पुण्यतिथि 12 अक्टूबर पर विशेष
आलेख/कनक तिवारी
बीसवीं शताब्दी भारतीय इतिहास की सबसे ज्यादा घटना प्रधान रही है। इसी सदी में भारत का इतिहास समृद्ध करने की अपनी कोशिशें राममनोहर लोहिया भी तेज करते रहे। अकाल मौत पाने वाले वह अन्यायी अधिकारतंत्र के खंडक और भारत के मामूली, गरीब आदमी के प्रतीक थे।
लोहिया लगभग सबसे बड़े मौलिक विचारक थे। वे जिस पगडंडी पर चलते थे, वह उनकी स्वतः की निर्मिति होती। समकालीन इतिहास ने अपनी नजर उन पर ठीक से नहीं डाली। कई बौद्धिकों में उनका असाधारण प्रभाव था। इसके बावजूद उनके इंद्रधनुषी व्यक्तित्व का विस्तृत आलोचनात्मक अध्ययन उपलब्ध नहीं है।
किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, श्रीेकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवंश, प्रयाग शुक्ल, विजय देवनारायण साही, मधु लिमये आदि की बड़ी फेहरिस्त बन सकती है।
लोहिया का मकसद सत्ता पर बैठकर शक्ति और सम्पत्ति ऐंठना कभी नहीं रहा। अब यह तो लगातार हो रहा है। जनता भी चुनावों के बाद नए नेताओं को चुन लेने को ही लोकतंत्र समझती है। राजनीति की दुनिया में रहते लोहिया इन्सानी दुनिया के अद्भुत चिंतक थे। अपने निबंध के शीर्षक की तरह मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यक्तित्व लिए जीते रहे।
धार्मिक चोचलों के साधु संत मसलन प्रयाग के कुंभ में प्रवचनों की घुट्टियां पिला रहे थे। उन्हें स्तब्ध करते लोहिया ने प्रसिद्ध भाषण दिया था कि धार्मिक समागम को चाहिए गंगा और यमुना सहित भारत की नदियों को साफ करे। यही बड़ा धर्म है। देश का औद्योगिक कचरा तथा कारखानों और अस्पतालों का प्रदूषित जल नदियों में ज़हर की तरह घुल रहा है।
भारत के सांस्कृतिक इतिहास की कोशिकाएं बनीं यें नदियां मृत्यु के उपरांत भले ही वैतरणी बनकर मोक्ष दिला दें। फिलहाल तो ये खुद ही लाचारी के नाबदानों की तरह हैं। संसद को भी तब तक कर्तव्य-बोध नहीं था। जल प्रदूषण अधिनियम, 1974 में वायु प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम, 1981 में और प्र्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 में अधिनियम हुआ।
लोहिया के लिए कुुटिल व्यंय के फतवे जारी किए जाते कि कुंआरा रहने के कारण स्त्री को लेकर उनकी दृष्टि में खास तरह का यूरोपीय मुक्त रोमांटिसिज़्म गहरा गया है। स्त्री और पुरुष के परंपरावादी बांझ रिश्ते को लेकर लोहिया में बेपरवाह नस्ल का खुलापन था। उनकी समझ थी स्त्री स्वायत्त और परिपूर्ण है। उसमें क्षितिज तक पहुंचने की अपूर्व संभावनाएं हैं। वह एक ऐसी सर्वसंभावना संपन्न औरत से थी जो जरूरत पड़ने पर पुरुषों को मात देते इतिहास तक का बोझ अपने सर पर उठा ले।
रंगभेद की दुनिया के सौंदर्य की आड़ में पीड़ित की जाती सांवली बल्कि काली स्त्री को लोहिया ने सम्मान देने की मुहिम चलाई। लोहिया ने कहा था कि विश्व इतिहास में नारी अगर नर के बराबर हुई है तो केवल ब्रज में और वह भी केवल कान्हा के पास। उनकी थीसिस थी कि स्त्री पुरुष के संबंधों का कोई छोर या अंत नहीं होता। वह अनंत होता है।
लोहिया की भाषा बेहद उर्वर, भविष्यमूलक, स्वप्नशील लेकिन आमजन की चेतना से जुड़ी रही। उन्होंने पौराणिक मिथकों, किवदंतियों, अफवाहों और आख्यानों का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया।
लोहिया का तर्क था कृष्ण की सभी चीजें दो हैं। दो मां। दो बाप। दो बल्कि कई प्रेमिकाएं। दो नगर आदि। कृष्ण के जीवन में पराई अपनी से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है। भाषा की रोशन फुलझड़ी जलाते लोहिया कहते हैं पराई का अपने से बढ़ जाना ही तो कृष्ण हो जाना है। भारतीय बौद्धिक समझ के भंडार को लोहिया लगातार विकसित करते रहे।
