आज पुण्यतिथि पर विशेष
मानव मन के भावों को, शब्दों में पिरोकर, उसे अभिनय से जीवंत करने वाले रंगकर्मी का नाम है – हबीब तनवीर। आज उनकी पुण्यतिथि है। ख्यातिलब्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर (habib tanvir) ने कई नाटकों का लेखन और निर्देशन किया। रंगमंच पर उनके निर्देशित नाटक, न केवल दर्शकों का मनोरंजन करते, बल्कि विशेष सामाजिक संदेश भी देते।
हबीब तनवीर की यही विशेषता रही। उनकी रचनाओं ने मनुष्य जीवन की विभिन्न अनुभूतियों को बड़ी ही सुंदर रीति से दृश्य दिए। हबीब तनवीर पद्य विभूषण से भी सम्मानित हुए और राज्यसभा के सदस्य भी रहे। आइए, ऐसे रंगकर्मी के जीवनवृत्त का परिचय पाते हैं।
छत्तीसगढ़ से शुरू हुई रंगमंच की यात्रा, भाई से मिली प्रेरणा
हबीब तनवीर का जन्म 1 सितम्बर 1923 को रायपुर, छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में हुआ। रायपुर में पले-बढ़े हबीब का बचपन बैजनाथपारा में गुजरा। सप्रेशाला में प्रारंभिक शिक्षा हुई। रायपुर से दसवीं तक पढ़ाई करने के बाद वे नागपुर में पढ़े। इसके बाद उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का रुख किया। वहां से वे उर्दू में एमए करना चाहते थे। लेकिन बीच में ही हबीब पढ़ाई अधूरी छोड़कर मुंबई चले गए।
वहां कुछ फिल्मों में छोटे- मोटे किरदार निभाए, लेकिन कोई बड़ा किरदार न मिलने पर, वे रायपुर वापस आ गए। इसके बाद रूसी दूतावास में कुछ काम मिलने पर वे दिल्ली चले गए और यहीं से रंगमंच के आकर्षण ने, उन्हें फिर अपनी ओर खींच लिया। बचपन में हबीब तनवीर ने अपने एक भाई जहीर बाबू को नाटक में अभिनय करते देखा था। तभी से इस कला के प्रति वे आकृष्ट हो गए थे।
सौ से भी अधिक नाटक और पटकथा लिखने वाले हबीब
हबीब तनवीर ने रंगमंच को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया और नया थियेटर (Naya theatre) का गठन किया। उनके मशहूर नाटकों में आगरा बाजार और चरणदास चोर प्रमुख हैं। अपनी लंबी रंगमंचीय यात्रा में, उन्होंने 100 से अधिक नाटकों को निर्देशन और अभिनय से जीवंत किया। लाला शोहरत राय, शतरंज के मोहरे, गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद, मिट्टी की गाड़ी, पोंगा पंडित, जहरीली हवा, द ब्रोकन ब्रिज और राज रक्त उनके मशहूरों नाटकों में शुमार हैं।
उन्होंने नाटक के साथ कई फिल्मों में भी काम किया। इसमें ये वो मंजिल तो नहीं, चरणदास चोर, प्रहार, ब्लैक एंड व्हाइट और राही आदि शामिल हैं।1955 में तनवीर इग्लैंड गए और रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक्स आर्ट्स में प्रशिक्षण लिया। उनका नाटक चरणदास चोर, एडिनवर्ग इंटरनेशनल ड्रामा फेस्ट 1982 में पुरस्कृत होने वाला पहला भारतीय नाटक था।
हबीब तनवीर का बहुआयामी कला जीवन
