एक गाँव, 963 लोग और एक ‘आशा’ दीदी
देश के लिए मिसाल बनी ओडिशा की बेटी
भुवनेश्वर। ओडिशा में नारी शक्ति का प्रतीक बन कर उभरी 45 वर्षीय मतिल्दा कुल्लू को प्रतिष्ठित पत्रिका फ़ोर्ब्स ने सबसे ताकतवर भारतीय महिलाएं-21 की सूची में जगह बनाई है।
आपको जानकार हैरानी होगी कि मतिल्दा कोई राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक या बिज़नेस वुमन नहीं, बल्कि वह तो ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले के गर्गडबहल गांव की एक आशा वर्कर हैं।
तो जानिए, आखिर क्या है उनकी ताकत! आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या काम किया इन्होंने, जिससे वह इतनी मशहूर हो गईं? आपको जानकर हैरानी होगी कि मतिल्दा न कोई बिज़नेस करती हैं न ही वह ज्यादा पढ़ी लिखी हैं।
अपने गांव के लोगों की सेहत का रखती हैं ध्यान
मतिल्दा अपने छोटे से गांव में रहनेवाले सभी 963 लोगों के स्वास्थ्य का ध्यान रखती हैं। लेकिन जो बात उन्हें खास बनाती हैं, वह यह है कि अपने इस काम को वह पूरी लगन के साथ करती हैं।
मतिल्दा ने साल 2006 में परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के मकसद से, अपने गांव गर्गडबहल में आशा (Accredited Social Health Activist-ASHA) वर्कर का काम करना शुरू किया था। दरअसल, मतिल्दा के पति खेती और पशुपालन से ज्यादा नहीं कमाते थे।
मतिल्दा को अपने बच्चों के भविष्य की चिंता थी। वह उन्हें अच्छी शिक्षा देना चाहती थीं। तभी साल 2005 में, जब सरकार ने गांववालों के स्वास्थ्य के लिए हर गांव में आशा वर्कर चुनने का फैसला किया, तब मतिल्दा ने यह नौकरी स्वीकार कर ली।
आसान नहीं था मतिल्दा का सफर
जब मतिल्दा अपने गाँव की पहली आशा वर्कर बनीं, उस समय स्वास्थ्य की दृष्टि से गाँव की हालत काफी ख़राब थी।
मतिल्दा कहती हैं, “तब गाँव की कोई भी गर्भवती महिला अस्पताल में डिलीवरी के लिए नहीं जाना चाहती थीं। इसलिए डिलीवरी के दौरान, माँ या नवजात बच्चे की मृत्यु हो जाना, आम बात थी। गंभीर से गंभीर बीमारी के लिए लोग झाड़-फूंक या टोना-टोटके पर यकीन करते थे।”
इसलिए जब मतिल्दा ने ‘आशा दीदी’ का काम संभाला, तब उन्होंने महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देने का फैसला किया। वैसे तो मतिल्दा ने यह नौकरी पैसों के लिए की थी, लेकिन जब उन्हें धीरे-धीरे इस काम की गंभीरता का अंदाज़ा हुआ, तब उन्होंने गाँववालों की सेहत का सारा ज़िम्मा अपने कन्धों पर ले लिया।
15 सालों से आशा दीदी के तौर पर काम कर रहीं मतिल्दा ने सिर्फ अपने सेवा-भाव के कारण, अपने जिले के साथ-साथ, विश्वभर में अपनी पहचान बनाई।
मतिल्दा ने कैसे रखी बदलाव की नींव?
मतिल्दा के जीवन में एक समय ऐसा भी आ गया था, जब उन्होंने काम छोड़ देने का मन बना लिया था। लेकिन उन्हें पता था कि गांववालों की पुरानी मानसिकता को किसीको तो बदलना ही होगा। उन्होंने इस बदलाव के लिए कोशिश करना शुरू कर दिया।
वह बताती हैं, “पहले तो लोग मुझे सुनना नहीं चाहते थे, फिर भी मैं घर-घर जाकर उन्हें दवाईयां देती। गर्भवती महिलाओं को समझाती और ऐसा मैं निरन्तर करती रहती।”
10वीं पास मतिल्दा ने बढ़-चढ़कर जिले में आयोजित होने वाले हर ट्रेनिंग प्रोग्राम में भाग लिया, ताकि इसका ज्यादा से ज्यादा फायदा गांववालों तक पंहुचा सकें। अपने घर का सारा काम संभालते हुए, वह घर-घर जाकर लोगों को जागरुक करने का काम करने लगीं।
स्वास्थ्य जागरुकता के क्षेत्र में किया अनूठा काम
मतिल्दा अपने गांव में गर्भवती महिलाओं को सही पोषण की जानकारी देतीं, उन्हें और उनके घरवालों को अस्पताल में ही डिलीवरी कराने के लिए प्रेरित करतीं। मतिल्दा पूरी कोशिश करतीं कि सरकार की ओर से दी जाने वाली हर तरह की स्वास्थ्य से जुड़ी योजनाएं, उनके गांव में अमल हों।
उनके प्रयासों के कारण, धीरे-धीरे ही सही, बदलाव आना शुरू हुआ। गांव के अस्पताल की दशा सुधारने के लिए भी उन्होंने काफी मेहनत की, ताकि गांववालों को अस्पताल में अच्छी सुविधाएं मिल सकें।
वह कहती हैं, “जिन-जिन चीजों की जरूरत अस्पताल में रहती, मैं उनके लिए जिला स्तर तक अर्जी देती। मैं पूरी कोशिश करती कि गांव के अस्पताल में कभी भी दवाईयों की कमी न हो। कुछ लोगों को बड़े अस्पताल में भेजना पड़ता, तो उसका इंतजाम भी मैं कर देती थी।”
15 साल के करियर में, करीबन 200 डिलीवरी करवाई!
