महान फिल्मकार सत्यजीत राॅय की 101 वीं जयंती पर विशेष
जाने-माने फिल्मकार सत्यजीत राय अपने प्रशंसकों के बीच माणिक दा के नाम से जाने जाते थे। 2 मई 1921 को जन्में माणिक दा ने अपने कालजयी कृतियों ने देश और दुनिया मेें अलग मकाम बनाया।
सिनेमा में अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें देश ने जहां भारत रत्न दिया वहीं प्रतिष्ठित ऑस्कर अवार्ड में उन्हें दिया गया। आज माणिक दा की जयंती पर उनसे जुड़े संस्मरण।
कनक तिवारी छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश का जाना माना नाम है। खास कर विधि के क्षेत्र में। कानूनविद कनक तिवारी के लेखन से समूचा देश परिचित है। वहीं जावेद सिद्दीकी पटकथा लेखन के क्षेत्र में स्वनामधन्य है। इन दोनों के माणिक दा को लेकर अनूठे संस्मरण अपने पाठकों के लिए।
जब माणिक दा बोले, मुझे किसी वकील से नहीं मिलना
कनक तिवारी
माणिक दा याने सत्यजीत राय के लिहाज से मेरे लिए 2 मई का दिन महत्वपूर्ण हो गया है। आज के दिन 1971 में भारतरत्न सत्यजीत राय 50 वर्ष पूरे कर अपने स्वर्ण जयंती वर्ष में पहुंचे थे। न जाने मैंने उन पर एक लेख लिखकर टाइम्स आफ इंडिया समूह की लोकप्रिय फि ल्म पत्रिका ‘माधुरी’ में छपने के लिए भेजा था।
सुधी संपादक अरविन्द कुमार ने लिख भेजा था कि इस लेख को किसी को मत दीजिए हम छाप रहे हैं। सत्यजीत राय के जन्मदिन के अवसर पर वह केन्द्रीय लेख के रूप में ‘माधुरी’ में भेजा। ढेरों सुंदर और रंगीन चित्रों के साथं वह अंक संग्रहणीय हो गया।
कुछ वर्षों बाद प्रेमचंद की मशहूर कथा पर आधारित फि ल्म ‘सद्गति’ की शूटिंग करने सत्यजीत राय 1981 में छत्तीसगढ़ आए। मुझे खबर लगी तो मैं सीधे दुर्ग की अदालत से काला कोट पहने रायपुर के सर्किट हाउस पहुंचा। बैठक कक्ष से देखा वे डायनिंग हाल में भोजन कर रहे थे। लगा शायद हबीब तनवीर भी साथ हैं। केयर टेकर ने बताया कोई वकील साहब मिलने आए हैं। मैंने साफ साफ सुना उन्होंने कहा मुझे किसी वकील से नहीं मिलना है।
मैं खिसिया गया। मैं तो जानबूझकर ‘माधुरी’ के लेख की मूल कतरन भी ले गया था। अपने बचाव में मैंने केयर टेकर के जरिए उसे ही भेज दिया। वह लेख देखते ही राय साहब के तेवर बदल गए। उन्होंने कहा बुलाओ। मैं डाइनिंग टेबल के दूसरी ओर कुरसी पर बैठ गया। उन्होंने अंगरेजी में कहा आप भी खाइए। मैंने विनम्रता से ना ही कर दी।
फिर वो बोले आपका यह लेख मुझे मिल गया था। बहुत अच्छा छपा है लेकिन आप जानते हैं इसकी हिन्दी मैं पढ़ नहीं पाता। मुझे किसी ने अनुवाद करके यह लेख बताया था और यह भी कहा था कि इसकी हिन्दी बड़ी क्लासिकल है। इतना प्रमाणपत्र मेरे लिए बहुत था।