हबीब तनवीर ने नया थिएटर नामक नाट्य संस्था की स्थापना की। उन्होंने कई वर्षों तक देश भर के ग्रामीण अंचलों में भ्रमण कर लोक संस्कृति व लोक नाट्य शैलियों का गहन अध्ययन किया और लोक गीतों का संकलन भी किया। उनका कला जीवन बहुआयामी था।
वे जितने अच्छे अभिनेता, निर्देशक व नाट्य लेखक थे, उतने ही श्रेष्ठ गीतकार, कवि व संगीतकार भी थे। उन्होंने फिल्मों व नाटकों की बहुत अच्छी समीक्षा भी की। उनकी नाट्य प्रस्तुतियों में लोकगीतों, लोक धुनों, लोक संगीत व नृत्य का सुन्दर प्रयोग सर्वत्र मिलता है। एक तरीके से कहा जा सकता है कि हबीब तनवीर ने, पाश्चात्य रंग में रंगे नाट्य मंचों को, भारतीय लोक परम्परा से समृद्ध किया।
पदम् भूषण से हुए सम्मानित
देश के इस सुविख्यात रंगकर्मी को अनेकों पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। हबीब तनवीर को 1969 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1983 में उन्हें पद्मश्री और वर्ष 2002 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। वे भारतीय संसद के उच्च सदन, राज्यसभा के सदस्य भी रहे।
सांसद के रूप में उनका कार्यकाल 1972 से 1978 तक था। उन्हें कालिदास सम्मान से भी सम्मानित किया गया। भारत के इस प्रसिद्ध ख्यातिप्राप्त व्यक्ति का निधन 8 जून 2009 को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में हुआ। अनेकानेक उपलब्धियों को प्राप्त करने वाले हबीब तनवीर, रंगमंच के क्षेत्र में सदैव आदर से याद किए जाएंगे। उनका कृतित्व कला जगत के साधकों को प्रेरित करता रहेगा।
हबीब तनवीर और ऑल इंडिया रेडियो का अनूठा संयोग
साल 1936 में आठ जून की ही तारीख़ थी, जब इंडियन स्टेट ब्रॉडकास्टिंग सर्विस ख़त्म हुई और उसकी जगह ऑल इंडिया रेडियो ने ली। कहते हैं, साल 2009 में जिस रोज हबीब तनवीर आकाश के तारों में गुम हुए, तारीख़ आठ जून ही थी। बहुत कुछ एक जैसा हुआ उन दोनों (रेडियो हिन्दुस्तान और हबीब तनवीर) के बीच।
मसलन- पैदाइश, दोनों की एक ही साल 1923 में हुई, तीन महीनों के फ़र्क से। जून का महीना था। हिन्दुस्तान पर उस वक़्त अंग्रेजों का राज हुआ करता था। वे ठहरे शौकीन मिजाज़. सो, उन्होंने अपने मनोरंजन के लिए रेडियो कार्यक्रमों के प्रसारण का बंदोबस्त किया। इसके तहत पहली बार रेडियो बोला बंबई से. ‘बंबई प्रेसिडेंसी रेडियो क्लब’ से जारी कार्यक्रमों की आवाज़ें दूर-दराज़ बैठे लोगों के कानों में गूंजीं तब।
और इसके तीन महीने बाद यानी सितंबर की एक तारीख़ को बंबई से कुछ दूर मध्य प्रांत के रायपुर शहर में एक आवाज़ गूंजी। ये आवाज़ थी, हफ़ीज़ अहमद खान के बेटे हबीब की। हफ़ीज़ वैसे तो पेशावर से ताल्लुक रखते थे. लेकिन काम के सिलसिले में रायपुर में आ बसे थे। यहीं उनके लड़के ने पैदाइश पाई थी।
एक तरफ रेडियो जवां हो रहा था तो दूसरी तरफ हबीब साहब