मतिल्दा गर्व के साथ कहती हैं, “आज स्थिति यह है कि हर महिला अस्पताल में ही डिलीवरी करवाना चाहती है। ऐसा करने में और लोगों का विश्वास जीतने में, मेरी सालों की मेहनत है।
कई बार आशा वर्कर तनख्वाह नहीं मिलने पर काम छोड़ देती हैं, लेकिन मैंने पैसों से ज्यादा इस काम को अहमियत दी। मेरा मानना है कि किसी माँ की गोद में उसके स्वस्थ बच्चे को देखने या गंभीर बीमारी से लड़ते हुए लोगों को सही दवाई देकर बचाने में जो ख़ुशी मिलती है, वह सबसे अनमोल है।”
मतिल्दा ने टीबी और फाइलेरिया जैसे रोगों को गाँव से कम करने के लिए भी कई प्रयास किए हैं।
वह पूरे गाँव में नवजात बच्चों को लगने वाले टीकों का खास ख्याल रखती हैं, ताकि कोई भी बच्चा बीमार न हो जाए। गांववालों को अब उनपर इतना भरोसा है कि हर कोई अपनी परेशानी लेकर उनके पास ही आता है और मतिल्दा भी दिन-रात उनकी सेवा में हाजिर रहती हैं। कोरोनाकाल के दौरान भी, उन्होंने निडर होकर गांववालों के स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखा।
आखिर काबिलियत को मिला सम्मान
मतिल्दा अपने जिले में आशा वर्कर्स यूनियन की प्रेसिडेंट हैं। इसके अलावा वह आशा वर्कर के नेशनल फेडरेशन में भी कमिटी मेंबर के तौर पर काफी एक्टिव हैं। उनमें गजब की लीडरशिप क्वालिटी है, जिससे लोग उनकी बात सुनते और समझते भी हैं।
वह कई बार ओडिशा की आशा वर्कर्स को लेकर नेशनल सेमिनार में भाग लेने जाती रहती हैं। उनकी काबिलियत को पहचानते हुए, विभाग ने उन्हें देश की सबसे अच्छी आशा वर्कर के रूप में सम्मानित किया है।
मतिल्दा कहती हैं,”उस समय मुझे किसी बड़ी मैगज़ीन के बारे में कुछ पता नहीं था। लेकिन मेरी जैसी कई आशा वर्कर्स गांव में काफी मेहनत करती हैं, इसलिए मुझे हमेशा से चाह थी कि हमारी कहानी भी कोई लिखे, जिससे आशा वर्कर्स के काम को लोग सम्मान से देखें, क्योंकि हम गांव को सुधारने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं।”
उनका यह सपना भी पिछले साल पूरा हुआ, जब उन्हें फोर्ब्स की सबसे ताकतवर भारतीय महिलाओं की लिस्ट में उन्हें जगह मिली और उनके काम के बारे में लिखा गया।
संघर्ष अब भी जारी, पर मतिल्दा की हिम्मत को सलाम!
मतिल्दा के पति अब भी खेती ही करते हैं, जिससे ज़्यादा आमदनी नहीं होती। अपने घर का खर्च चलाने के लिए, मतिल्दा आशा वर्कर का काम करने के अलावा, रात को समय मिलने पर कपड़े सीलने का काम भी करती हैं।
उन्होंने अपने दोनों बच्चों को इसी तरह, ग्रेजुएशन तक की शिक्षा दिलाई है।
इतने संघर्षों के बावजूद, जिस असाधरण तरीके से उन्होंने अपने साधारण से काम में निष्ठा दिखाई है, वह वास्तविकता से परे है। मतिल्दा के इस जज़्बे और जूनून को हमारा सलाम!