बाद में कभी फेसबुक पर वह लेख डाला भी। तो कई लोगों ने स्वाभाविक ही सौजन्य के नाते तारीफ की लेकिन इन दिनों छत्तीसगढ़ शासन के साहित्य परिषद के अध्यक्ष और लेखक ईश्वर सिंह दोस्त ने फ ोन पर ही कहा कि सत्यजीत राय पर इससे बेहतर लेख तो मैंने नहीं पढ़ा,खैर…।
ए जावेद! वे सत्यजित राय तुमसे मिलना चाहते हैं
जावेद सिद्दीकी
पटकथा लेखक जावेद सिद्दीक़ी के रेखाचित्रों के संग्रह ‘रौशनदान’ में शामिल सत्यजित राय पर उनका यह रेखाचित्र राय की शख्सियत के साथ ही फि़ल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ बनने की प्रक्रिया का दस्तावेज़ भी है। यह पहली फि़ल्म थी, जावेद सिद्दीक़ी ने जिसके लिए संवाद भी लिखे थे। सत्यजीत राय को याद करते हुए जावेद सिद्दीकी लिखते हैं-
अक्टूबर, 1976 तक सत्यजित राय से मेरा ताल्लुक़ बस इतना था कि मैंने उनके बारे में दो-चार लेख पढ़े थे और आठ-दस फि़ल्में देखी थीं. फि़ल्में जितनी थीं देखीं, बहुत अच्छी लगीं क्योंकि ऐसी फि़ल्में पहले कभी नहीं देखी थीं. मुझे उनकी ‘जलसाघर’ बहुत पंसद आई थी। कुछ तो बेग़म अख़्तर की वजह से और कुछ इसलिए कि मैं भी उन्हीं हवेलियों में पला हुआ था, जहाँ किसी ज़माने में वक़्त थम कर बैठ गया था और फिर ईंट-ईंट बिखेर के बाहर निकल गया था’
उनकी फि़ल्मों के मुकालमों (संवादों) की ज़बान समझ में नहीं आती थी, मगर तस्वीरों की बोली अच्छी तरह समझ लेता था। उनकी फि़ल्मों का हर फ्रेम जि़ंदगी से इतना कऱीब लगता था कि साँस लेता हुआ महसूस होता था।
उस ज़माने में जब इमरजेंसी लग चुकी थी और बहुत से पत्रकार इज़्जत बचाने के लिए घरों में बैठ गए थे। मैं भी अख़बार छोड़ चुका था और वक़्त काटने के लिए अबरार अल्वी के पास चला जाता था।
उसी ज़माने की बात है यानी अक्टूबर 1976 की जब शम्अ ज़ैदी का फ़ोन आया और उन्होंने कहा, ‘ए जावेद! वे सत्यजित राय तुमसे मिलना चाहते हैं।’
मैं हैरान हो गया, ‘मुझ से. वे मुझे क्या जानें!’
‘मुझे ये सब नहीं मालूम, प्रेसिडेंट में ठहरेंगे। परसों शाम को चार बजे मिल लेना।’ उन्होंने सूखा-सा जवाब दिया और फ़ोन बंद कर दिया।
बात सोचने जैसी थी। राजा अदने आदमी से क्यों मिलना चाहेगा। शम्अ बीबी ज़रूर कोई शरारत कर रही हैं। खैर, मैनें फ़ोन किया तो मालूम हुआ कि रे साहब तशरीफ़ ला चुके हैं। फि़लहाल रूम में नहीं हैं। मैं और ज्यादा नर्वस हो गया। दिल के धड़कने की आवाज़ चारों तरफ से आने लगी, ‘यार! ये चक्कर क्या है?