अब एक तरफ़ हिन्दुस्तान का रेडियो जवां हो रहा था, दूसरी ओर हफ़ीज़ साहब का लड़का हबीब। अभी चार बरस बीते थे कि जुलाई 1927 को बंबई और कलकत्ता रेडियो क्लबों को एक छाते के नीचे लाने की गरज़ से अंग्रेज सरकार ने भारतीय प्रसारण कंपनी (आईबीसी) बना दी। और इधर, इसी के कुछ आगे-पीछे हबीब को स्कूल की छत के नीचे दाख़िल करा दिया गया।
पढ़ाई के लिए. रायपुर (Raipur) में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद हबीब अपने घर से बाहर निकल गए। नागपुर चले गए। कॉलेज की पढ़ाई के लिए। ये साल हुआ 1941 का। और इत्तिफ़ाक़ देखिए इससे महज़ एक-सवा साल पहले ही रेडियो हिन्दुस्तान ने भी अपने क़दम बाहर निकाले। विदेशी भाषा में पहली प्रसारण सेवा शुरू की। पश्तो में, यानी जो अफ़ग़ानिस्तान में बोली जाती है। ये वक़्त हुआ, अक्टूबर 1939 का. इसी साल पूर्वी भारत में ढाका रेडियो भी शुरू किया गया।
अब इधर फिर एक दिलचस्प संयोग। उस वक़्त बंगाल के एक बड़े नाटककार और रंगमंच कलाकार होते थे नूर-उल-मोमेन। बाद में जब बांग्लादेश बन गया तो उन्हें वहां के ‘रंगमंच का जनक’ भी कहा गया। तो, नूर-उल-मोमेन साहब ने ढाका रेडियो पर पहली मर्तबा एक नाटक पेश किया।
इसे लिखा भी उन्होंने और निर्देशित भी ख़ुद किया था। यह साल 1942 का था. और उधर, पश्चिमी हिन्दुस्तान में नागपुर के मॉरिस कॉलेज में बीए की पढ़ाई कर रहे हबीब को नाटकों का ठीक-ठाक सुर लगना शुरू हो गया था। कॉलेज में वे कुछ नाटकों में हिस्सा लेने लगे। स्कूल में भी नाटकों में हिस्सा लिया करते थे लेकिन कॉलेज में सिलसिला बढ़ चुका था अब। हालांकि अभी उन्होंने ये सोचा नहीं था कि आगे चलकर उन्हें नाटकों यानी रंगमंच की दुनिया में ही कुछ करना है।
नागपुर के बाद पहुंचे अलीगढ़ तख़ल्लुस रखा ‘तनवीर’ मतलब रोशनी
अब तक उन्हें अव्वल तौर पर उर्दू शायरी और कुछ लिखने-पढ़ने का शौक़ लगा हुआ था। लिहाज़ा, अपने इसी शौक के चलते नागपुर (nagpur) में बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद हबीब 1944 के साल में जा पहुंचे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (Aligarh Muslim University)। एमए की पढ़ाई के लिए। लेकिन यहां मन नहीं लगा ज़्यादा। सो, एक साल में ही यानी 1945 में बंबई का टिकट कटा लिया. उर्दू अदब की दुनिया में नाम करने की ख़्वाहिश थी।
अपना तख़ल्लुस (कवि या लेखक का उपनाम) भी तय कर लिया था, ‘तनवीर’, मतलब रोशनी। हबीब तनवीर हो गए थे अब, जिनके दिल में कहीं एक ख़्वाहिश ये भी सिर उठा चुकी थी कि बंबई में लगे हाथ फिल्मों में अदाक़ारी के मौके मिल जाएं तो और बेहतर। मग़र इत्तिफ़ाक़ ऐसा बन पड़ा कि जिसके संग-संग पैदाइश पाई थी हबीब ने, उसी से बंबई जाकर राहें लड़ गईं। वहां जो पहली नौकरी हाथ लगी, वह रेडियो में प्रोग्राम असिस्टेंट यानी कार्यक्रम सहायक की हुई। इस तरह वहां बच्चों, औरतों, ड्रामे, फिल्म रिव्यू के कार्यक्रम करने लगे।
बंबई में अखबार निकाला, फिल्मों में किरदार भी निभाया