लोहिया में जबरदस्त इतिहास बोध था। अकाल मृत्यु के कारण उन्हें वक्त नहीं मिला कि इतिहास पर पड़ी सलवटों पर अपने तर्क की इस्तरी करते। ऐतिहासिक चरित्रों अशोक और अकबर वगैरह को भी लोहिया अपने अभूतपूर्व सांस्कृतिक मानस में कबीर, तुलसीदास, चैतन्य, मीराबाई, नानक और गालिब वगैरह के मुकाबले संवेदन के अभाव में फीका चित्रित करते हैं।
लोहिया को संविधान सभा में होना चाहिए था। लोहिया होते तो संविधान को बनाते वक्त मानवधर्मी, मानव अधिकार युक्त और मानव की गरिमा से सींचने की कोशिश संविधान सभा में जरूर होती। यूरोप और अमेरिका के भारत के शासनतंत्र, जातिप्रथा, मतवाद, बहुलधर्मिता, वर्णाश्रम जैसी कई रूढ़ियों से परिचित, प्रताड़ित नहीं हैं। इसलिए मूल अधिकारों का संविधान में जो विवरण है, वह मानव अधिकारों के लचीले संदर्भों को भुलाता हुआ सा नजर आता है।
धर्म की सामासिक ताकत के पक्षधर लोहिया ने रामायण मेला करने का अभिनव वैचारिक खाका खींचा। आग्रह किया कि लोकतंत्र को राम की मर्यादा से रचना चाहिए। लेकिन सीता के निर्वासन और शूर्पणखा के साथ घटित किस्से को लोहिया ने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में अनुचित बताया।
लोहिया में एक चिंतक का एकाकीपन भी था। उन्होंने कई मुद्दों और मौकों पर गांधी के विचार को संशोधित करने तक की कोशिश की। मूलतः गांधीवादी लोहिया ने गांधीवाद के साथ आइन्स्टीन के वैज्ञानिक चिन्तन और जर्मन नव-स्वच्छन्दतावाद का समन्वय किया। जवाहर लाल नेहरू ने कई बार महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां सौंपनी चाहीं। अपने असमझौतावादी रुख के कारण लोहिया ने ऐसे प्रस्तावों को खारिज कर दिया।
अधकचरे, फैशनेबिल, किताबी समाजवादियों की भीड़ से अलग थलग लोहिया समाजवादी शक्तियों के एकीकरण के लिए कार्य करते रहे। आदर्श चौखम्भा राज्य की उनकी मौलिक परिकल्पना थी। भारत की धरती के प्रति लोहिया में अगाध निष्ठा थी और पश्चिमी संस्कृति के प्रति आदर की भावना भी। इनके सांस्कृतिक सहवास की उपज, एंग्लो इंडियन संस्कृति को लेकिन वह गंगा के किनारे पड़ा कचरा ही समझते रहे।
निरक्षर किसानों और पश्चिमपरस्त शासक वर्ग के बीच चौड़ी होती भयानक घाटी से देश को लोहिया और नहीं गुजरने देना चाहते थे। ‘अंग्रेजी हटाओ आंदोलन‘ इसी से उनके जीवन का ध्येय बन गया। लोहिया पहला जननेता था, जिसने भाषा के सवाल को भूख से जोड़ा।
पूंजी का समीकरण उलझते देख लोहिया ने खर्च पर प्रतिबंध की साधारण, कूटनीतिक मांग की। अपने ‘तीन आना‘ वाले एक पंक्ति के ऐतिहासिक वक्तव्य के जरिये उन्होंने योजनाओं के निर्माताओं, अर्थशास्त्रियों, सांख्यिकी वेत्ताओं और आई.सी.एस. अधिकारियों की फौज के बोझिल, किताबी व्यक्तित्व को बौना कर दिया। वर्गहीन समाज की स्थापना का उनका संघर्ष लेकिन मार्क्सवादी नहीं था। कम्युनिस्टों और ठंडे किताबी समाजवादियों की भीड़ से कतराए हुए वह अलग थलग एक समाजवादी विश्व अपने में समेटे थे।
उन्हें गरीबों की पीड़ा की बहुत चिंता थी। विनोदप्रियता के बावजूद उनका निजी व्यक्तित्व वेदनामय रहा। मजबूत कूटनीतिक व्यूहरचना की जुगत के बावजूद लोहिया हथकंडों की राजनीति में असफल रहे। लोहिया की यही सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि वे संभावनाओं के जननायक थे। जीवन और मिला होता तो परिस्थितियों के तेज परिवर्तन ने उन्हें भावी इतिहास में बेहतर जगह दी होती।
अपने आखिरी दिनों में वे उपेक्षित और अनुद्घाटित प्रश्नों के अनाथालय बन गये थे। मरणासन्न लोहिया में ही पीढ़ी ने अपना भविष्य धुंधलाते देखा, यही उसका दुर्भाग्य है। हिन्दू साम्प्रदायिकता ने कांग्रेस विरोध की आड़ में लोहिया का फायदा उठाया ।यहां डाक्टर लोहिया परिस्थितियों का व्यावहारिक आकलन नहीं कर पाए।