शम्आ ने चार बजे का टाइम दिया था। मैं तीन ही बजे कोलाबा पहुँच गया, जहाँ प्रेसिडेंट है। देर तक लॉबी मेँ घूमता रहा, जहाँ चार-पाँच दुकानें थीं। जब फ़्लोरिस्ट के हर फूल को देख चुका और कश्मीरी कालीनों के सारे डिज़ाइन याद हो गए, तो लॉबी के फ़ोन से नंबर डायल किया। दूसरी तरफ़ से एक गरज़दार मगर ख़ुशगवार आवाज़ सुनाई दी – ‘यस्स’
मैंने अपना नाम बताया ही था कि आवाज़ आई, ‘कम अप!’ और फ़ोन बंद हो गया।
जब छह फ़ीट चार इंच के रे साहब ने दरवाज़ा खोला, तो मेरा मुँह भी खुल गया और देर तक खुला रहा। रे एक शानदार शख़्सियत के मालिक थे। लंबे थे, मगर दुबले नहीं थे।सांवला रंग, कुशादा पेशानी, सलीके से जमे हुए बाल, बड़ी-बड़ी रौशन आँखें, ऊँची सुतवाँ नाक, मुस्कराते हुए होंठ, ठोड़ी जरा चौड़ी थी। कहा जाता है, ऐसी ठोड़ी वाले बहुत मेहनती और मुस्तकिल मिज़ाज होते हैं।
मैंने आदाब किया. उन्होंने सर हिलाकर जवाब दिया और कुर्सी की तरफ इशारा किया। मैं कुर्सी के कोने पर टिक गया। वे बेड पर दीवार से पीठ लगाके बैठे और अपनी चमकती आखों से, जिनमें हल्की-सी मुस्कराहट भी थी, मुझे देखने लगे. चश्मे की डंडी उनके मुँह में थी जिसे वे धीरे-धीरे चबा रहे थे। वे तकऱीबन एक मिनट तक बिना कुछ बोले मेरा जायजा लेते रहे, फिर इंग्लिश मेँ पूछा, ‘मैंने सुना है तुम बहुत अच्छी कहानियाँ लिखते हो।’
मैंने अर्ज किया, ‘कहानियाँ कम, कॉलम ज्यादा लिखे हैं. पता नहीं, कैसा लिखता हूँ। आप कहें तो अपनी कोई तहरीर तर्जुमा करा लूँ। आप देख लें’
उनकी मुस्कुराहट कुछ ज्यादा फैल गई, बोले, ‘कोई ज़रूरत नहीं. मैं तुम्हें देख सकता हूँ और इतना काफ़ी है।’
ये कह कर वे उठे, तकिए पर रखी एक प्लास्टिक की फ़ाइल उठा कर मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहने लगे, “ये मेरी फि़ल्म की स्क्रिप्ट है और तुम इसके डायलॉग लिख रहे हो।”
पता नहीं, मुझे क्या हुआ! दिमाग़ कई हज़ार मील फ़ी घंटे की रफ़्तार से घूम गया। कुछ बोला ही नहीं गया। बड़ी मुश्किल से ख़ुद को संभाला और हाथ में पकड़े फ़ाइल पर नजऱ डाली तो सफ़ेद प्लास्टिक में से मोटे-मोटे स्याह हुरूफ़ दिखाई दिए – फ़ॉर योर आईज़ ओनली।
मगर आखें थीं कि बंद हुई जा रही थीं। बड़ी मुश्किल से कहा, ‘थैंक यू सर, आय एम ऑनर्ड सर।’ वे उठे और दरवाज़ा खोल दिया,’मैं तेहरान फि़ल्म फ़ेस्टिवल में जा रहा हूँ. वापसी पर तुम्हें फ़ोन करूँगा।”जी’, मैंने कहा और स्क्रिप्ट छाती से लगाकर भाग खड़ा हुआ। जब होटल की लॉबी मेँ पहुँचा तो होश जऱा ठिकाने आए। ये हुआ क्या मैं और डायलॉग! और वह भी सत्यजित राय की फि़ल्म के अरे बाप रे!
जेब में हाथ डाल कर पैसे गिने। तो हमेशा की तरह कम ही थे। मगर मैंने कल की नहीं सोची और कोलाबा से टैक्सी पकड़ी और जुहू तारा पहुचा, जहाँ शम्अ रहती थीं। 25 मील लंबा रास्ता कट गया, मालूम ही नहीं हुआ, क्योंकि दिमाग़ कहीं और था। ज़ेहन में सवालों की ऑधी चल रही थी जिसमें जवाबों के पैर उखड़े जा रहे थे। यह पूरा मामला था सत्यजीत राय की क्लासिक ‘शतरंज के खिलाड़ी का’।