बंबई में एक अख़बार निकाला, ‘बॉक्स ऑफ़िस’। आठ-नौ फिल्मों में क़िरदार भी निभाए। जैसे ख़्वाजा अहमद अब्बास की ‘राही’, जिसमें देवानंद, नलिनी जयवंत और बलराज साहनी जैसे अदाकार थे। इसी दौरान तमाम लोगों से मुलाक़ातें हुईं. मसलन- हिन्दुस्तान की पहली फिल्म-पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ के संपादक बाबूराव पटेल और शायर व नग़मानिग़ार अली सरदार ज़ाफ़री।
कहते हैं कि ज़ाफ़री साहब हबीब को ‘अंजुमन तरक़्क़ी पसंद मुस्सनाफ़िन-ए-हिन्द’ (प्रगतिशील लेखकों का संगठन) की ओर ले गए। ज़ाफ़री ख़ुद इससे जुड़े थे। इस संगठन के तमाम अदबी और अदाक़ारी के पेशों वाले लोग भारतीय जन नाट्य संघ-इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन-Indian people theatre association-IPTA) से भी जुड़े हुए थे। ऐसे में, हबीब का भी उससे रिश्ता होना ही था, जो हुआ. और यहां से उनका रंगमंच से रिश्ता गहरा हो चला।
उसी बीच एक वक़्त ऐसा भी आया, जब इप्टा का पूरा दारोमदार हबीब के कंधों पर आ पड़ा. क्योंकि संगठन के तमाम वरिष्ठ सदस्यों को उनके इंक़लाबी ख़्यालात और कामों की वज़ह से जेल में डाल दिया गया था. ये हिन्दुस्तान की आज़ादी के आस-पास का वक़्त था।
रंगमंच की ओर मुखातिब हुए हबीब
इस वक़्त तक हबीब तनवीर तमाम चीजें पीछे छोड़कर हिन्दुस्तानी रंगमंच की दुनिया में बहुत-कुछ करने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुके थे। और ठीक इसी वक़्त उनका हमउम्र ‘रेडियो हिन्दुस्तान’ भी बहुत-कुछ होने को तैयार हो गया था। अब तक नौ स्टेशन (दिल्ली, बंबई, कलकत्ता, मद्रास, तिरुचिरापल्ली, लखनऊ, पेशावर, लाहौर, ढाका) हो गए थे उसके। और वह मुल्क की लगभग 11 फ़ीसद आबादी तक अपनी आवाज़ पहुंचाने लगा था. पर इतना ही नहीं, इन चीज़ों के अलावा हबीब और ‘रेडियो हिन्दुस्तान’ के बीच एक और तारीख़ी इत्तिफाक़ बना आगे चलकर, आठ जून का।
साल 1936 में आठ जून की ही तारीख़ थी, जब इंडियन स्टेट ब्रॉडकास्टिंग सर्विस ख़त्म हुई और उसकी जगह ऑल इंडिया रेडियो (all india radio) ने ली। कहते हैं, उसी वक़्त गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर ने सुझाया था कि ऑल इंडिया रेडियो का नाम ‘आकाशवाणी’ रखा जाए।
हालांकि यह नाम चलन में पहले से था। भारत के पहले निजी रेडियो स्टेशन ‘आकाशवाणी मैसूर’ की शक्ल में। और बाद वक़्त 1956 में ऑल इंडिया रेडियो को ‘आकाशवाणी’ कहा भी जाने लगा। पर इससे ज़्यादा ग़ौरतलब कि साल 2009 में जिस रोज हबीब तनवीर आकाश के तारों में गुम हुए, तारीख़ 8 जून ही थी।
मुख्यमंत्री ने किया हबीब तनवीर का नमन
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर की पुण्यतिथि पर 8 जून बुधवार को उन्हें नमन करते हुए अभिनय कला के क्षेत्र में उनके योगदान को याद किया। बघेल ने उनके योगदान का स्मरण करते हुए कहा कि हबीब तनवीर जी छत्तीसगढ़ का गौरव थे। उन्होंने इस अंचल की कला को अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया।