंजाबी, पाश्चात्य सिम्फनीज़ और हार्मनी का व्यापक प्रयोग भी
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सलिल चौधरी के संगीत में बंगाली प्रभाव ही नहीं,बल्कि पंजाबी, पाश्चात्य सिम्फनीज़ और हार्मनी का व्यापक प्रयोग भी दिखता है। बिमल रॉय की सर्वकालिक महान फ़िल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ का गीत:”..धरती कहे पुकार के, तू बीज बिछा ले प्यार के..”इस बात की तस्दीक करता है कि समाजवाद के प्रभाव के चलते उनके संगीत में सर्वहारा की पीड़ाएं और आशाएं, दोनों ही नज़र आती हैं। यह बात कम ही लोगों को मालूम है कि ‘दो बीघा ज़मीन’ की कहानी सलिल चौधरी की कहानी ‘रिक्शावाला’ पर आधारित था.
उन्होंने बांग्ला और हिंदी समेत दस भाषाओं की फिल्मों में संगीत दिया। मलयालम फिल्म ‘चेम्मीन’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार पाया।सलिल चौधरी बैकग्राउंड म्यूज़िक देने वाले माहिरों में से में से एक थे। ‘देवदास’ के बैकग्राउंड म्यूज़िक में विमल रॉय ने सचिन देव बर्मन की जगह ये काम सलिल चौधरी को सौंपा था।
कई फिल्मों में बैकग्राउंड भी दिया
मदन मोहन की अचानक मृत्यु की वजह से गुलज़ार ने भी फ़िल्म ‘मौसम’ का बैकग्राउंड म्यूज़िक से सलिल चौधरी से तैयार करवाया था। यही नहीं से सलिलदा का संगीत फ़िल्म की भावनाओं के इतना अनुकूल और सटीक होता था कि जिन फिल्मों में गानों की गुंजाइश नहीं होती थी,उनके बैकग्राउंड म्यूजिक के लिए उन्हें बुलाया जाता था।
बी.आर. चोपड़ा की बिना गानों वाली ‘कानून’ (1960), यश चोपड़ा की ‘इत्तेफाक’ (1969), गुलज़ार की ‘अचानक’ (1973) या बासु चटर्जी की ‘कमला की मौत’ (1989) उनकी इस प्रतिभा के ज्वलन्त उदारण हैं। वहीं उन्होंने यश चोपड़ा की ब्लाकबस्टर हिट फिल्म ‘काला पत्थर‘ का भी बैकग्राउंड म्यूजिक दिया।
उनकी कंपोजिशन में होते थे विरल स्केल
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सलिल चौधरी के संगीत का दायरा बेहद विशाल है.यह ‘फ़िल्मी’ भी है और ‘ग़ैर-फ़िल्मी’ भी जिसने ‘हिंदी’ से लेकर ‘बांग्ला’ और ‘मलयालम’ भाषाओं तक एक बड़ा सफर तय किया.संगीत में माधुर्य रचने में उनका सानी नहीं है। पर उनके कई कम्पोज़ीशन में इतने स्केल होते थे कि गायकों के लिए उन्हें गाना बिलकुल भी आसान नहीं होता था। मिसाल के तौर पर फ़िल्म ‘माया’ (1961) का गाना, ‘तस्वीर तेरी दिल में’ की बात करते हैं।
बताते हैं कि इस डुएट गाने के लिए महान मोहम्मद रफ़ी ने 11 बार रीटेक दिए थे। इसी तरह 1972 में आई फ़िल्म ‘अन्नदाता’ का एक गीत है – ‘गुजर जाए दिन दिन दिन’। इसके मुखड़े और अंतरों में स्केल का इतना परिवर्तन है कि सलिल को भी एक बार लगा कि क्या कोई इसे गा पायेगा?
हरफ़नमौला किशोर कुमार को इस फ़िल्म के लिए अनुबंधित किया गया था। उनसे तो सलिल चौधरी को दूर-दूर तक उम्मीद नहीं थी। किशोर दा ने इसे गाने से पहले कई स्वांग किये। जैसे उन्होंने कहा कि वे सपने में भी इसे नहीं गा सकते। सलिल असमंजस में थे। पर जब किशोर ने रिकॉर्डिंग स्टूडियो में सुर लगाये तो वे चकित रह गए। गाना एक बार में ही पूरा हो गया। फिर सलिल चौधरी किशोर के मुरीद हो गए।
पसंदीदा गायक रहे मुकेश, बिमल रॉय कैम्प के स्थाई संगीतकार रहे
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इस सबके बावजूद सलिल चौधरी के पसंदीदा गायक मुकेश ही थे। फ़िल्म ‘मधुमती’, जिसकी संगीत रचना उनकी सबसे महान रचनाओं में से एक है, में दिलीप कुमार चाहते थे कि ‘सुहाना सफ़र’ गीत तलत महमूद गाएं। तलत साहब उन दिनों विदेश में कार्यक्रमों में व्यस्त थे। तलत साहब ने ही सलिल दा को सुझाया कि वे इसे मुकेश से गवाएं। दिलीप कुमार अचकचा रहे थे, पर मुकेश ने गाने को ‘सर्वकालिक’ बना।
सलिल का मानना था कि मुकेश अपनी गायकी में रेंज की कमी को ‘लय’ और ‘भावनाओं’ से पूरा कर लेते थे। मिसाल के तौर पर फ़िल्म ‘आनंद’(1970) का ‘कहीं दूर जब दिन ढल जाए’ तो हिंदी फ़िल्मों में दार्शनिक गानों की फ़ेहरिस्त में काफ़ी ऊपर आता है और उनकी कही बात को साबित करता है।
सलिल चौधरी महान निर्देशक बिमल रॉय कैंप के स्थायी संगीत निर्देशक थे। ऋषिकेश मुखर्जी, ऋत्विक घटक, कमल बोस, नुबेंदु घोष, रघुनाथ झालानी और गुलज़ार जैसे नाम इसी कैंप से जुड़े रहे। कमाल की बात है कि बिमल दा के बाद भी ये सभी किसी न किसी तौर पर एक दूसरे के साथ बने रहे। अपने सबसे पसंदीदा गीतकार शैलेंद्र के बाद सलिल चौधरी ने गुलज़ार और योगेश से गीत लिखवाए।
आखिरी दौर में लता ने कर लिया किनारा
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सलिल चौधरी के संगीत का एक और क़िस्सा है जो 1991 में बनी फ़िल्म ‘विवेकानंद’ से जुड़ा है। इस फ़िल्म के लिए जब वे लता जी को अनुबंधित करने के लिए उनके घर गए तो लता जी ने समय न होने का हवाला देकर सलिल दा को मना कर दिया।
जबकि वही एक संगीतकार थे जिन्होंने लता जी को हिन्दी ही नहीं बांग्ला फ़िल्मों की भी सबसे पसंदीदा गायिका बनाया थ। लता जी द्वारा उन्हें मना करने का कारण आज तक मेरी समझ से बाहर है!! शायद लता जी को ये डर रहा हो कि अब इस उम्र में वे उनके संगीत के साथ न्याय नहीं कर पाएंगी।
मलयालम फ़िल्मों में भी उनका संगीत बुलंदियों को छूता है। मिसाल के तौर पर हम 1965 में आई फ़िल्म ‘चेम्मीन’ को ले सकते हैं। इस सुपरहिट फिल्म का एक यादगार गीत ‘मानस मैने वरू’ सलिल चौधरी ने अपनी तरह के ‘खांटी बंगाली’ में मन्ना डे से गवाया था।
और मज़े की बात देखिए,बांग्ला में उन्होंने यह गीत मलयाली येसुदास से गवाया! ऐसे अजब-गजब एक्सपेरिमेंट सलिल दा ही कर सकते थे। उन्होंने इस उक्ति: ‘संगीत की कोई भाषा नहीं होती’ को पूरी तरह चरितार्थ कर दिया ।
संगीतकार, लेखक, गीतकार…सहित कई प्रतिभाएं थीं सलिल दा में
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कुल मिलाकर, सलिल चौधरी उन फ़िल्मी हस्तियों की श्रेणी में आते हैं जिनकी शख्सियत फ़िल्म की हर विधा को प्रभावित करती थी। फिर वह चाहे ‘संगीत’ हो या ‘स्क्रिप्ट’ या ‘बैकग्राउंड-म्यूज़िक’ या फिर ‘गीत’. ऐसे व्यक्तित्व विरले ही होते हैं और यह ‘विरलापन’ इस दौर में अब दिखाई नहीं देता!
‘दो बीघा जमीन’, ‘प्रेमपत्र’, ‘जागते रहो’ ‘माया’,’काबुली वाला’,छाया’,आनन्द’, ‘मेरे अपने’, ‘रजनीगन्धा’, ‘मौसम’, ‘जीवन ज्योति’, ‘नौकरी’, ‘मधुमती’, ‘हाफ़ टिकट, ‘उसने कहा था’ ‘रजनीगंधा’ आदि कई फिल्मों में अनमोल नगीनों की तरह बिखरी पड़ी उनकी रचनाओं को क्या कोई भुला सकता है? असंभव!!
इस बहुमुखी महान शख़्सियत को उनकी पुण्यतिथि पर कोटि कोटि नमन।